गोधरा मामले में विशेष न्यायालय के फैसले को कथित सेक्युलरिस्टों की राजनीति उजागर करने वाला मान रहे हैं…
अहमदाबाद के विशेष न्यायालय ने आजाद भारत के इतिहास की क्रूरतम घटना पर फैसला सुना दिया है। 27 फरवरी, 2002 को गोधरा रेल दहन इतिहास की ऐसी दुर्भाग्यशाली घटना थी जिससे निकली सांप्रदायिकता की लपटों ने गुजरात को नफरत की हिंसा में जला दिया। साबरमती एक्सप्रेस के कोच एस 6 के अंदर जलकर 59 लोग मारे गए थे। भारत में पहले ऐसी दर्दनाक घटना कभी नहीं हुई थी, किंतु इसके साथ कुत्सित राजनीति का जो सिललिसा आरंभ हुआ उसका आज तक अंत नहीं हुआ है। इसके अपराधियों का पता लगाने एवं सजा देने की आवाज उठाने की जगह इसे दुर्घटना साबित करने की कोशिशें होती रही हैं। कुछ तो इसे गुजरात सरकार का कारनामा बताते रहे ताकि इससे भड़के सांप्रदायिक धु्रवीकरण का चुनावी लाभ उठा सकें। न्यायालय के फैसले का महत्व इस मायने में है कि इसने इन सबको गलत साबित कर दिया है। गोधरा फैसला गुजरात पुलिस के लिए बड़ी जीत है। विशेष जांच दल (एसआइटी) के आरोप-पत्र में वर्णित घटनाक्रम को न्यायालय ने लगभग स्वीकार कर लिया है। इसमें अमन गेस्ट हाउस में साजिश रचने की बैठक से लेकर वहीं पेट्रोल रखने तथा उसे पीपे द्वारा डिब्बे के बाहर से अंदर डालने और कपड़ों के गट्ठर में आग लगाकर अंदर फेंकने की बात शामिल थी। जांच दल ने अमन गेस्ट हाउस के मालिक रज्जाक कुरकुर को मुख्य अभियुक्त कहा था। न्यायालय ने भी इस पर मुहर लगा दी है और उसे पांच मुख्य साजिशकर्ताओं में माना है। तीन अभियुक्तों द्वारा पीपे से पेट्रोल का छिड़काव तथा कपड़ों के गट्ठर में आग लगाकर अंदर फेंकने की बात भी न्यायालय ने स्वीकार की। राज्य फोरेंसिक विज्ञान निदेशालय ने कोच को जलाने के लिए पेट्रोल के प्रयोग की बात स्वीकार की थी। न्यायालय ने 253 गवाहों के बयान, 1500 दस्तावेजी सबूतों के अध्ययन, परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के गहरे विश्लेषण तथा आठ अभियुक्तों द्वारा अपराध की स्वीकारोक्ति के आधार पर फैसला दिया है। इस फैसले के बाद गोधरा मामले पर जारी गंदी राजनीति बंद होनी चाहिए, किंतु राजनीति बंद हो जाएगी, ऐसा लगता नहीं। बहुत से ऐसे राजनेता और संगठन हैं, जिनके पास पिछले नौ सालों से मोदी विरोध सबसे बड़ा मुद्दा रहा है। पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव द्वारा गठित न्यायमूर्ति बनर्जी आयोग ने किसी षड्यंत्र को नकारते हुए गोधरा कांड को न केवल दुर्घटना करार दिया था, बल्कि कारसेवकों पर ही इसकी जिम्मेदारी डालने की कोशिश की थी। बिहार चुनाव में इस रिपोर्ट का खूब इस्तेमाल किया गया। इसके विपरीत नानावती आयोग (सेवानिवृत्त न्यायाधीश जीटी नानावती एवं केजी शाह) ने भी इसे सुनियोजित आपराधिक षड्यंत्र का नतीजा करार दिया। अब न्यायालय ने न्यायमूर्ति बनर्जी रिपोर्ट को झूठ करार दे दिया है। बनर्जी और लालू प्रसाद यादव की प्रतिक्रिया तो फैसले को शिरोधार्य करने की नहीं हो सकती। इस श्रेणी के लोग फैसले के उन पहलुओं को सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं, जिनसे यह साबित हो सके कि उन्होंने कुछ गलत नहीं कहा था। वे 63 लोगों के बरी होने का मामला उठा रहे हैं। मौलवी उमरजी को दोषमुक्त करार देने की बात रेखांकित कर रहे हैं। इसके आधार पर वे मोदी और गुजरात पुलिस को इनका अपराधी साबित कर रहे हैं। वे पूछ रहे हैं कि इन लोगों का क्या कसूर था कि इन्हें नौ साल जेल में रहना पड़ा? जिन 94 लोगों के खिलाफ मामला चल रहा था, उनमें से 80 तो साबरमती जेल में हैं और 14 जमानत पर बाहर हैं। जिन 134 लोगों को अभियुक्त बनाया गया उनमें 14 पहले ही बरी हो गए, पांच की मृत्यु हो गई, पांच अवयस्क थे एवं 16 फरार हैं। अभियुक्तों में से 63 यानी करीब दो-तिहाई का बरी होना साधारण बात नहीं है, किंतु न्यायालय के फैसले में इन सभी को निर्दोष नहीं माना गया है। न्यायालय ने कहा है कि इनके खिलाफ प्रत्यक्ष सबूतों का अभाव है। मौलवी हुसैन उमरजी के बारे में भी न्यायालय ने यही कहा है कि उनके विरुद्ध प्रत्यक्ष सबूत नहीं हैं। न घटना के समय उनकी उपस्थिति के प्रमाण हैं और न ही अमन गेस्ट हाउस की बैठक में। प्रत्यक्ष सबूत न होने के आधार पर बरी होने का अर्थ किसी का बिल्कुल निर्दोष होना नहीं है। वैसे भी, अभियुक्तों की तरह ही गुजरात पुलिस के सामने भी उच्च एवं उच्चतम न्यायालय में जाने का विकल्प खुला है। अफसोस की बात है कि फैसला आने के बाद भी बहुत से राजनेताओं और संगठनों की प्रतिक्रिया रेल कोच में मारे गए कारसेवकों के प्रति उतनी ही क्रूर है। यही वह भाव है जिसके विरुद्ध प्रतिक्रियाएं होती हैं। बरी हुए 63 लोगों के प्रति सहानुभूति रखने वालों की नजर में क्या जला कर मारे गए 59 लोग मनुष्य नहीं थे? वस्तुत: यह रवैया दुर्भाग्यपूर्ण, अमानवीय और शर्मनाक है। इन्हें नहीं भूलना चाहिए कि गोधरा कांड से लेकर गुजरात दंगों के प्रमुख नौ मामलों की कानूनी कार्रवाई उच्चतम न्यायालय की निगरानी में चल रही है। इसमें यह पहला फैसला उच्चतम न्यायालय द्वारा हरी झंडी मिलने के बाद आया है। इसलिए देश हित में यही है कि न्यायालय के निष्कषरें को स्वीकार कर भविष्य की ओर कदम बढ़ाए जाएं। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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