लेखक संप्रग सरकार और विशेषकर कांग्रेस की गलतियों के कारण भाजपा के समक्ष सुनहरा अवसर उभरता देख रहे हैं…
राष्ट्रमंडल खेलों में जनता के पैसे के इस्तेमाल पर चिंता के स्वर उठे हुए छह माह से अधिक बीत गए। तब से मनमोहन सिंह सरकार के लिए बुरी खबरें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही हैं। आदर्श हाउसिंग सोसाइटी और 2-जी घोटाले के साथ केंद्रीय सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति और अब एस बैंड विवाद जैसे भ्रष्टाचार के नित नए मामलों में सरकार फंसती जा रही है। इससे लग रहा है कि केंद्र या तो असहाय है या फिर जनता के पैसे की संगठित लूट में हिस्सेदार है। अरबों रुपये के घोटालों में राजनीतिक दुर्बलता का भी योगदान है। घोटालों से लड़ने की कांग्रेस की इच्छाशक्ति खत्म हो गई लगती है। बीएस येद्दयुरप्पा के गलत कामों को बार-बार उछालने और टेलीकॉम घोटाले की शुरुआत के लिए राजग सरकार पर दोषारोपण करने से भी जनता की धारणा में कोई बदलाव नहीं आया है कि संप्रग सरकार संगठित लूट में शामिल है। जिस प्रकार मुस्लिम ब्रदरहुड पर लांछन लगाने के बाद भी होस्नी मुबारक राष्ट्रपति की कुर्सी नहीं बचा पाए हैं उसी प्रकार कांग्रेस ने भगवा आतंक पर लोगों का ध्यान बांटने का विफल प्रयास किया है। इन आरोपों से अगर किसी को फायदा हुआ है तो पाकिस्तान को, जो आतंक के निर्यात के खुद पर लगे आरोपों को हल्का करने में कामयाब रहा है। सैद्धांतिक रूप से आक्रमण सर्वश्रेष्ठ सुरक्षा है, किंतु निर्लज्जता हमेशा काम नहीं आती। एक अच्छे वकील के तमाम गुणों से लैस कपिल सिब्बल ने यह साबित करने का प्रयास किया कि ए. राजा और इसरो पर बेवजह बवाल मचाया जा रहा है। 1999 में कारगिल युद्ध पर सिब्बल के भड़काऊ बयानों का खामियाजा देश को भुगतना पड़ा था। हताशा-निराशा के इस माहौल में सिब्बल के हालिया बयान निश्चित रूप से आत्मघाती ही सिद्ध होंगे। व्यर्थ की बयानबाजी को 2009 के चुनाव में मतदाताओं ने नकार दिया था। अब भी इसे कोई पसंद नहीं करता। यह ऐसा संदेश है जिसकी अनदेखी विपक्ष को नहीं करनी चाहिए। टीवी पर चर्चा में विपक्ष संप्रग सरकार की बोलती बंद कर रहा है और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों से सरकार भयभीत भी है, ऐसे में विपक्ष को कुछ देर ठहरकर राष्ट्रीय राजनीति में चल रहे खेल पर विचार करना चाहिए। संप्रग सरकार की साख और विश्वसनीयता पाताल में पहुंच चुकी है और यही हाल प्रधानमंत्री का भी है। जनता के दिलोदिमाग में यह बात घर कर चुकी है कि मनमोहन सिंह राजनेताओं और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार के मूक दर्शक बने हुए हैं। यहां तक कि उनकी अपनी पार्टी भी चिंतित है और गिरावट को रोक पाने की उनकी अक्षमता पर उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही है। गठबंधन की व्यवस्था को कभी राजनीतिक आविष्कार बताकर इसका गुणगान किया गया था, किंतु समय ने साबित कर दिया है कि इसमें गंभीर खतरे निहित हैं। सहयोगी दल कांग्रेस को अलग-अलग दिशाओं में घसीट रहे हैं। यह कहना उचित होगा कि भगवा गठबंधन सत्ता हासिल करने के करीब नहीं है। 2009 से भाजपा ने अपने खोए हुए आधार की कुछ भरपाई तो की है, किंतु यह इतना नहीं है कि अगली सरकार बनाई जा सके। इसके कारणों में एक यह भी है कि भाजपा में कमान संभालने वाला कोई कद्दावर नेता नजर नहीं आता। अनेक कारणों से भाजपा ने 2013 के लिए किसी चेहरे को आगे नहीं किया है। उसका मानना है कि एक साल के प्रचार अभियान से ही कोई नेता उभर कर सामने आएगा। सर्वोच्च पद के लिए तीन स्पष्ट संभावनाएं हैं। अंतिम फैसला दो पहलुओं पर निर्भर करेगा-राजनीतिक मूड और गठबंधन की मजबूरी। अगर मजबूत, उद्देश्यपूर्ण नेता चाहिए तो चुनाव तय है, किंतु अगर राजग का दायरा बढ़ाकर इसमें पूरब और दक्षिण की क्षेत्रीय पार्टियों को भी जोड़ना है तो चुनाव अन्य दो में से किसी भी एक के पक्ष में जा सकता है। फिर भी, एक नए मसीहा के इंतजार में रहना अच्छी राजनीति नहीं है। भाजपा को अपना जनाधार मजबूत करना होगा। आज के हालात में भ्रष्टाचार और आर्थिक कुप्रबंधन ऐसे मुद्दे हैं जो व्यापक जनाधार को प्रभावित करते हैं। इसके लिए पहले वैचारिक मुद्दों पर बांहें कसने के लिए तैयार रहना होगा और दूसरे इन मुद्दों को उखाड़ने के कांग्रेस के उकसावे से बचना भी होगा। और अंत में, हमने पहले ही कहा था सरीखे बचकाने जुमलों से बचते हुए वैकल्पिक आर्थिक रूपरेखा पेश किए जाने की आवश्यकता है, जिसमें विभिन्न प्रदेशों में बहुत सी राजग सरकारों की श्रेष्ठ नीतियों का समायोजन हो। राष्ट्र को एक समझदार विपक्ष की जरूरत है, जो संप्रग कुशासन से हताश-निराश लोगों की उम्मीदों पर खरा उतर सके। कांग्रेस की गलतियों ने उसे एक सुनहरा मौका प्रदान किया है। खुद अपनी भलाई के लिए भाजपा को बंद दिमाग वाले लोगों को दरवाजे में बंद रखने की आवश्यकता है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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