Saturday, February 26, 2011

उम्मीद रखें, उजले दिन आएंगे


गोधरा कांड का फैसला आने के बाद से दोनों समुदायों में जिस किस्म का धैर्य और विनम्रता दिखी, उसकी तारीफ किए बगैर आप रह नहीं सकते। यह सामाजिक समरसता की बे जोड़ मिसाल है। उनके इस आचरण से धर्म के ठेकेदार सहम उठे हैं तो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सक्रिय ताकतों के हौसले भी पस्त हुए हैं। फैसले पर उनकी सधी प्रतिक्रिया इसी का सबू त है। गोधरा से लेकर गुजरात दंगे के प्रमुख नौ मामलों में कानूनी कार्यवाही उच्चतम न्यायालय की निगरानी में चल रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अन्य मामलों में आने वाले फै सलों से सच और उजागर होगा
डायरी के पन्ने फड़फड़ा रहे हैं। नौ साल पहले गुजरात के गोधरा में जो हुआ, उस पर न्यायालय का फैसला आ चुका है। अदालत ने भी मान लिया है कि दिल दहलाने और हाड़ कंपा देने वाली यह वारदात यूं ही नहीं हुई। बाकायदा इसकी व्यूह रचना की गई थी। यह सौ फीसद साजिश थी। अभी तक इस घटना को लेकर खूब राजनीति होती रही। धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वाले नेताओं ने इसकी आड़ में वोटों की फसल काटने का कोई भी जतन नहीं उठा रखा तो उधर मामले की जांच के लिए बना एक आयोग भी शक के घेरे में आ गया। सवाल यह है कि क्या ऐसे संवेदनशील मामले पर राजनीति होनी चाहिए? हर अमन पसंद का जवाब होगा- नहीं।इसलिए अल्पसंख्यकों व बहुसंख्यकों को अपने बीच सक्रिय उन चरमपंथियों की पहचान करने का समय आ गया है जो भावनाओं को भड़काने का काम करते हैं। यह हमारे समय की दुखद और भयावह हकीकत है कि इस लोमहर्षक घटना की प्रतिक्रिया में गुजरात में साम्प्रदायिक दंगा भड़का। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश के लिए यह कलंक है। साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 कोच में आग लगाये जाने को महज दुर्घटना करार देने वालों को अपने बयान पर नये सिरे से सोचना जरूर चाहिए क्योंकि जो 59 कारसेवक इस आगजनी की भेंट चढ़े, वे कारसेवक बाद में और इंसान पहले थे। इससे पहले ऐसी किसी वारदात की मिसाल गुजरात में नहीं मिलती। इसके साथ घिनौनी राजनीति का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह अभी तक नहीं थमा है। लेकिन इस आंधी-पानी के बावजूद फैसला आने के बाद से दोनों समुदायों में जिस किस्म का धैर्य और विनम्रता दिखी, उसकी तारीफ किए बगैर आप रह नहीं सकते। यह सामाजिक समरसता की बेजोड़ मिसाल है। उनके इस आचरण से धर्म के ठेकेदार सहम उठे हैं तो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सक्रिय ताकतों के हौसले भी पस्त हो गये हैं। इस फैसले पर उनकी सधी प्रतिक्रिया इसी का सबूत है। गोधरा से लेकर गुजरात दंगे के प्रमुख नौ मामलों में कानूनी कार्यवाही उच्चतम न्यायालय की निगरानी में चल रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अन्य मामलों में आने वाले फैसलों से सच और उजागर होगा। तेजी से रंग बदलते सामाजिक बदलाव के इस क्रम में इन मामलों को लेकर हुई राजनीति पर नजर डालना अब जरूरी हो गया है ताकि कोई चरमपंथी या सियासी ताकत हमारी सामाजिक समरसता बिगाड़ न सके। मैं यहां गोधरा कांड को लेकर बने आयोगों की रिपोर्ट पर पाठकों का ध्यान दिलाना चाहता हूं और न्यायालय के फैसले के कुछ बिंदुओं को सामने रखकर फैसला आप पर छोड़ता हूं। गोधरा कांड पर बने दो आयोगों की रिपोर्ट परस्पर विरोधी थीं। जीटी नानावती आयोग का गठन नरेंद्र मोदी सरकार ने किया तो यूसी बनर्जी आयोग का तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने। बनर्जी आयोग ने अपनी रिपोर्ट में यह मानने से मना कर दिया कि साबरमती एक्सप्रेस के कोच को जलाने के पीछे कोई बदनीयत थी। आयोग ने कहा कि यह जानबूझ कर अंजाम दी गई घटना नहीं थी और न कोईषड्यंत्रथा। रिपोर्ट में पुलिस की पेट्रोल परिकल्पना को नकारते हुए कहा गया कि जब ट्रेन रुकी नहीं तो कोच के फर्श पर साठ लीटर पेट्रोल व अन्य ज्वलनशील पदार्थ डालना संभव नहीं था। यह आकस्मिक आग थी। कार सेवकों ने ट्रेन में खाना पकाया, इसके प्रमाण हैं। यह भी कि नारियल की घास, फोम और बर्थो में लगी रबड़ ने आग पकड़ी। इसके विपरीत नानावती आयोग ने इस नरसंहार को पूर्व नियोजित षड्यंत्र माना और कहा कि कोच जलाने की घटना जानबूझ कर की गई क्योंकि उसी कोच में कारसेवक यात्रा कर रहे थे। गुजरात पुलिस ने भी इसका समर्थन किया। इतना ही नहीं, इसकी साजिश रज्जाक कुरकुद, सलीम पानवाला और अन्य लोगों ने रची। कोच को बाहर से पेट्रोल छिड़ककर आग लगाई गई। यह कार्रवाई प्रशासन को अव्यवस्थित करने और आतंक फैलाने के लिए मकसद से की गई किंतु अब न्यायालय ने भी अपने फैसले में इसे षड्यंत्र मान लिया है। यह गुजरात पुलिस के लिए बड़ी जीत है क्योंकि विशेष जांच दल (एसआईटी) के आरोप पत्र में वर्णित घटनाक्रम को अदालत ने लगभग स्वीकार कर लिया है। इसमें अमन गेस्ट हाउस में साजिश रचने की बैठक से लेकर वहीं पेट्रोल रखने और कपड़ों के गट्ठर में आग लगाकर अंदर फेंकने की बात शामिल थी। जांच दल ने जिसे मुख्य अभियुक्त माना, न्यायालय ने भी उसी पर मुहर लगा दी है और उसे पांच मुख्य साजिशकर्ताओं में मान लिया। अदालत ने पेट्रोल का छिड़काव तथा कपड़ों के गट्ठर में आग लगाकर अंदर फेंकने की बात भी स्वीकार कर ली है। राज्य फोरेंसिक विज्ञान निदेशालय ने भी कोच जलाने के लिए पेट्रोल के प्रयोग की बात मानी है। न्यायालय ने 253 गवाहों के बयान, दस्तावेजी सबूतों तथा आठ अभियुक्तों के कन्फेशन के आधार पर यह फैसला दिया है। अब तथाकथित उन धर्मनिरपेक्ष ताकतों को सोचना चाहिए जो इस क्रूर साजिश को महज हादसा मान गंदी राजनीति कर रहे थे। मेरा मानना है कि बनर्जी आयोग का गठन भी राजनीति का ही एक हिस्सा था। तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद ने बिहार के चुनाव में इस रिपोर्ट का प्रचार कर वोट बटोरने की राजनीति की थी। यह बात जरूर है कि उनका यह दांव नहीं चला। अयोध्या, गोधरा और गुजरात दंगों को लेकर आज भी राजनीति हो रही है। इन दोनों समुदायों के स्वयंभू ठेकेदार ऐसी घटनाओं को जिंदा रखना चाहते हैं ताकि उनकी दुकान चलती रहे और समुदायों की गोलबंदी में कहीं से भी कोई सेंधमारी न हो। उनकी दिलचस्पी इस बात में हरगिज नहीं है कि विवाद सुलझे और दोनों पक्ष अमन से रहें। इसके ठीक उलट उनकी मंशा यह है कि नफरत की आग जलती रहे, चाहे वह गोधरा हो या कोई और घटना। यह आग बुझी तो उनकी सियासत बुझ जाएगी और दुकान पर ताला लग जाएगा। इसलिए ऐसे लोगों की पहचान जरूरी हो गई है क्योंकि यह देश के विकास की राह में सबसे बड़े बाधक हैं। वह नहीं चाहते कि उनकी कौम तरक्की करे। उन्हें भय है कि यदि ऐसा हुआ तो उनका वजूद समाप्त हो जाएगा। यहां दारूल उलूम के कुलपति मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी के उस बयान का जिक्र जरूरी है जिस पर इन दिनों तूफान मचा हुआ है। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि गुजरात सरकार अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों में भेदभाव नहीं कर रही है। गुजरात दंगों का मुद्दा वर्षो पुराना है और अब हमें आगे की तरफ देखना चाहिए।वस्तानवी पर सितम टूट पड़ा कि वर्षो पूर्व लाशें बिछाने वाले की सरकार को उन्होंने अच्छा कैसे कह दिया? हालांकि बाद में वह एक सधे हुए राजनीतिज्ञ की तरह यह कहते हुए अपने बयान से मुकर गये कि मेरे साक्षात्कार को तोड़ मरोड़कर पेश किया गया। दरअसल इस हंगामे के पीछे भी राजनीति है। इससे पहले दारूम-उलूम पर हिंदी भाषियों का वर्चस्व रहा। जाहिर है, उत्तर प्रदेश की राजनीतिक लड़ाई और वोट बैंक की राजनीति यहां भी घुस आई और वस्तानवी को इस लड़ाई में अग्नि परीक्षा देनी पड़ रही है। यह प्रगतिशील मुसलमानों के लिए विचारणीय सवाल है। गुजरात आज विकास कर रहा है तो उसे स्वीकारने से दंगे का कलंक उसके माथे से मिट नहीं जाता। इसलिए, विकास की तारीफ करना कोई अपराध नहीं है। योजना आयोग ने भी वहां के विकास दर की तारीफ की है। विश्व बैंक भी वहां की तारीफ कर चुका है। यदि वस्तानवी ने इस सच्चाई का बखान कर दिया तो हंगामा क्यों? वामदल मुसलमानों के सबसे बड़े हितैषी बनते हैं लेकिन उन्हीं के शासन वाले पश्चिम बंगाल को सच्चर समिति ने अल्प संख्यकों के विकास के मामले में सबसे पीछे माना है। उत्तर प्रदेश और बिहार में मुसलमानों की शैक्षिक और माली हालत किसी से छुपी नहीं है। आसन्न चुनावों में मुस्लिम वोट के लिए ही दलित से मुस्लिम और ईसाई बने लोगों को आरक्षण देने पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई राजनीतिक मामलों की कैबिनेट कमेटी में निर्णय इसलिए नहीं हो सका क्योंकि ममता बनर्जी चाहती थीं कि पूरे मुस्लिम समुदाय को आरक्षण दिया जाए। यह मामला अब उलझकर रह गया है। सवाल यह है कि मुसलमान कब तक दकियानूसी ताकतों और चरमपंथियों के चंगुल में फंसा रहेगा। आज जरूरत इससे बाहर निकलने और सोच बदलने की है। तभी आम मुसलमान प्रगति कर सकता है। दुखद यह है कि मुस्लिम वोटों के सौदागर और कुछ तथाकथित संगठन ही उनकी राह में सबसे बड़े अवरोध हैं। उनकी सोच का परिणाम है कि गोधरा पर फैसला आने के बाद उनकी सबसे ज्यादा सहानुभूति रिहा हुए लोगों के प्रति दिखी जबकि रेल कोच में मारे गये कार सेवकों के प्रति उतनी नहीं। वस्तुत: यह रवैया दुर्भाग्यपूर्ण और बेहद शर्मनाक है और जरूरत इसी को बदलने की है।


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