Wednesday, February 2, 2011

नेताओं के व्यर्थ के बोल


लेखक भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के मुद्दे पर शीर्ष नेताओं को भी खोखली बातें करते देख रहे हैं...
26 जनवरी की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने देश को बढ़ते भ्रष्टाचार के प्रति आगाह किया और इसे विकास का सबसे बड़ा दुश्मन बताया। उन्होंने जनसेवा के क्षेत्र में व्याप्त संवेदनहीनता और लापरवाही पर चिंता व्यक्त करते हुए जन कल्याणकारी एवं आर्थिक विकास की योजनाओं में अधिक पारदर्शिता और जबावदेही की आवश्यकता पर भी बल दिया। चूंकि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर संसद के शीतकालीन सत्र को नहीं चलने दिया गया इसलिए उन्होंने संसदीय व्यवस्था के अनुपालन पर भी जोर दिया। राष्ट्रपति के विचारों से कदापि असहमत नहीं हुआ जा सकता, लेकिन आम आदमी उनसे यह जानना चाहेगा कि आखिर देश के नेता भ्रष्टाचार पर नियंत्रण क्यों नहीं कर पा रहे हैं? भ्रष्टाचार की बात जब भी चलती है उसे राजनीति से जोड़ा जाता है। राष्ट्रपति खुद भी राजनीति की उपज हैं। वह राजनीति में बढ़ते भ्रष्टाचार से अवश्य परिचित होंगी। अन्य शीर्ष नेताओं की तरह उन्होंने भी जिस तरह बढ़ते भ्रष्टाचार पर अपनी वेदना व्यक्त की उससे काम चलने वाला नहीं है। दरअसल यह ठीक नहीं कि शीर्ष पर बैठे हमारे नेता भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के कोई ठोस उपाय करने के बजाय उस पर केवल चिंता जताएं। उन्हें यह अहसास होना चाहिए कि राजनीति से उपजा भ्रष्टाचार दैत्य बनकर राजनीति को ही निगल रहा है। हमारे औसत राजनेता आम आदमी के सामने अपना पक्ष इस तरह रखते हैं जैसे वे बिल्कुल पाक-साफ हों, लेकिन जिम्मेदार पद संभालते समय ऐसे ही नेता या तो भ्रष्टाचार सहन करते हैं या फिर उसकी अनदेखी करते हैं। समस्या यह है कि कुछ साफ छवि वाले राजनेता भी भ्रष्टाचार के प्रति मौन रहकर उसे बढ़ावा दे रहे हैं। ऐसे नेताओं में अगर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी का भी नाम लिया जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। पिछले कुछ समय से विपक्ष के नेता भ्रष्टाचार को लेकर हायतौबा मचा रहे हैं, लेकिन यदि उनसे यह पूछा जाए कि क्या उनके दलों द्वारा शासित राज्यों में भ्रष्टाचार समाप्त हो चुका है तो यह तय है कि उनके पास गोलमोल जवाब ही होगा। भ्रष्टाचार के मामले में सत्तापक्ष अथवा विपक्ष द्वारा शासित राज्यों में भेद करना कठिन है। 26 जनवरी के एक दिन पहले नाशिक के निकट मालेगांव के एडीएम यशवंत सोनवाने को तेल माफिया ने जिस तरह जिंदा जला दिया वह भी भ्रष्टाचार का एक भयावह रूप है। गरीबों को सस्ता मिट्टी का तेल (केरोसीन) देने के नाम पर सरकार कई दशकों से भारी-भरकम सब्सिडी देती चली आ रही है, लेकिन उसका लाभ गरीबों को नहीं मिल रहा। तेल माफिया मिट्टी का तेल डीजल में मिलाकर अपने वारे-न्यारे कर रहा है। हमारे देश में डीजल के मुकाबले मिट्टी के तेल के दाम तीन गुना कम हैं। इसी के चलते डीजल में मिट्टी के तेल की मिलावट का धंधा जोर पकड़े हुए है। मिट्टी के तेल पर दी जा रही सब्सिडी समाप्त करने की मांग अनेक स्तरों पर की जा चुकी है, लेकिन पता नहीं क्यों सरकार उस पर ध्यान नहीं दे रही है? वह ऐसे उपाय भी नहीं कर पा रही जिससे मिट्टी के तेल की कालाबाजारी रुके। सोनवाने की हत्या के बाद पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने मिलावटी तेल के कारोबार पर रोक लगाने के जो उपाय किए हैं वे छह माह बाद प्रभावी होंगे और फिलहाल यह तय नहीं कि उनसे कोई लाभ मिलेगा या नहीं? मिट्टी के तेल पर सब्सिडी देना और उसकी कालाबाजारी पर अंकुश न लगाना एक प्रकार से तेल माफिया की जेबें भरना है। एक अनुमान के अनुसार प्रति वर्ष लगभग आठ-दस हजार करोड़ रुपये के केरोसिन की कालाबाजारी होती है। यह संभव नहीं कि तेल माफिया यह काम बगैर राजनीतिक संरक्षण के कर सके। यह पहली बार नहीं जब किसी अफसर ने तेल माफिया के खिलाफ कार्रवाई करने की कोशिश की तो उसकी कीमत उसे जान देकर चुकानी पड़ी। इसके पहले लखीमपुर खीरी में इंडियन ऑयल के एक अफसर को पेट्रोल-डीजल में मिलावट करने वालों ने मौत के घाट उतार दिया था। सच तो यह है कि ऐसे न जाने कितने मामले हैं जो यह बताते हैं कि भ्रष्ट तत्वों के खिलाफ आवाज उठाने अथवा कार्रवाई करने वालों को मौत की नींद सुला दिया गया अथवा उनका उत्पीड़न किया गया। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि भ्रष्ट तत्वों की पहुंच राजनेताओं तक होती है। भ्रष्टाचार नेताओं के कारण ही पनप रहा है, लेकिन वेतरह-तरह के तर्क देकर व्यवस्था बदलने से इनकार कर रहे हैं। बात चाहे अनधिकृत बस्तियों को पोषित करने वाले भू-माफिया की हो या कोयला माफिया की या फिर वन संपदा लूटने वाले माफिया की-इन पर लगाम नहीं लग पा रही है। कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि ये माफिया सरकार के नियंत्रण से बाहर हो चुके हैं और अपनी समानांतर सत्ता चलाने में सक्षम हो गए हैं। माओवादी भी माफिया का एक रूप हैं और यह किसी से छिपा नहीं कि वे किस तरह वन-खनिज संपदा के बल पर देश के अनेक इलाकों में काबिज हैं। वे अब इतने ताकतवर हो गए हैं कि देश के संविधान को भी नकार रहे हैं। ऐसे माओवादियों से भी अनेक नेताओं के संबंध हैं। कुछ तो उनसे खुलेआम हमदर्दी जताते हैं। भ्रष्टाचार के मामले यही बताते हैं कि भ्रष्ट तत्व नौकरशाहों तथा नेताओं के कारण फल-फूल रहे हैं। अब तो कॉरपोरेट जगत में भी भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है। 2-जी स्पेक्ट्रम और अन्य अनेक घोटाले कॉरपोरेट जगत से नेताओं-नौकरशाहों की मिलीभगत का परिणाम हैं। चूंकि भ्रष्टाचार नियंत्रित करने के लिए लाए जा रहे लोकपाल विधेयक में कई ऐसी खामियां हैं जिनसे भ्रष्ट नेता आसानी से बच निकल सकते हैं इसलिए ऐसे नेताओं का दुस्साहस बढ़ना स्वाभाविक है। देश की जिन संस्थाओं पर भ्रष्टाचार को काबू में करने की जिम्मेदारी है वे राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते न केवल निष्प्रभावी हैं, बल्कि सत्तारूढ़ दलों की कठपुतली बन कर रह गई हैं। यदि रग-रग में समा गए भ्रष्टाचार को दूर करना है तो नए तौर तरीके सोचने होंगे। चूंकि वोट बैंक से ग्रस्त भारतीय राजनीति की सोच भ्रष्ट हो चुकी है इसलिए इसकी कल्पना नहीं की जा सकती कि हमारे औसत नेता भ्रष्टाचार को दूर कर पाएंगे। राजनीति अब एक ऐसा पेशा बन चुकी है जो भ्रष्टाचार के बगैर नहीं चल सकती। ऐसे में जब तक भारतीय राजनीति को साफ करने की कोई क्रांतिकारी सोच सामने नहीं आती तब तक भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने की बात करना देश को गुमराह करने जैसा है। विपक्ष भी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगा हुआ है और यही कारण है कि भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने की बातें बेमानी नजर आने लगी हैं।


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