युवा अकाली दल के सरपरस्त और विधायक विक्रमजीत सिंह मजीठिया ने यह कहकर पंजाब की राजनीति में भूचाल ला दिया है कि वह पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर सिंह का सिर कलम करने के लिए अकेले ही काफी हैं तथा इसके लिए उन्हें उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल की मदद लेने की आवश्यकता नहीं होगी। यह बयान उन्होंने अमृतसर में एक बस अड्डे के उद्घाटन समारोह में अपने संबोधन में दिए। हालांकि बाद में जब उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि उन्होंने अनुचित बयानबाजी कर दी है तो उन्होंने इसे सुधारने की कोशिश की और कहा कि उनका मंतव्य कैप्टन अमरिंदर सिंह के सियासी कत्ल से था, लेकिन तब तक ब्यास में काफी पानी बह चुका था। उनका बयान अखबारों की सुर्खियां बन चुका था और उस पर कांग्रेसियों की प्रतिक्रियाएं भी आने लगी थीं। कई कांग्रेस नेताओं ने मजीठिया को चुनौती तक दे डाली कि जहां मजीठिया चाहें, वे पहुंचने के लिए तैयार हैं। इस पर सबसे ताजा टिप्पणी होशियारपुर से सांसद संतोष चौधरी की थी। उन्होंने इसकी न केवल जमकर आलोचना की, बल्कि मजीठिया के खिलाफ कई गंभीर आरोप भी लगाए। जैसा कि राजनीति का चलन बनता जा रहा है, ऐसे मौकों पर छुटभैया नेता बड़े नेताओं से भी अधिक तेजी दिखाते हैं, यहां भी वैसा ही हुआ। ऐसे ही कुछ नेताओं ने मजीठिया के विरुद्ध आपत्तिजनक शब्द कहे और कुछ स्थानों पर उनके पुतले भी फूंके गए। तात्पर्य यह कि उनकी सफाई से अधिक उनके बयान ने रंग दिखाया और राजनीति में एक तनाव का माहौल बन गया। कदाचित इस मामले को यदि समय रहते न संभाला गया होता तो इसके भी अवांछित परिणाम निकलते। इस बात की व्याख्या की आवश्यकता नहीं है कि लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में हिंसा का कोई स्थान नहीं होता है। चाहे वह व्यावहारिक रूप में हो या वक्तव्य के रूप में। मजीठिया का मंतव्य चाहे कुछ भी रहा हो, किंतु जिस प्रकार के शब्दों का प्रयोग उन्होंने किया उससे कम से कम हिंसा का बोध तो होता ही है। राजनीति में इस प्रकार के वक्तव्य से किसी प्रकार के सकारात्मक परिणाम की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। ऐसी ही बातें आगे चलकर बड़ी हिंसक घटनाओं का कारण बनती हैं। यही कारण है कि हर चुनाव के दौरान मार-काट और हत्या जैसी घटनाएं होती हैं। यह भाषा राजनीतिकों की न होकर बाहुबलियों की होती है। इसमें संदेह नहीं कि मजीठिया भले ही राजनीति में अपरिपक्व हों, लेकिन वह बाहुबली तो नहीं ही हैं। वह मंत्री रह चुके हैं और अपने कार्यकाल में अच्छा प्रदर्शन भी कर चुके हैं। विक्रमजीत सिंह मजीठिया के बयान की गंभीरता को सुखबीर सिंह बादल ने उसी समय भांप लिया और बाद में इस पर जिस प्रकार की सधी हुई प्रतिक्रिया उन्होंने व्यक्त की, उससे सहज ही उनके मंजे हुए राजनेता का अहसास होता है। सुखबीर सिंह बादल सांसद रह चुके हैं और प्रदेश के उपमुख्यमंत्री भी हैं। पंजाब की राजनीति में उन्हें प्रकाश सिंह बादल के वारिस के तौर पर देखा जाता है। उन्होंने मजीठिया के बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि वह व्यक्तिगत कटाक्ष पर विश्वास नहीं करते हैं। सुखबीर सिंह बादल की टिप्पणी यह जाहिर करती है कि उन्हें जनता के मिजाज की सही समझ और उसकी नब्ज की पहचान है। धरातल की सच्चाई भी यही है कि जनता राजनीति में इस प्रकार की उत्तेजक बयानबाजी और भड़काऊ भाषणों को पसंद नहीं करती है। वह राजनेताओं से जनहित के कामों की अपेक्षा करती है और उसके पूरा न होने पर उन्हें खारिज कर देती है। इसका उदाहरण कई राज्यों में देखने को मिल चुका है। सर्वाधिक ताजा उदाहरण बिहार का है, जहां नीतीश कुमार को जनता दोबारा सत्ता में आने का अवसर मात्र उनके काम को देखते हुए ही दिया, जबकि उनके प्रखर प्रतिद्वंद्वी लालू प्रसाद यादव अपनी बयानबाजी के कारण ही प्रदेश की राजनीति में हाशिये पर चले गए। वैसे मजीठिया ने जिस प्रकार के शब्दों का प्रयोग सार्वजनिक रूप से किया, वे प्रदेश के लिए नए नहीं हैं। कांग्रेस के अनेक नेता भी पूर्व में इसी प्रकार की भाषा का इस्तेमाल करते रहे हैं। स्वयं कैप्टन अमरिंदर सिंह भी कई बार आम सभाओं में बादल पिता-पुत्र पर आपत्तिजनक टिप्पणी कर चुके हैं। यही कारण है कि दोनों के बीच निजी मुकदमे बाजी भी हो चुकी है। किंतु अब समय काफी बदल चुका है और मतदाता काफी जागरूक हो चुके हैं। उसे राजनेताओं की आपसी लड़ाइयों से कुछ भी लेना-देना नहीं होता है। यह बात कुछ राजनेता समझ भी रहे हैं, किंतु ऐसे नेताओं की संख्या बेहद कम है। अधिकांश नेता इसी भुलावे में हैं कि वे भड़काऊ भाषणों से जनता को बरगला कर अपना उल्लू सीधा कर सकते हैं। उनका यही भ्रम लोकतंत्र को हिंसा की ओर धकेल रहा है। पंजाब भी इससे अछूता नहीं है। यहां भी चुनावों के दौरान हिंसा की घटनाएं हो चुकी हैं। इसमें संदेह नहीं कि राजनेताओं के मुंह से निकला हर शब्द दूर तक प्रभाव छोड़ता है। नेताओं के बयान के आधार पर ही कार्यकर्ता अपनी रणनीति तय करते हैं। कुछ स्थानीय नेता तो बड़े नेताओं के बयान को ही पार्टी की नीति समझ कर उसी दिशा में आगे बढ़ने लगते हैं। यही कारण है कि बड़े नेताओं के निरर्थक बयान पार्टी की छवि भी खराब करते हैं। जहां तक विक्रमजीत सिंह मजीठिया का सवाल है तो उनका सौभाग्य है कि उनकी पार्टी में उनकी गलतियों को सुधारने के लिए सुखबीर बादल जैसा नेता मौजूद है, अन्यथा अन्य राजनीतिक दलों में तो किसी नेता के ऐसे बयान का सियासी लाभ पार्टी में मौजूद अन्य नेता ही उठा लेते हैं और बयान देने वाला हाशिये पर धकेल दिया जाता है। अब समय आ गया है, जब नेताओं को समय की रफ्तार को समझना होगा और यह स्वीकार करना होगा कि उनका काम ही उनके राजनीतिक भविष्य को तय करेगा, क्योंकि यही राजनीति की मुख्य धारा बन रही है। जनता की पसंद-नापसंद का पैमाना बेहतर काम ही है और जो नेता इसकी उपेक्षा करते हैं उन्हें जनता रद्दी की टोकरी में डाल देती है। नेताओं को भावनात्मक मुद्दे उठाने के बजाय अपने क्षेत्र के विकास के लिए काम करना चाहिए। जिस राज्य में विकास होगा, वहां की जनता खुश रहेगी और अपने नेता को प्यार भी करेगी। किसी भी राजनीतिक दल को लंबे समय तक जीवित और दमदार बनाए रखने का सूत्र भी यही है कि उसके नेता जनहित को प्राथमिकता दें और निजी विवादों से दूर रहें। लोकप्रिय नेता भी वही होता है, जिसके नाम के साथ कोई विवाद नहीं जुड़ा होता है। सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके भारतीय जनता पार्टी के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी इसके साक्षात उदाहरण हैं। (लेखक दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं)
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