Saturday, February 12, 2011

दक्षिण में कांग्रेस


पार्टी के हाथ से निकल रहा यह क्षेत्र
लोकप्रिय फिल्म स्टार चिरंजीवी पिछले दिनों अपनी प्रजा राज्यम पार्टी के कांग्रेस में विलय की मंजूरी के उद्देश्य से ही सोनिया गांधी से मिलने 10, जनपथ गए थे। चिरंजीवी को कांग्रेस में लाने की बातचीत पिछले कई महीनों से चल रही थी। अहमद पटेल आंध्र के इस अभिनेता के संपर्क में तो थे ही; हाल में कांग्रेस अध्यक्ष ने एके एंटनी को, जो उनके करीबी हैं और पार्टी में जिनका दबदबा उत्तरोत्तर दिखने लगा है, इस मुहिम पर लगाया था।
दरअसल हाल के महीनों में चुनावी नुकसान से परेशान कांग्रेस के लिए यह गठबंधन तात्कालिक जरूरत बन गया था। कांग्रेस को न सिर्फ एक के बाद एक सामने आ रहे घोटाले से अपनी खराब होती छवि को उबारने के लिए जूझना था, बल्कि 2 जी स्पेक्ट्रम मामले की परिणति, राजा की गिरफ्तारी और सीबीआई द्वारा किसी भी समय करुणानिधि और कणिमोझी से पूछताछ की आशंकाओं को देखते हुए, जिसका तमिलनाडु विधानसभा चुनाव के नतीजे पर असर पड़ना तय है, कदम उठाना ही था।
दक्षिण के चिंतित कांग्रेसी ये सारी बातें अकेले में स्वीकारते हैं। अलबत्ता पार्टी नेतृत्व ने द्रमुक और पीएमके के साथ गठजोड़ का निर्णय लिया है, और कांग्रेस की नवगठित चुनाव समिति ने इस सप्ताह बैठक में इस पर विचार भी किया कि कैसे द्रमुक से ज्यादा सीटें ली जा सकती हैं।
हालांकि जयललिता ने भी आगे बढ़कर कांग्रेस के साथ गठजोड़ की पेशकश की थी, लेकिन कांग्रेस यह जोखिम नहीं उठा सकती। इसकी एक वजह तो यही है कि लोकसभा में अन्नाद्रमुक के उतने सांसद नहीं हैं, जितने द्रमुक के हैं। फिर जयललिता के साथ मिलकर कांग्रेस ऐसा कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती, जो केंद्र की उसकी सरकार के लिए मुश्किल खड़ी करे। कांग्रेस ने शायद इसका भी हिसाब लगाया होगा कि अगर द्रमुक तमिलनाडु में हार जाती है, तब भी वह केंद्र में कांग्रेस पर ज्यादा निर्भर रहेगी और समर्थन वापस नहीं लेगी। इसलिए तमिलनाडु में द्रमुक से गठजोड़ बनाए रखना कांग्रेस की मजबूरी है।
कांग्रेस बिहार में अपनी हार और आंध्र प्रदेश के ताजा घटनाक्रम के कारण मुश्किल में पड़ गई है। आंध्र प्रदेश एक ऐसा राज्य है, जिसे हाल तक कांग्रेस की जागीर समझा जाता था और जिसने पार्टी को 2004 और फिर 2009 में केंद्र की सत्ता तक पहुंचाया था। लेकिन उसी आंध्र का हाल आज यह है कि न सिर्फ जगन मोहन रेड्डी ने कांग्रेस से नाता तोड़ लिया है, बल्कि 24 अन्य विधायक भी उनके पाले में चले गए हैं। इससे कांग्रेस में डर तो फैल ही गया है, आंध्र के 294 सदस्यों वाले सदन में उसके पास 155 सदस्यों का मामूली बहुमत रह गया है।
कांग्रेस नेतृत्व हैदराबाद में अपनी सरकार के गिरने का जोखिम नहीं लेना चाहती। उससे ऐसा दबाव बनेगा, जिसका दिल्ली की उसकी सरकार पर भी असर पड़ेगा। इसलिए चिरंजीवी की पार्टी के कांग्रेस में विलय में इतनी जल्दबाजी की गई। उल्लेखनीय है कि प्रजा राज्यम पार्टी के 18 विधायक हैं, जिनमें से दो जगन रेड्डी के समर्थक हैं।
कोई पूछ सकता है कि चिरंजीवी ने ऐसा कदम क्यों उठाया। वर्ष 2008 में प्रजा राज्यम का गठन कर उन्होंने बड़ी उम्मीदें जगाई थीं। उन्हें दिवंगत लेकिन चर्चित फिल्म स्टार एनटीआर की तर्ज पर वाईएसआर का विकल्प बनने की उम्मीदें थीं। एनटीआर ने एक वर्ष के भीतर तेलगु देशम पार्टी को उस स्थिति में पहुंचा दिया था कि उसने कांग्रेस को सत्ता से हटा दिया था। लेकिन चिरंजीवी एनटीआर की तरह कमाल नहीं कर सके। बावजूद इसके कि न सिर्फ अपने कापू समुदाय में उनका समर्थन है, बल्कि कांग्रेस और तेदेपा से नाउम्मीद हुए लोगों के भी उनके साथ आने की उम्मीद थी।
पिछले चुनाव में पीआरपी केवल 18 सीटें जीत पाने में सफल हुई, हालांकि उसने 15 प्रतिशत से ज्यादा वोट बटोरे। लेकिन विपक्ष के वोट बंट जाने का कांग्रेस को लाभ मिला। चिरंजीवी को जल्दी ही अपनी विफलता दिखने लगी। उन्हें एहसास हो गया कि वह पार्टी को एकजुट रखने में सक्षम नहीं हो सकते। इसलिए उन्होंने कांग्रेस में विलय का रास्ता अपनाया। इस विलय से हैदराबाद में कांग्रेस बेशक स्थिर दिखाई देती है, पर तेलंगाना का मुद्दा अभी जिंदा है। यह आंदोलन जनमानस में गहरे पैठ गया है। कुछ दिनों पहले जब तेलंगाना के कांग्रेसी सांसद प्रणब मुखर्जी से मिले थे, तो उन्होंने लिखकर दे दिया था कि अगर सरकार अलग तेलंगाना राज्य बनाने का निर्णय नहीं लेती, तो वे इस्तीफा दे देंगे।
चूंकि प्रजा राज्यम स्वतंत्र तेलंगाना के खिलाफ मानी जाती है, इसलिए इसके कांग्रेस में विलय ने अब तेलंगाना के मुद्दे पर केंद्र सरकार के नजरिये पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। उल्लेखनीय है कि गृह मंत्री ने दिसंबर, 2009 में पृथक तेलंगाना राज्य के गठन का वायदा किया था।
लोगों का मानना है कि एक बार जगन मोहन की चुनौतियों से निपट लेने के बाद कांग्रेस तेलंगाना पर श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट की उस छठी सिफारिश को स्वीकार कर लेगी, जिसमें तेलंगाना को स्वतंत्र राज्य बनाए बिना व्यापक अधिकार देने का प्रस्ताव है। अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि यह कैसे होगा, पर अगर ऐसा होता है, तो इसका राज्य और कांग्रेस पर असर पड़ेगा।
लेकिन दिक्कत यह है कि गणित के विपरीत राजनीति में कांग्रेस के 35 और प्रजा राज्यम के 15 प्रतिशत वोट का जोड़ 50 प्रतिशत नहीं होता। प्रजा राज्यम के विलय से राज्य में कांग्रेस सरकार संख्या बल के हिसाब से भले ही बेहतर स्थिति में आ गई हो, लेकिन उसके लिए राज्य में हालात विस्फोटक बन गए हैं। और केरल को छोड़ दें, तो कभी कांग्रेस का मजबूत गढ़ माना जाने वाला दक्षिण अब उसके लिए खतरनाक बनता जा रहा है।

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