Monday, February 7, 2011

घिरती सरकार, सिकुड़ते विकल्प


अगर केंद्र सरकार को उम्मीद थी कि पूर्व दूरसंचार मंत्री ए राजा और पूर्व दूरसंचार सचिव सिद्धार्थ बेहुरा की गिरफ्तारी के बाद 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले का विवाद ठंडा पड़ेगा तो यह उसकी गलतफहमी ही सिद्ध हुई है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और दूसरे विपक्षी दल आज भी संयुक्त संसदीय समिति के गठन की मांग पर कायम हैं और उनके तेवर देखते हुए लगता नहीं कि संसद के बजट सत्र में भी हालात नाटकीय रूप से बदलने वाले हैं। विपक्ष को लंबे अरसे बाद ऐसे दो विस्फोटक मुद्दे हाथ लगे हैं, जो न सिर्फ आम आदमी की सोच को प्रभावित कर रहे हैं, बल्कि उन्हें एकजुट होने में भी मदद कर रहे हैं। छह महीने पहले की स्थिति के विपरीत आज विपक्ष संसद के घटनाक्रम को नियंत्रित करने की स्थिति में है। इस किस्म के गंभीर हालात, प्रतिष्ठान विरोधी माहौल और आक्रामक विपक्षी एकजुटता भारतीय राजनीति में कम ही देखी जाती है। लगता नहीं कि विपक्ष इस अनुकूल परिस्थिति का अधिकतम लाभ उठाए बिना किसी किस्म का समझौता करने को तैयार होगा, खासकर कुछ राज्यों में जल्दी ही होने वाले चुनावों के मद्देनजर। सरकार को शायद यह गुमान रहा होगा कि ए राजा की गिरफ्तारी मामले का पटाक्षेप कर देगी, लेकिन विपक्ष ने इसे अपनी जीत के रूप में देखा है। इसने उसके आंदोलन को बल दिया है। उम्मीद बंधी है कि अगर वह अपने रुख पर अड़ा रहा तो सरकार को संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के गठन की मांग मानने पर भी बाध्य कर सकता है, क्योंकि सरकार भले ही ए राजा की गिरफ्तारी को जांच के प्रति अपनी कटिबद्धता के रूप में पेश करे, विपक्षी नजरिए से देखें तो इसने यही सिद्ध किया है कि 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में घोटाले संबंधी उसके आरोप निराधार नहीं थे। ऐसे में अगला स्वाभाविक कदम संयुक्त संसदीय समिति का गठन ही हो सकता है। दूसरी तरफ सरकार अब भी जेपीसी से मुंह चुरा रही है। मामला दाखिल दफ्तर करने के लिए उसकी अगली उम्मीदें संसद में प्रस्तावित बहस और फिर होने वाले मतदान के नतीजे पर टिक गई हैं। बहरहाल, पिछले दो-तीन महीनों के गतिरोध से जाहिर है कि वह मामले को दबाने का जितना प्रयास करेगी, हालात उतने ही मुश्किल और गंभीर होते चले जाएंगे। केंद्र सरकार, खासकर कांग्रेस को अहसास है कि महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दों का ज्यादा समय तक राष्ट्रीय मानचित्र पर छाए रहना उसके लिए घातक सिद्ध हो सकता है। गनीमत है कि आम चुनाव अभी काफी दूर हैं। वरना, जिस अंदाज में अखबारों के सर्वेक्षणों के नतीजे आ रहे हैं, उससे जाहिर है कि आम जनमानस दोनों ही मुद्दों पर काफी उद्वेलित है। असंतोष का माहौल सिर्फ राजनीति और समाज को ही नहीं, प्रशासन, न्यायपालिका और अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित कर रहा है। कहां हम आर्थिक तरक्की के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर रहे थे और कहां सभी चर्चाओं और बहसों का फोकस भ्रष्टाचार और महंगाई पर आ गया है। राष्ट्रीय नेतृत्व की साख संकट में है। संसदीय लोकतंत्र की गरिमा और आर्थिक विकास की रफ्तार के कुंद पड़ने का खतरा है। इससे पहले कि यह राष्ट्रव्यापी निराशा और असंतोष का रूप ले, जेपीसी संबंधी मुद्दे का दोनों पक्षों को मान्य समाधान खोजा जाना जरूरी है। बदले हालात, बदला माहौल राजा की गिरफ्तारी के बाद दो अहम घटनाएं हुई हैं। सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति शिवराज पाटिल की जांच रिपोर्ट में 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन के मामले में यूपीए सरकार के साथ-साथ पिछली राजग सरकार के मंत्रियों के आचरण पर भी सवाल उठाए गए हैं। समिति के अनुसार, सन 2003 से लेकर 2008 के बीच किए गए स्पेक्ट्रम आवंटन गलत हैं। इस अवधि में पहला एक साल राजग सरकार का था, जब अरुण शौरी दूरसंचार मंत्री थे। बाकी अरसा संप्रग की सरकारों का है। केंद्रीय दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल के मुताबिक ए राजा ने राजग सरकार की शुरू की नीतियों को ही आगे बढ़ाया था। अगर ऐसा है तो फिर केंद्र सरकार को जेपीसी के गठन में कोई परहेज नहीं होना चाहिए। वह चाहे तो समिति की जांच के दायरे में राजग सरकार के कार्यकाल को भी ला सकती है। वैसे ही, जैसे शिवराज पाटिल समिति के दायरे में दोनों गठबंधनों का कार्यकाल शामिल था। जिस मामले में एक पूर्व केंद्रीय मंत्री और शीर्ष अफसरशाहों को गिरफ्तार किया गया हो, वह कोई सामान्य अनियमितता का मामला नहीं हो सकता। भले ही सरकार जेपीसी के गठन की कोई आवश्यकता न माने, अपने पूर्व मंत्री की गिरफ्तारी के बाद बदले हालात के मद्देनजर उपजी आशंकाओं और संदेह का शमन करने के लिए उसे बड़ा कदम उठाने की जरूरत है। न्याय और पारदर्शिता के हक में उसे विपक्ष की मांग मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। इस संदर्भ में चार बातों का जिक्र उल्लेखनीय होगा। पहले सत्ता पक्ष का कहना था कि ए राजा ने कुछ भी गलत नहीं किया है, लेकिन उनकी गिरफ्तारी के बाद राजा के आचरण को लेकर कोई संदेह नहीं रह गया है। दूसरे, अब सरकार का कहना है कि उसके मंत्री ने पिछली गठबंधन सरकार के मंत्री की परंपरा को ही आगे बढ़ाया था। अगर यह सच है तो सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्ष का भी राजनैतिक नुकसान होना तय है, जो सरकार के नुकसान की भरपाई कर देगा। तीसरे, सत्ता पक्ष को यह आशंका रही है कि संयुक्त संसदीय समिति के गठन के पीछे विपक्ष की एकमात्र मंशा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पूछताछ के लिए तलब करना है। प्रधानमंत्री लोक लेखा समिति के सामने मौजूद होने की पेशकश खुद कर चुके हैं तो फिर जेपीसी के सामने पेश होने में भी शायद उन्हें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। चौथा, मौजूदा विवाद से अगर किसी की लोकप्रियता को नुकसान पहुंच रहा है तो वह सत्तारूढ़ गठबंधन ही है। गतिरोध जितना लंबा चलेगा, नुकसान उतना ही बढ़ता चला जाएगा। इसे दूर करने का अब एक ही रास्ता नजर आता है और वह है जेपीसी का गठन। सरकार इसमें जितनी देरी करेगी, वह इन संदेहों को ही मजबूत करेगी कि कहीं कुछ गंभीर गड़बड़ है। सिकुड़ते विकल्प केंद्र सरकार की ताजा पेशकश को देखते हुए ऐसा लगता नहीं कि जेपीसी का गठन उसकी प्राथमिकताओ में है। उसे विधायी कामकाज निपटाने की ज्यादा चिंता है। अगर बजट सत्र भी पिछले सत्र की तरह हंगामे की भेंट चढ़ गया तो बजट और कुछ अहम विधेयकों को पास कराना मुश्किल हो सकता है, जो हालात को और गंभीर बना देगा। संसद सत्र चलने देने के लिए विपक्षी दलों को समझाने-बुझाने और अपने दायित्वों की याद दिलाने के सरकारी प्रयास फलीभूत नहीं हुए हैं। इसीलिए उसने जेपीसी गठन का मुद्दा संसद के पटल पर हल करने की पेशकश की है। उसका कहना है कि इस बारे में संसद में बहस करा ली जाए और फिर मतदान के जरिए फैसला कर लिया जाए। विवाद को इतना गरमा देने और प्रतिष्ठा का प्रश्न बना देने के बाद विपक्ष यह पेशकश स्वीकार करेगा, इसकी संभावना हाल-फिलहाल नगण्य प्रतीत होती है। इसी तरह का प्रस्ताव सरकार ने पिछले सत्र में भी तो दिया था। विपक्ष ने उसे स्वीकार नहीं किया था, क्योंकि वह जानता है कि लोकसभा में वह अपनी बात मनवाने की स्थिति में नहीं है और अगर सदन में उसकी मांग मतदान के जरिए नामंजूर हो गई तो वह महीनों में निर्मित हुई अपनी राजनैतिक बढ़त खो देगा। विपक्ष को निरुत्तर करने के लिए सरकार खुद भी लोकसभा में इस बारे में प्रस्ताव पेश करवा सकती है। वह जानती है कि मतदान के समय कई दल भाजपा के साथ खड़े होने को तैयार नहीं होंगे। पश्चिम बंगाल और केरल में आसन्न चुनावों के मद्देनजर वामपंथी दल तो भाजपा के साथ आने को बिल्कुल तैयार नहीं होंगे, खासकर हिंदू आतंकवाद का मुद्दा उभारे जाने के बाद। इसी मुद्दे के कारण समाजवादी पार्टी और बसपा भी उसके साथ आने में संकोच करेंगी। वामपंथियों ने कर्नाटक के मुख्यमत्री बीएस येद्दयुरप्पा को बरकरार रखने के मुद्दे पर भी भाजपा की काफी आलोचना की है। सरकार जानती है कि संसद में मतदान के लिहाज से समय उसके अनुकूल है, लेकिन सवाल यह है कि अगर सब-कुछ ठीकठाक है तो वह दाएं-बाएं कर मामले को टालने की कोशिश क्यों कर रही है? विपक्ष के विरुद्ध तो वह राजनैतिक दांव-पेंच आजमा सकती है, लेकिन जनता को क्या जवाब देगी? क्या कहा आपने? जनता बहुत जल्द भूल जाती है! (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


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