Saturday, February 26, 2011

बाबा से क्यों डरी कांग्रेस बाबा से क्यों डरी कांग्रेस बाबा से क्यों डरी कांग्रेस


काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ बाबा रामदेव की स्वाभिमान यात्रा से उद्वेलित कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की टिप्पणियों ने अभी तक बाबा और कांग्रेस के बीच इशारों-इशारों में चल रही लड़ाई को सार्वजनिक कर दिया है। उत्तराखंड के एक कांग्रेसी विधायक किशोर उपाध्याय तो बाबा रामदेव की संपत्ति की जांच की मांग लेकर न्यायालय में भी पहुंच चुके हैं। वास्तव में राजनीति में उतरने की चाह रखने वाले योग गुरु के लिए यह राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता जितनी आवश्यक है, वर्तमान परिस्थितियों में उससे कहीं ज्यादा यह कांग्रेस के लिए उपयोगी है। यही कारण है कि कांग्रेस के बेहद कद्दावर महासचिव दिग्विजय सिंह ने स्वयं बाबा रामदेव के खिलाफ मोर्चा संभाल लिया है। दरअसल, दिग्विजय सिंह की कांग्रेस के भीतर अहमियत राजनीतिक हलकों में भलीभांति जानी जाती है। संघ के पर हमला बोलना हो या अपनी ही सरकार की नक्सलवाद से निपटने की रणनीति पर उंगली उठाना या फिर गृहमंत्री की मानसिकता एवं कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करना, इन सबके बावजूद दिग्विजय सिंह की अहमियत कांग्रेस में घटी नहीं है, बल्कि कथित रूप से कांग्रेसी युवराज के राजनीतिक गुरु के कद में इजाफा ही हुआ है। अब जबकि भ्रष्टाचार और घोटालों के तमाम आरोपों से घिरी कांग्रेस को अगले आम चुनावों में अभी से हार की चिंता सताने लगी है, तब फिर से कांग्रेसी रणनीतिकार दिग्विजय सिंह एक नई रणनीति के साथ सामने आए हैं। विपक्षी एकता को तोड़ना और विपक्षी वोटों का बंटवारा इस दिग्विजयी कांग्रेसी रणनीति का एक अहम हिस्सा है। इस रणनीति की कामयाबी का स्वाद कांग्रेस महाराष्ट्र में चख भी चुकी है। अब इसी प्रयोग को कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर आजमाना चाहती है। अपने इसी प्रयोग की राष्ट्रीय स्तर पर कामयाबी के लिए बाबा रामदेव की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं कांग्रेस को खूब सुहा रही हैं। विपक्षी वोटों के बंटवारे का यही खेल रचकर कांग्रेस महाराष्ट्र में कामयाब हो चुकी है। महाराष्ट्र में राज ठाकरे की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को समझकर कांग्रेस ने राज ठाकरे को बढ़ने में भरपूर सहयोग दिया, जिसका नतीजा यह हुआ कि राज ठाकरे ने अपनी ही पुरानी पार्टी शिवसेना और पुराने सहयोगी भाजपा को भरपूर नुकसान पंहुचाते हुए कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन के फिर से सत्ता में वापसी के लिए राह प्रशस्त की। भ्रष्टाचार और घोटालों में फंसी कांग्रेस सरकार को अब बाबा रामदेव में यही संभावनाएं नजर आ रही हैं। कांग्रेस बेशक बाबा की आमदनी को निशाना बनाने की बात कर रही है, मगर उसकी असली इच्छा बाबा को जल्द से जल्द एक राजनीतिक दल के मैदान में कूदते देखने की है। इसीलिए एक टीवी चैनल पर बातचीत में उत्तराखंड के कांग्रेसी विधायक किशोर उपाध्याय ने अपनी इच्छा जाहिर करते हुए योग गुरु से पूछ ही लिया कि वह अपनी पार्टी बनाकर राजनीति क्यों नहीं करते हैं। वास्तव में कांग्रेस के रणनीतिकार जानते हैं कि बाबा रामदेव के समर्थकों में यों तो सभी राजनीतिक धाराओं के लोग हैं, लेकिन भाजपा से हमदर्दी रखने वाले लोगों और भाजपा के वोट बैंक का बाबा रामदेव से विशेष लगाव है। इस वास्तविकता से बाबा रामदेव भी अनभिज्ञ नहीं हैं। यही कारण है कि वह जब भी भ्रष्टाचार और कालेधन पर हमला करते हैं तो भाजपा को थोड़ा बचाते हुए ही हमला करते हैं। भाजपा और उसके जनाधार में बाबा रामदेव की यही पैठ कांग्रेस की नई रणनीति की ऊर्जा का काम कर रही हैं। बाबा रामदेव को अपना स्वाभाविक राजनीतिक विरोधी सिद्ध करने के लिए कांग्रेस की ओर से आने वाले दिनों में योग गुरु पर इस तरह के हमलों की संख्या में लगातार इजाफा होगा। इन हमलों से कांग्रेस कम से कम तीन तरह के फायदे उठाने की स्थिति में रहेगी। एक, बाबा रामदेव को अपना स्वाभाविक राजनीतिक प्रतिस्पर्धी सिद्ध करके योग गुरु के खिलाफ तेज राजनीतिक अभियान से अपने जनाधार को बचाने में सहायता मिलेगी। दूसरे, बाबा राजनीतिक रूप से जितने मजबूत होगें, विपक्षी वोटों को तोड़ने की उनकी ताकत में उतना ही इजाफा होगा और शर्तिया तौर पर अंततोगत्वा यह कांग्रेस के हित में होगा। तीसरे, कांग्रेस बाबा और भाजपा की नजदीकियों का हावाला देकर धर्म निरपेक्ष वोटों से अलग करने का काम भी करेगी। योग गुरु की लगातार राजनीतिक सक्रियता कांग्रेस के सत्ता में बने रहने की नई संभावनाएं पैदा करने का काम कर रही है। हालांकि कांग्रेस और बाबा की तकरार ने दो समाज सेवी तबकों की कार्यप्रणाली पर एक बहस की शुरुआत कर दी है। एक ओर राजनीतिज्ञों की तथाकथित समाजसेवा है तो दूसरी तरफ धार्मिक बाबाओं की समाज सेवा। दोनों तबके अपनी सेवा का बहुत बड़ा मेहनताना आम आदमी से वसूल कर रहे हैं। योग गुरु लाख कहें कि उनका किसी बैंक में खाता नहीं है, लेकिन एक साधु होने के बावजूद 1,152 करोड़ की दौलत का व्यावहारिक स्वामित्व बाबा के पास ही है और यह कोई नई घटना नहीं है। देश के सभी बाबाओं का दौलत अर्जित एवं खर्च करने का एक यही एक प्रचलित तरीका है, जिसमें टैक्स से बचाव भी है और सभी तरह के ऐशोआराम भी। नए दौर की यह भी एक कमाल की फकीरी है। बाबा पर शुरू हुई इस तकरार में भाजपा और कांग्रेस के निहितार्थ हैं। एक साधु होने के बावजूद बाबा रामदेव की आक्रामक कार्यशैली से कांग्रेस भलीभांति परिचित है, जिस कारण कांग्रेस के रणनीतिकार योग गुरु को सलाह दे रहे हैं कि वह एक राजनीतिक दल बनाकर मैदान में आएं। यदि कांग्रेस को योग गुरु से कोई खतरा होता तो यह तय था कि कांग्रेस भी भाजपा की ही भाषा बोलती या खामोश रह सकती थी, लेकिन कांग्रेस का बाबा की कार्यशैली को लेकर विचलित होना और उन्हें उकसाना कांग्रेस की एक राजनीतिक जरूरत है। वहीं भाजपा बाबा रामदेव के पक्ष में उतरकर अपने जनाधार का बचाव ही कर रही है। इसके अलावा बाबा रामदेव की भी अपनी विवशताएं हैं। वह भाजपा से लाख हमदर्दी रखने के बावजूद अपने आप को भाजपा के साथ खड़ा नहीं दिखा सकते हैं, क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनके नए सहयोगी किरण बेदी, अरुणा राय और अरविंद केजरीवाल जैसे सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित नाम उनका साथ छोड़ जाएंगे, जो संभवतया बाबा रामदेव की भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम को बड़ा और गंभीर झटका होगा, क्योंकि इन सभी नामों का जमीनी काम और इनकी ईमानदार साख कहीं बड़ी है। इसके अतिरिक्त बाबा रामदेव का प्रभाव क्षेत्र शहरी मध्यम वर्ग तक ही अधिक सीमित है। योग को एक ब्रांड बनाकर बेचने वाले योग गुरु ने नई शहरी जीवनशैली जनित व्याधियों को ही संबोधित किया है, वह भी उस मध्यम वर्ग को जिसकी जेब में पैसा है। ग्रामीण मजदूरों-किसानों की बात तो दूर, बाबा रामदेव का योग शहरी गरीबों की पहुंच से भी दूर है। अब देखना यह है कि बाबा रामदेव कितने दिनों में कांग्रेस की मंशा पूरी करते हैं। हालांकि योग गुरु ने एक टीवी चैनल पर चर्चा के दौरान स्पष्ट घोषणा कर दी है कि जब भी अगला लोकसभा चुनाव होगा, वह अपने उम्मीदवार उतारेंगे। अब कथित रूप से दो समाजसेवी तबकों के इस संघर्ष में दोनों के ही जीतने की पूरी संभावनाएं हैं। यदि कोई हारेगा तो देश का वह गरीब आदमी, जिसके पास न बाबा रामदेव के योग शिविर में जाने के पैसे हैं और न ही वर्तमान धन और बाहुबल की राज|

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