उत्तर प्रदेश के औरैया दौरे के समय जब सूबे की मुख्यमंत्री मायावती की जूतियों में धूल की परत चढ़ गई तो बेहतरीन सेवाओं के लिए राष्ट्रपति पदक से सम्मानित डीएसपी स्तर के अधिकारी पद्म सिंह ने अपनी जेब से रुमाल निकालकर एक बार फिर बेहतरीन सेवा का उदाहरण प्रस्तुत किया। मुख्यमंत्री जिला अधिकारी और दूसरे अफसरों से चर्चा में मशगूल थीं और ये जनाब अपनी रुमाल से मायावती की जूतियों को साफ कर अपना भविष्य चमकाने में लगे थे। अब इसे मुख्यमंत्री मायावती का सामंतवादी रवैया कहा जाए या फिर अपने फायदे के लिए तमाम हदों को पार करते हुए नौकरशाहों की चापलूसी, लेकिन मुख्यमंत्री की जूतियां चमकाने वाले इस सुरक्षा अधिकारी के आगे-पीछे उत्तर प्रदेश के कई आला अफसर भी मंडराते नजर आते हैं। इस पूरे मामले के सामने आने के बाद दूसरे दलों के नेता इसे शर्मनाक और राजनीतिक मर्यादाओं के खिलाफ बता रहे हैं, लेकिन चापलूस नेताओं की यह जमात केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं, देश के हर राज्यों में पाई जाती है। किसी आइएएस अफसर को चरण छूने की वजह से किसी बड़े विभाग की जिम्मेदारी मिल जाती है तो मुख्यमंत्री के घर पर गमले उठाकर एक जगह से दूसरी जगह रखने वाला एक अफसर तमाम शिकायतों के बाद भी नगर निगम आयुक्त के पद पर बना रहता है। प्रशासन में राजपूत यानी जिसका राज, उसके पूत वाले ऐसे लोगों की लंबी-चौड़ी जमात है, जो चमचागीरी की बदौलत प्रशासन में अहम जिम्मेदारियां संभाल रहे हैं। चापलूसी और चमचागीरी का आलम यह है कि अगर आपने मुख्यमंत्री या मंत्री को खुश रखा हुआ है तो फिर आप किसी भी खास विभाग या जिले में अपनी मर्जी से नौकरी कर सकते हैं। चापलूसी या साठगांठ के इस खेल में नेता और नौकरशाह अपने फायदे के लिए एक-दूसरे की खामियों पर पर्दा डालने में जुटे रहते हैं और ईमानदार अफसरों को हाशिए पर डाल दिया जाता है। रीढ़विहीन ऐसे नौकरशाह कभी मुख्यमंत्री या मंत्री के जूते-चप्पल उठाते हैं या फिर अपनी गरिमा का ख्याल नहीं रखते हुए नेताओं के इर्द-गिर्द मडराते नजर आते हैं। यह हाल केवल राज्य स्तर की सेवाओं से जुड़े अफसरों का नहीं है, भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा जैसी प्रतिष्ठित सेवा से जुड़े अफसर भी आपको मंत्री या मुख्यमंत्री या केंद्रीय मंत्रियों की जी हुजूरी करते दिखाई दे जाएंगे। उत्तर प्रदेश में इस वाकये के बाद एक बार फिर यह सवाल सामने आ गया है कि आखिर ये अफसर किसी नेता की चापलूसी और चमचागीरी क्यों करते हैं? इन अफसरों की वजह से मजबूत रीढ़ वाले ईमानदार अफसरों को किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है? चापलूसी नहीं करने वाले अफसरों को किस तरह हाशिए पर डाल दिया जाता है? क्या नेताओं और नौकरशाहों के बीच साठगांठ की वजह से ही आज देश के प्रशासनिक ढांचे की दक्षता पर सवाल उठने लगे हैं? वर्ष 2005 में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में गठित दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन किया गया था, जिसने सरकारी सेवकों के सेवा नियमों में कई तरह के बदलाव की सिफारिशें की थी ताकि चापलूसी की दम पर विभाग में टिके नकारा अफसरों को दरकिनार किया जा सके। इस रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र था कि सरकारी सेवकों की 14 साल की नौकरी के बाद समीक्षा की जाएगी, जिसमें इन लोगों के मजबूत और कमजोर पक्षों को सामने लाया जाएगा। इसके साथ ही 20 साल की सेवा पूरी होने के बाद होने वाली समीक्षा में यह देखा जाएगा कि ये अफसर आगे सेवा में रहने के योग्य हैं या नहीं। इस दूसरी समीक्षा में नाकाबिल अफसरों को उनकी सेवा से हटा दिए जाने की बात भी कही गई है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सिविल सर्विसेज लॉ में संशोधन का सुझाव भी दिया था। रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि सभी विभागों के लिए प्रदर्शन आधारित मूल्यांकन व्यवस्था लागू की जानी चाहिए और इसे और ज्यादा पारदर्शी बनाने की जरूरत है। इतना ही नहीं, नौकरशाही का मनोबल ऊंचा रखने के लिए रिपोर्ट में यह सिफारिश भी की गई है कि उल्लेखनीय काम की अनदेखी नहीं होनी चाहिए और उसका अलग से मूल्यांकन होना चाहिए। प्रशासनिक सुधार के लिए देश में इस तरह की पहल पहले भी कई बार की गई। 1949 में गोपालस्वामी आयंगर ने प्रशासन में सुधार तथा पुनर्गठन के लिए अपना प्रतिवेदन दिया था। 1956 में नई दिल्ली में भारतीय लोक प्रशासन संस्थान की स्थापना हुई, जिसकी आज लगभग सभी राज्यों में शाखाएं हैं। 1966 में मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में देश के पहले प्रशासनिक सुधार आयोग की स्थापना की गई थी। कुल मिलाकर प्रशासनिक ढांचे में सुधार हो या नहीं, लेकिन आयोग और सिफारिशों का सिलसिला लंबे समय से जारी है। मोइली की रिपोर्ट में भले ही नौकरशाही का मनोबल बनाए रखने के लिए उनके उल्लेखनीय कामों की अनदेखी नहीं किए जाने की बात है, लेकिन केंद्रीय सेवाओं से लेकर राज्य सेवाओं तक में उन्हीं अफसरों की पूछ-परख ज्यादा होती है, जो या तो नेता की चापलूसी की दम पर टिके रहते हैं या अपनी तिजोरियां भरने के लिए इनकी नेताओं के साथ साठगांठ हो जाती है। उत्तर प्रदेश के आइएएस अफसरों ने मतदान के जरिए भ्रष्ट आइएएस अफसरों की सूची बनाने की प्रक्रिया शुरू की थी और इस सूची में उत्तर प्रदेश कैडर के 1971 बैच के अधिकारी बीएस लाली का नाम भी शामिल था, लेकिन इसके बाद भी अपने संबंधों के चलते उन्हें 2006 में प्रसार भारती का सीईओ बना दिया गया। आखिरकार राष्ट्रमंडल खेलों के प्रसारण मामले में हुए घोटाले को लेकर राष्ट्रपति ने लाली को उनके पद से हटा दिया। जब तक नेताओं और नौकरशाहों के बीच बन चुकी साठगांठ को खत्म नहीं किया जाएगा, तब तक देश को न तो भ्रष्टाचार से निजात मिलेगी और न ही किसी तरह का प्रशासनिक सुधार ही दिखाई देगा। ऐसा नहीं है कि आज देश में काबिल और ईमानदार अफसर नहीं हैं, लेकिन ऐसे अफसरों को हाशिए पर डाल दिए जाने जैसी बातें आम हो गई हैं। अक्सर ऐसे अफसर भ्रष्ट नेताओं की नाक में दम करते हैं और नेता अपनी पहुंच का इस्तेमाल करके इन अफसरों का तबादला विभागीय प्रशिक्षण संस्थानों में करवा देता है। मंत्री तो दूर की बात है, विधायक और सांसद भी अपने इलाके में थानेदार से लेकर तहसीलदार और एसडीएम से लेकर डीएम के पद पर अपने पसंदीदा लोगों को ही नियुक्त करवाते हैं। प्रशासनिक सुधार के लिए सरकार को कागजी पहल से ऊपर उठकर ध्यान देने की जरूरत है, तभी देश में कोई नौकरशाह अपने फायदे के लिए किसी मुख्यमंत्री की जूतियां साफ करते नजर नहीं आएगा। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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