राष्ट्रकवि दिनकर ने लिखा है न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है। यह पंक्ति एक दिशाहीन हो चुके शासक को बताने के लिए काफी है कि राजधर्म और न्यायधर्म के बीच किस तरह सामंजस्य स्थापित कर एक संप्रभु राष्ट्र के जनमानस को भरोसे में लिया जा सकता है। न्याय के पलड़े पर न कोई अपना होता है और न ही कोई पराया। न्याय व्यवस्था का स्पष्ट सिद्धांत है कि अपराधी को दंड मिलना चाहिए चाहे वह अपना सगा ही क्यों न हो? भारत के ज्ञात इतिहास में ऐसे हजारों संदर्भ बिखरे पड़े हैं जब न्यायवादी शासकों ने हर युग में अपने उन सगे-संबंधियों को न्याय की कसौटी पर कसा और परखा जो संदेह की परिधि में आए। भारतीय न्यायिक भावना परंपरागत रूप से राजसत्ता की अक्षुण्णता का पोषक रही है, लेकिन देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के लिए न तो कवि दिनकर की पंक्ति कोई मायने रखती है और न ही भारतीय इतिहास का वह शानदार कालखंड जिसके गर्भ में न्याय का शिशु सत्ता के प्रपंच पर हमेशा भारी रहा है। सच कहा जाए तो मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली लोकतांत्रिक सत्ता का राजधर्म राजाओं और दरबारियों के आगे शरणागत हो चुका है़ और न्यायधर्म थॉमस और कलमाडि़यों जैसे प्रपंचियों के आगे बेबस और लाचार है। मनमोहनी राजसत्ता की अंधदृष्टि का ही कमाल रहा कि प्रधानमंत्री के नाक के नीचे राष्ट्र को लूटने की कवायद जारी रही और वे गठबंधन धर्म की मजबूरियां-बारीकियां गिनाकर अपनी कुख्यात हो चुकी सत्ता का बचाव करते रहे। अंधमोह में फंसी राजसत्ता अन्यायी और पाखंडी जनप्रतिनिधियों और भ्रष्ट नौकरशाहों को दंड देने के बजाय उनकी काली करतूतों व फितरतों को नैतिकता का जामा पहनाती रही। यह भी देखा गया कि एक निर्वाचित लोकतांत्रिक राजसत्ता किस तरह भ्रष्टाचारियों के बचाव में न्यायालय को गुमराह करती है और जब राजसत्ता के हास्यापद प्रहसन पर न्यायालय का हथौड़ा चलता है तो बेशर्मी से यहां तक कह जाती है कि न्यायपालिका को भी अपने हद में रहने की जरूरत है। सत्ता तो सत्ता ही होती है उसे झूठ को सच और सच को झूठ बनाने में महारत हासिल होती है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संपादकों से सवाल-जवाब के दौरान देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी सत्ता की बादशाहत कुछ ऐसी ही दिखाई, लेकिन इस बादशाहत ने न केवल उनके सच और झूठ के घालमेल पर से पर्दा हटा दिया, बल्कि उनके ईमानदार आभामंडल को भी निस्तेज कर दिया। भ्रष्टाचार से जुड़े आरोपों के बीच जवाब में वह झुलते नजर आए। उनका जवाब देश के जनमानस को संतुष्ट करना तो दूर तमाम ऐसे सवाल भी खड़ा कर गया जो भारतीय लोकतंत्र के लिए घातक साबित हो सकता है। लोग सोचने के लिए विवश हो सकते हैं कि क्या वास्तव में देश के प्रधानमंत्री इस कदर मजबूर हैं कि भ्रष्टाचारियों को साथ लिए बिना सरकार नहीं चल सकती है? प्रधानमंत्री से पूछा जा सकता है कि क्या देश की जनता ने जनादेश इसीलिए दिया था कि कांग्रेस पार्टी भ्रष्टाचारियों की फौज जुटाकर राष्ट्र की संपदा को सौ-सौ हाथों से लूट डाले? शायद देश के लोगों के मन में यह भी खयाल आया होगा कि ईमानदार कहे जाने वाले प्रधानमंत्री विद्रूप और भ्रष्ट सत्ता व्यवस्था से जरूर उकता चुके होंगे, लेकिन लोगों का अंदाजा गलत साबित हुआ। उन्होंने साफ कर दिया कि वे न तो सत्ता को तिलांजलि देने जा रहे हैं और न ही भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने के आरोप पर उनके मन में कोई ग्लानि ही है। सत्ता से चिपके रहने की प्रधानमंत्री की घोषणा को राजनीतिक टीकाकार चाहे जिस तरह व्याख्या करें, लेकिन जो बात आइने की तरह साफ है वह यह कि भ्रष्टाचारियों को दिए जा रहे संरक्षण से प्रधानमंत्री अनजान और असहमत कभी नहीं थे। वरना ऐसे कैसे संभव है कि भ्रष्टाचारी पूरे शोरगुल के साथ देश बेच रहे हों और प्रधानमंत्री नींद में सोए रहें। आज अगर वह कह रहे हैं कि 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के लिए ए. राजा जिम्मेदार हैं और राजा को मंत्री बनाना गठबंधन धर्म की मजबूरी थी तो उन्हें यह भी बताना होगा कि कॉमनवेल्थ गेम्स के कर्ताधर्ताओं को राज संपदा पर डकैती डालने की छूट देना आखिर सरकार की कौन सी मजबूरी थी? शहीदों की बेवाओं के लिए बने आदर्श हाउसिंग आवंटन के लूटेरों को अंत तक बचाने का दुस्साहस फिर कौन सी मजबूरी थी? हो सकता है कि सत्ता से चिपके रहने के शर्त के रूप में प्रधानमंत्री की यह मजबूरी रही हो, लेकिन देश कैसे मजबूर हो सकता है? सच तो यह है कि प्रधानमंत्री की मजबूरी देश के लिए एक त्रासदी साबित हुई है। क्यों न मान लिया जाए कि अगर प्रधानमंत्री के संज्ञान में होने के बावजूद भी एक लूटेरे को मंत्री पद से नवाजा जा सकता है तो इस रहस्यलीला में उनकी भी सहमति रही होगी। अगर प्रधानमंत्री इस शर्मनाक स्थिति को गठबंधन धर्म की मजबूरी बताते हैं तो बेशक एक प्रभुतासंपन्न राष्ट्र के लोकतांत्रिक चरित्र और भावनात्मक जीवंतता के लिए यह किसी भयानक खतरे से कम नहीं है। प्रधानमंत्री का हंस कर यह कहना कि उनके ऊपर जितना आरोप जड़ा जा रहा है उतना वह दोषी नहीं हैं, क्या यह संदर्भित नहीं करता है कि हजारों करोड़ रुपये की लूटी गई अथवा बंदरबांट की गई रकम को लेकर वह अब भी असहज नहीं है? आखिर क्यों न माना जाए कि प्रधानमंत्री अब भी दोषियों को दंड से बचा ले जाना चाहते हैं? जहां तक प्रधानमंत्री के दोष को गिनाने का सवाल है तो उसकी पहल वह खुद कर चुके हैं, लेकिन यह समस्या का अंत नहीं है। आए दिन नए-नए घोटाले जनता के दिलोदिमाग को चकरा रहे हैं और प्रधानमंत्री अपने दोष का पैमाना निर्धारित करना चाहते हैं। कहीं उनकी मंशा अपने सहयोगियों के घोरतम काले कारनामों से अलग दिखना तो नहीं हैं? क्या संसदीय प्रणाली में इसकी छूट उन्हें दी जा सकती है? कदापि नहीं। वह दिन दूर नहीं जब भारतीय लोकतंत्र यह फैसला करेगा कि किसका कितना दोष था, लेकिन प्रधानमंत्री की हंसी कालजयी भारतीय राजव्यवस्था के न्यायधर्म को न केवल मुंह चिढ़ाने वाली है, बल्कि यह भी रेखाकिंत करती है कि एक शासक को सत्ता का मोह कितना दीन-हीन बना देता है कि वह अपनी सरकार को चलाने-बचाने के लिए अधर्म, अन्याय और अत्याचार को इस हद तक बर्दाश्त करता है कि राष्ट्र की संप्रभुता व विश्वसनीयता तक खतरे में पड़ जाती है। इस पर भी हैरत तब होती है जब मिस्टर क्लीन कहे जाने वाले प्रधानमंत्रीजी की इस तथाकथित जुगाली को बौद्धिक समाज उनकी साफगोई मान बैठता है और छद्म तरीके से यह भी प्रचारित करने में जुट जाता है कि प्रधानमंत्री कितने ईमानदार और नेक हैं जो सहजता से स्वीकार लेते हैं कि उनसे कुछ गलतियां हुई हैं। क्या यह विचित्र नहीं लगता है कि हजारों करोड़ की लूट सहन कर चुके प्रधानमंत्री इसे अपनी मामूली गलती बता रहे हैं? क्या इसे प्रधानमंत्री की साफगोई और सहजता माना जा सकता है? केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर नियुक्त किए गए भ्रष्टाचार के आरोपी पीजे थॉमस जिसे प्रधानमंत्री का सत्ता दरबार बार-बार ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और बेदाग बता रहा है और न्यायालय उनकी नियुक्ति पर नाक मुंह सिकोड़ रहा है क्या इसे भी प्रधानमंत्री के सहज और ईमानदार आचरण का नमूना माना जाए या इसे प्रधानमंत्री की निर्लज्ज राजनीतिक चतुराई माना जाए? राष्ट्रद्रोहात्मक गलतियों को साफगोई के काले पर्दे से नहीं ढंका जा सकता है। राष्ट्रीय संपदा और जनता की गाढ़ी कमाई की डाकेबाजी को साफगोई के औजार से डराया भी नहीं जा सकता है और न ही गुनाहगारों की जवाबदेही को कम किया जा सकता है। महालुटेरों के घृणित कारनामों पर अपनी अंाख बंद कर लेना, कान में रूई ठूंस लेना और जानबूझकर गूंगा बन जाना न तो राष्ट्रधर्म होता है और न ही न्यायधर्म। इसे गठबंधन धर्म की घिनौनी परिभाषा में बांधना भी राष्ट्र के साथ छल-प्रपंच और धृत्कर्म है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संपादकों के बीच प्रधानमंत्री की जुगाली भरा करिश्मा भले ही संप्रग सरकार के सिर चढ़कर बोले, लेकिन देश की जनता की निगाह में संप्रग सरकार ने भारतीय लोकतंत्र को बाजारू बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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