Wednesday, February 16, 2011

उत्तर प्रदेश की जंग


फिलहाल इस लड़ाई में मायावती सबसे मजबूत दिखाई दे रही हैं
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव अभी दूर है, पर यहां तैयारियों की घंटी बजने लगी है। इसी के तहत सपा ने मायावती सरकार के खिलाफ प्रदेशव्यापी आंदोलन छेड़ने का ऐलान किया है। इसका मकसद सरकार को मुश्किल में डालने से भी ज्यादा अपनी सांगठनिक हालत सुधारना है। इसी तरह कांग्रेस चाहती है कि उसकी कतारों पर बिहार चुनाव में हुए पार्टी के बंटाधार का बुरा असर न पड़े। इसीलिए नए साल में राहुल गांधी ने कार्यकर्ताओं को सलाह दी कि वे बिहार के नतीजों पर ध्यान न दें। भाजपा को पता है कि उसकी अपनी मौजूदा शक्तियां चुनाव में कोई बड़ा उलट-फेर करने की हैसियत नहीं रखतीं। इसलिए उसके रणनीतिकार बाहर से नई ऊर्जा लाकर पार्टी में जोश फूंकने की जुगाड़ में हैं। जहां तक सत्तारूढ़ पार्टी का सवाल है, तो मायावती ने अपने पुराने अंदाज में चुनावी मशीनरी के कील-कांटे दुरुस्त करने की शुरुआत कर दी है। चर्चा है कि प्रदेश के हर एक चुनाव क्षेत्र में बसपा का उम्मीदवार अनौपचारिक रूप से तय कर लिया गया है। बसपा के प्रतिद्वंद्वी भी मानते हैं कि मुख्यमंत्री की इस कार्यशैली का मुकाबला करना उनके बस में नहीं है।
सवाल यह है कि इस दलीय सक्रियता का सामाजिक आधार क्या है। सपा कितना भी आंदोलन करे, क्या उसे मुसलमानों के वे वोट एक बार फिर मिलने वाले हैं, जो पिछले कई चुनावों से धीरे-धीरे उसके हाथ से फिसलते जा रहे हैं? राहुल गांधी कार्यकर्ताओं को दिलासा देने के लिए कितने भी भाषण दें, क्या कांग्रेस ब्राह्मणों, मुसलमानों और दलितों का वह त्रिकोणात्मक गठजोड़ बना पाएगी, जिसके बल पर उसने कई दशकों तक इस प्रदेश पर राज किया है? कांग्रेस को यह भी तय करना है कि इस तिकोने गठजोड़ में बेनी प्रसाद वर्मा जैसे ओबीसी नेताओं की जगह कौन-सी होगी? क्या भाजपा के रणनीतिकारों ने यह पता लगा लिया है कि इस बार उन्हें कौन वोट देगा? पिछले तीन चुनावों से वे उस सामाजिक आधार की शिनाख्त करने की कोशिश कर रहे हैं, जिसके दम पर उन्हें अपना खोया हुआ वर्चस्व वापस मिल सकता है। बसपा अगले साल होने वाले चुनाव की पेशबंदियां तो कर रही है, लेकिन उसके सामने प्रश्न यह है कि क्या इस बार भी उसे दलितों के ठोस वोट बैंक के अलावा बहुमत पाने के लिए जरूरी ऊंची जातियों और मुसलमानों के पिछली बार जितने वोट मिल जाएंगे?
दावा कोई कुछ भी करे, इनमें से किसी पार्टी के पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। केवल एक बात निश्चयपूर्वक कही जा सकती है कि उत्तर प्रदेश में पिछले चुनाव से लेकर अब तक राजनीतिक होड़ का ढांचा बदला नहीं है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के जबरदस्त प्रदर्शन को देखकर एकबारगी लगा था कि शायद विधानसभा चुनावों में बने सामाजिक समीकरण 2012 तक बदल जाएंगे। लेकिन ये संभावनाएं अब उतनी मुखर नहीं लग रहीं। मायावती ने दलितों-मुसलमानों-ऊंची जातियों का अनूठा समीकरण बनाकर जो सिलसिला शुरू किया था, वह मंद जरूर पड़ा है, पर पूरी तरह टूटा नहीं है। इसका प्रमाण उनकी विधानसभा चुनाव के लिए टिकट-वितरण की रणनीति में दिखाई पड़ने वाला है।
उत्तर प्रदेश में विभिन्न राजनीतिक शक्तियों द्वारा अपने-अपने जनाधार बढ़ाने की कोशिशें करीब दस साल से चल रही हैं। पार्टियों की समस्या यह है कि वे अपने स्थायी वोट बैंक के सहारे दो सौ से ज्यादा सीटें नहीं जीत सकती। केवल दलित वोटों के सहारे मायावती केवल पचास से पचासी के बीच सीटें जीत सकती हैं। केवल यादव-मुसलमान वोटों के दम पर सपा सौ से सवा सौ सीटें जीत सकती है। अपने सात से बारह फीसदी वोटों के दम पर कांग्रेस तीसरे या चौथे नंबर पर रहने के लिए अभिशप्त है। ब्राह्मण वोटों की प्रधानता वाले ऊंची जाति के जनाधार के दम पर भाजपा ज्यादा से ज्यादा पच्चीस-तीस क्षेत्रों में ही कामयाबी हासिल कर सकती है। इसीलिए मायावती ने बहुजन से सर्वजन की रणनीति अपनाई। इसी कारण सपा ने ठाकुर वोटों को आकर्षित करने का अभियान चलाया, जिसमें मामूली कामयाबी ही मिलने के कारण इस पार्टी ने कल्याण सिंह को अपनी ओर खींचकर पिछड़े वर्ग का विशाल वोट बैंक बनाने का प्रयास किया। इसके नतीजे उलटे निकले, क्योंकि कल्याण सिंह के आने की प्रतिक्रिया में मुसलमानों की नुमाइंदगी करने वाले तत्त्व उससे नाराज हो गए। कांग्रेस राहुल गांधी की कोशिशों के माध्यम से बसपा के दलित वोट बैंक में सेंध मारने की कोशिश करती रही।
मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि कांग्रेस दलितों के एक हिस्से को मायावती से अलग नहीं कर पाई है और न ही फिलहाल कर पाएगी। लेकिन वह मुसलमान वोटों के पहले से ज्यादा बड़े हिस्से को अपनी ओर खींच सकती है, जिसका सीधा नुकसान सपा को होगा। प्रदेश में मुसलिम वोट किसी एक पार्टी में जाने के बजाय इस समय बंटने की स्थिति में है। वह बसपा, कांग्रेस और सपा के बीच हालात और समय के अनुसार वितरित होगा। ब्राह्मण वोट इस समय प्रदेश का सबसे ज्यादा फ्लोटिंग वोटहै। भाजपा के खाते में लंबे अरसे तक वोट करने के बाद अब ब्राह्मणों की समझ में आ चुका है कि उन्हें भी रणनीतिक वोटिंग करनी चाहिए। सपा को छोड़कर वे किसी भी पार्टी के उम्मीदवार को समर्थन दे सकते हैं, लेकिन मुख्यत: उनके वोट बसपा और कांग्रेस के बीच ही बंटेंगे। हालात आगे चलकर बदल सकते हैं, लेकिन अगर विधानसभा चुनाव आज की तारीख में हो, तो सबसे मजबूत स्थिति मायावती की ही दिखती है। क्योंकि उनके समीकरण टूटे नहीं हैं, जबकि प्रदेश की अन्य पार्टियां फिलहाल नए समीकरण बनाने से काफी दूर नजर आ रही हैं।
फिलहाल स्थिति यही है कि राहुल गांधी की कोशिशों के बावजूद राज्य में दलित वोट कांग्रेस के खाते में जाते
हुए नहीं दिखते।

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