उत्तर प्रदेश में कांग्रेस राजनीति की मुख्यधारा में आने की कोशिश कर रही है लेकिन जो हालात हैं, उनमें उसे ‘एकला चलो’ की राजनीति छोड़ गठबंधन की राजनीति के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। ‘कु नबा बढ़ाओ’ राजनीति के तहत वह कुछ छोटे दलों का अपने साथ विलय कराकर खुश जरूर हो सकती है पर ऐन चुनाव के समय उसके आधार वोट बैंक को अपने पक्ष में नहीं करा पाएगी क्योंकि मुसलमान और अगड़ी जातियां अब टैक्टिकल (रणनीतिक) वोटिंग करने लगी हैं
उत्तर प्रदेश का राजनीतिक माहौल अचानक गरमाने लगा है। प्रमुख राजनीतिक दल अपने वोट बैंक का आधार बढ़ाने में जुट गए हैं। कोई कुनबा बढ़ाने में मसरूफ है तो कोई वोट बैंक मजबूत करने की जुगत में है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि यहां जातीय समीकरण ही राजनीतिक दिशा तय करते हैं। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में सत्तारूढ़ दल बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच शह-मात का खेल चल रहा है तो कांग्रेस और भाजपा अपने राजनीतिक वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं। कांग्रेस लोकसभा चुनाव में मिली सफलता और राहुल गांधी की सक्रियता से करिश्मे की उम्मीद संजोये है तो भाजपा पुराने चेहरों की बदौलत जमीन तलाश रही है ताकि आने वाले दिनों में सत्ता के नये समीकरण में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका बन सके। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपनी खोयी राजनीतिक ताकत वापस पाना चाहती है। इसके लिए उसने ‘मिशन 2012 फतह’
योजना बनाई है। राहुल गांधी के सपनों को साकार करने के लिए महासचिव दिग्विजय सिंह भी जी-जान से लगे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश कांग्रेस के हालात भी कमोबेश बिहार जैसे ही हैं। बिहार में गठजोड़ की राजनीति से तौबा करने वाली कांग्रेस वहां विधानसभा चुनाव में जातीय समीकरण नहीं बैठा नहीं सकी और हाशिये पर चली गई। वैसे, राहुल गांधी ने अपने दौरों में कार्यकर्ताओं को बिहार के चुनाव परिणामों पर ध्यान न देने की सलाह दी है और इसी से सबक लेकर पार्टी छोटे-छोटे जातीय दलों को अपने से जोड़ने में लग गई है किंतु राजनीतिक प्रतिबद्धताओं और सत्ता में भागीदारी की भूख से लबरेज इन जातियों को चुनाव में अपने साथ बांधे रखना उसके लिए आसान नहीं होगा क्योंकि विधानसभा का चुनाव लोकसभा से भिन्न होता है। यहां क्षेत्रीय समीकरण राजनीति को पूरी तरह प्रभावित करते हैं। ऐसे में जातियां मजबूत दलों के इर्द-गिर्द खड़ी नजर आती हैं। कांग्रेस के रणनीतिकार कहते हैं कि हम छोटे-छोटे जातीय संगठनों को जोड़कर कांग्रेस का राजनीतिक आधार बढ़ाएंगे ताकि मतदाताओं का विश्वास टिक सके। उनकी नजर दलित, मुस्लिम और अगड़ी जातियों पर है। तो भी यह चुनौती मुंगेरीलाल के हसीन सपने से कम नहीं दिखती जिसे साकार करना आसान नहीं होगा। आज उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हालात समझने की जरूरत है। जब भी किसी दल के पक्ष में सामाजिक ध्रुवीकरण हुआ है, उसे तोड़ने में गठबंधन की राजनीति काफी कारगर साबित हुई है। अयोध्या प्रकरण के बाद भाजपा के पक्ष में जो सामाजिक उभार हुआ, उसने इस मिथक को तोड़ दिया कि प्रदेश में मुस्लिम वोट के बगैर भी किसी दल की सरकार बन सकती है। उस समय के बदलाव को राजनीतिक पंडितों ने भगवाकरण की आंधी की संज्ञा दी थी। उस समय कांग्रेस की स्थिति आज से कई गुना मजबूत थी। ऐसे में इस उभार को रोकने के लिए मुलायम सिंह ने कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी से उस समय यानी 1993 में चुनावी गठबंधन कर सत्ता का नया समीकरण बनाया था। यह पिछड़ी जातियों और दलितों का गठजोड़ था। उस समय के उस नये सामाजिक ध्रुवीकरण ने कांग्रेस और भाजपा के दिग्गजों की नींद उड़ा दी और भाजपा इस ध्रुवीकरण को तोड़ने में लग गई। उसे सफलता भी मिली किंतु बसपा के साथ उसकी नहीं बनी। वर्ष 2007 के चुनाव में मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग के आकार को बढ़ाकर सर्वजन कर दिया, जो अपने नयेपन के चलते वोट बटोर ले गया। पहले मुलायम सिंह और बाद में मायावती इस परिवर्तन की प्रतीक बनीं। किंतु सत्ता में भागीदारी और विकास इन जातियों के धनी और प्रभावी वर्ग तक ही सिमट कर सा रह गया है। इन जातियों के गरीब उपेक्षित तथा पूरी व्यवस्था से अलग-थलग हैं। उनके मन में सवाल उठने लगा है कि इन परिवर्तनों से उन्हें क्या मिला? उनके मन में आक्रोश है। यह चूक पहले मुलायम सिंह ने की और अब मायावती भी उसी राह पर हैं। ऐसे में अब वह पुन: नये परिवर्तनों के जरिये बदलाव चाहते हैं। इसके लिए उन्हें मजबूत विकल्प चाहिए, अन्यथा ये जातियां नाराजगी के बावजूद मुलायम और मायावती के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह जाएंगी। कहना नहीं होगा कि दलित और पिछड़ा वर्ग खुद को इन्हीं दो नेताओं के साथ ज्यादा सहज पाता है, नाराजगी और मतभेद चाहे जैसे भी हों। इस जमीनी हकीकत को कांग्रेस के रणनीतिकारों को समझना होगा। वास्तव में मायावती के सर्वजन के फामरूले में दलितों के अलावा अन्य कई जातियां भी हैं। सत्तारूढ़ बसपा के इस शासन काल में दलितों के अलावा खटीक, फसी, धोबी, बाल्मीकि, कोरी आदि जातियां अपने को उपेक्षित महसूस कर रही हैं। ये जातियां सत्तारूढ़ दल से छिटक सकती हैं। इनका वोट 12 प्रतिशत के करीब है किंतु कांग्रेस दलित वोटों में सेंध लगाना चाहती है, जो टूटने को तैयार नहीं दिखते। मायावती की पैनी नजर अपने इस वोट बैंक पर है। इसके विपरीत अति पिछड़ी जातियों- कुर्मी, मौर्य, पाल, बिंद, नाई, कुम्हार, बढ़ई, कश्चप आदि को भी इन्होंने अपने साथ जोड़ा है। इन जातियों के लोग एमपी, एमएलए तथा संगठन आदि में महत्वपूर्ण पदों पर हैं, जो अपनी जातियों को पार्टी से जोड़ने का काम सतत कर रहे हैं। इन्हें बसपा से अलग करना टेढ़ी खीर जैसा है। इन जातियों के बीच घुसपैठ के बिना दलितों के बीच पैठ बनाने की सोच कांग्रेस के लिए बेमानी होगी। यद्यपि उसने बेनी प्रसाद वर्मा को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर पिछड़ी जातियों के बीच संदेश देने की कोशिश जरूर की है पर उसका उसे कोई खास लाभ मिलता नहीं दिख रहा है। बेनीप्रसाद वर्मा अपनी बिरादरी में पकड़ खो चुके हैं। इसके विपरीत वह छोटे जातीय दलों को अपने साथ लाने के क्रम में 2006 में गठित यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट का अपने दल में विलय करा रही है। यह वही फ्रंट है जिसका गठन कट्टरपंथ के उभार के साथ हुआ था। इसीलिए, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के बीच इस फ्रंट की खास पैठ नहीं बन सकी है। दूसरे, उसकी कोशिश मोमिन कांफ्रेंस को साथ लेकर बुनकरों को रिझाने की है तो बसपा विरोधी दलित संगठनों से भी तार जोड़ने में लगी है। अभी उसकी नजर शोषित मोर्चा व संयुक्त दलित एकता संगठन पर लगी है। वह आये दिन दलित लड़कियों पर हो रहे बलात्कार की घटनाओं को मुद्दा बना रही है। बांदा, सहारनपुर, फतेहपुर, आगरा, औरैया, गाजियाबाद, कन्नौज और बाराबंकी सहित कई जिलों में हुई शर्मशार करने वाली घटनाओं को वह जोरशोर से उठा रही है। कांग्रेस के रणनीतिकारों को तेजी से हो रहे इन राजनीतिक बदलावों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। पूर्वांचल में तेजी से उभरी पीस पार्टी ऑफ इंडिया मुस्लिम, दलितों, अति पिछड़ों और बड़ी जातियों के अति गरीबों को एकजुट करने की धुंआधार मुहिम में है। लखीमपुर सदर और डुमरियागंज के उप चुनावों में उसने अगड़ी जाति के प्रत्याशियों के पक्ष में मुस्लिम मतों का हस्तांतरण कराकर सबको चौंका दिया है। उसके इस अभियान में लोकजनशक्ति पार्टी, इंडियन जस्टिस पार्टी, भारतीय समाज पार्टी तथा नेशनल हिंद पार्टी भी शामिल हैं। यह उभार पिछड़ों और दलितों की राजनीति करने वाले नेताओं को परेशानी में डालने वाला साबित हो सकता है। इसलिए इन नेताओं की नजर इस गठजोड़ को कमजोर करने की है। यदि चुनाव से पहले यह गठबंधन कमजोर नहीं हुआ तो प्रदेश की राजनीति में चौंकाने वाले परिणाम देखने को मिल सकते हैं। कांग्रेस को इस हकीकत पर गंभीरता से सोचना होगा। वैसे कांग्रेस की स्थिति यहां भी बिहार जैसी है। दो दशक से भी अधिक समय से सत्ता से बाहर रहने के कारण उसका वोट बैंक बिखर गया है। बूथ स्तर पर उसके पास समर्पित कार्यकताओं का टोटा है। अभी हुए ग्राम प्रधानों, जिला पंचायत सदस्यों तथा जिला परिषद अध्यक्षों के चुनाव में कांग्रेस कुछ स्थानों पर ही दौड़ती दिखी। मुख्य मुकाबला सत्तारूढ़ दल और सपा के बीच ही देखने को मिला। लोस चुनाव से यह उम्मीद बंधी थी कि मुसलमान कांग्रेस के साथ जुड़ रहा है किंतु बिहार के चुनाव ने इस गलतफहमी को दूर कर दिया। अभी 30 सितम्बर, 2010 को अयोध्या पर आये अदालती फैसले के बाद मुसलमानों का उत्साह और भी ठंडा पड़ गया है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट लागू करने का सवाल भी उसके गले की हड्डी बना हुआ है। ऐसी ही स्थिति भाजपा की भी है। वह भी उत्तर प्रदेश में गुटबंदी की शिकार है। ऐसे में इन दोनों पार्टियों का आधार वोट बैंक बिखर गया है, जिसे वापस लाना बड़ी चुनौती है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस राजनीति की मुख्यधारा में आने की कोशिश कर रही है लेकिन जो हालात हैं, उनमें उसे ‘एकला चलो’ की राजनीति छोड़कर गठबंधन की राजनीति के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। ‘कुनबा बढ़ाओ’ राजनीति के तहत वह कुछ छोटे दलों का अपने साथ विलय कराकर खुश जरूर हो सकती है पर ऐन चुनाव के समय उसके आधार वोट बैंक को अपने पक्ष में नहीं करा पाएगी क्योंकि मुसलमान और अगड़ी जातियां अब टैक्टिकल (रणनीतिक) वोटिंग करने लगी हैं। कांग्रेस जब तक मजबूत राजनीतिक विकल्प नहीं देगी, उसका राजनीतिक मंसूबा पूरा नहीं हो सकेगा। उसे अपने को मजबूत करने के साथ-साथ मजबूत राजनीतिक दल का साथ भी चाहिए। तभी वह मतदाताओं को रिझाने में सफल हो सकेगी। आज कांग्रेस को इस दिशा में गंभीरता से सोचने की जरूरत है अन्यथा प्रदेश की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता साबित करना काफी मुश्किल होगा।
No comments:
Post a Comment