निजाम और चारमीनार के शहर के बतौर पहचाना जाने वाला और बदलते समय के साथ देश के आईटी हब के रूप में प्रतिष्ठापित हैदराबाद आजादी के लगभग छह दशक बाद फिर केंद्र सरकार के लिए परेशानी का सबब बन गया है। सर्वविदित है कि केंद्र और आंध्रप्रदेश सरकार की अग्नि परीक्षा का सबब बनी तेलंगाना मसले पर कायम जिच हैदराबाद को लेकर ही नहीं सुलझ पा रही है। हालांकि यदि किसी तरह सरकार तेलंगाना के मसले से पार पाने में सफल रही भी तो उसे राहत की उम्मीद नहीं करनी चाहिए क्योंकि देश के विविध प्रांतों में नए राज्यों की मांग को लेकर संघर्षरत व्यक्तियों-संगठनों की निगाहें इसी पर टिकी हैं कि सरकार तेलंगाना के प्रश्न पर क्या निर्णय लेती है। फिलहाल देश में लगभग आधा दर्जन नए राज्यों की मांग को लेकर लोग मुखर हैं। इसके पीछे विकास में पिछड़ेपन को प्रमुख आधार बनाया जा रहा है। कुछेक नेताओं की सत्ताकांक्षा भी इसके पीछे अहम कारक बन रही है। लेकिन निरपेक्ष आकलन करने पर इन मांगों का प्रमुख कारक शासन की खराब गुणवत्ता ही लगती है और धीरे-धीरे हालात ऐसे बन गए हैं कि लोग इस मर्ज का इलाज पृथक राज्यों के रूप में देखने लगे हैं। तेलंगाना आंदोलन का इतिहास लगभग आजाद भारत के इतिहास जितना ही पुराना है। जब आंध्रप्रदेश अस्तित्व में आया तो तेलंगाना के लोगों से बाकायदा समझौता कर तमाम वादे किए गए। लेकिन समय के साथ उन्हें भुला दिया गया। नतीजा तेलंगाना के लिए कभी मुखर तो कभी मद्धम स्वर में आवाज उठती रही। आज तेलंगानावासियों की शिकायत है कि उनके क्षेत्र में सिचाई, बिजली, उद्योग आदि आधारभूत संरचनाओं के विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। यह सीधे तौर पर शासन की खराब गुणवत्ता के चलते उपजी समस्या है। जाने-अनजाने इसी के चलते तेलंगाना के लोगों में अहसास उभरा कि उनकी अनदेखी हो रही है। परिणामस्वरूप लोग पृथक राज्य से कम पर मानने को तैयार नहीं हैं। यह सही है कि लोगों की इस भावना का प्रतिनिधित्व करने के बदले केसीआर जैसे नेताओं की नजरें अपनी सियासी आकांक्षा पूरी करने पर टिकी हैं। यदि ऐसा न होता तो केसीआर को तेलंगाना की याद तब न आती जब तेलगूदेशम के आंतरिक समीकरणों के चलते उनके चंद्रबाबू नायडू से मतभेद हुए। देश के कई अन्य हिस्सों में भी अलग राज्य की मांग सिर उठा रही है। और कई कसौटियों पर यह जायज भी जान पड़ती हैं। विदर्भ इसका बड़ा उदाहरण है। विकसित सूबे के तौर पर शुमार महाराष्ट्र का यह इलाका बीते सालों में किसानों की कब्रगाह के तौर पर पहचाना जाने लगा है। कपास की सालोंसाल खराब होती फसल और कर्ज के चक्रव्यूह में फंसे किसान हताशा में आत्महंता बनते जा रहे हैं। सरकार के पैकेज ऊंट के मुंह में जीरे से अधिक नहीं हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्वाचल में भी हालात अलग नहीं हैं। 1857 से लेकर स्वतंत्रता मिलने तक आजादी के आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाले वाला यह क्षेत्र बुनकरों-कालीन उद्योग की बदहाली, चीनी मिलों की बंदी और रोजगार की तलाश में विस्थापन के लिए जाना जाता है। दो दर्जन से अधिक लोकसभा और लगभग 150 विधानसभा सीटों को समेटे यह अंचल स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और बिजली सहित सभी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहा है। राज्य का एक अन्य हिस्सा बुंदेलखंड भी इसी दर्द का शिकार है। बीते सालों में मानसून और सरकारों की बेरुखी ने यहां के हालात इतने खराब कर दिए हैं कि विदर्भ की तरह ही यहां के किसान भी मुक्ति का मार्ग आत्महत्या में तलाशने लगे हैं। यूपी के पश्चिमी अंचल में हरित प्रदेश नाम के अलग राज्य की मांग भी बहुत दिनों से की जा रही है। हालांकि यह इलाका अन्य क्षेत्रों की तुलना में विकसित व संपन्न है लेकिन यहां के लोग प्रशासनिक कें द्र के रूप में लखनऊ को बहुत दूर महसूस करते हैं। इस क्रम में गोरखालैंड का जिक्र भी जरूरी है। यहां के लोग शेष पश्चिम बंगाल से भौगोलिक बनावट, विकास और संस्कृति के स्तर पर कदमताल नहीं कर पाते। विकास का नव-उदारवादी मॉडल अपनाए जाने के बाद विदर्भ, पूर्वाचल और बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों की मुश्किलें और बढ़ी हैं। सरकार द्वारा निवेश का जिम्मा प्रमुखतया निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया है, जो मुनाफे को इसकी आवश्यक शर्त मानता है। इसका नतीजा यह कि कुछेक शहर- क्षेत्र समृद्धि के द्वीप बनते जा रहे हैं और पिछड़े इलाके दरिद्र होते जा रहे हैं। लेकिन आंकड़ों की बाजीगरी में सचाई छुप जा रही है। मुंबई-पुणो की अमीरी की आड़ में विदर्भ, लखनऊनोएडा की आड़ में पूर्वाचल तथा बुंदेलखंड और हैदराबाद की ओट में तेलंगाना की मुफलिसी ढकी जा रही है। इसलिए यदि सरकार सचाई से मुंह चुराने की बजाए जनसंख्या, पिछड़ेपन और भौगोलिक हकीकतों के आधार पर नए राज्यों के गठन पर गंभीरता से विचार करे तो इसमें कुछ गलत नहीं है। वैसे भी लगभग 16 करोड़ की आबादी को समेटे उत्तर प्रदेश जैसे राज्य का पुनर्गठन वक्त की जरूरत लगती है। लेकिन हालिया वक्त में इच्छाशक्ति और टालू रवैये के चलते सरकारें किसी मामले पर तब तक स्वत: पहल नहीं कर रहीं जब तक ऐसा करना मजबूरी न बन जाए। तेलंगाना प्रकरण तो इसका प्रमाण है ही, गुर्जर आरक्षण का मसला भी ज्वलंत उदाहरण है। बहरहाल, यदि सरकार नए राज्यों का गठन कर भी दे तो मात्र इतने से ही उनकी समस्याएं सुलझ जाएंगी, ऐसा सोचना बेमानी है। समस्या की असल जड़ हमारे शासन की खराब गुणवत्ता में निहित है। अलग अस्तित्व के बाद भी झारखंड जैसे राज्यों ने प्रशासनिक बेहतरी का कोई अच्छा उदाहरण अब तक प्रस्तुत नहीं किया है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश की ‘आदर्श’ आर्थिक राजधानी मुंबई के एक तिहाई बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। दो सरकारों की नाक के नीचे दिल्ली में भी गरीबी, बेकारी जैसी समस्याएं मौजूद हैं। ऐसे में राज्य पुनर्गठन के साथ सरकारी मशीनरी को अधिक जिम्मेदार, कुशल और जवाबदेह बनाने की जरूरत है।
Thursday, February 3, 2011
नये राज्यों के गठन के तर्क
निजाम और चारमीनार के शहर के बतौर पहचाना जाने वाला और बदलते समय के साथ देश के आईटी हब के रूप में प्रतिष्ठापित हैदराबाद आजादी के लगभग छह दशक बाद फिर केंद्र सरकार के लिए परेशानी का सबब बन गया है। सर्वविदित है कि केंद्र और आंध्रप्रदेश सरकार की अग्नि परीक्षा का सबब बनी तेलंगाना मसले पर कायम जिच हैदराबाद को लेकर ही नहीं सुलझ पा रही है। हालांकि यदि किसी तरह सरकार तेलंगाना के मसले से पार पाने में सफल रही भी तो उसे राहत की उम्मीद नहीं करनी चाहिए क्योंकि देश के विविध प्रांतों में नए राज्यों की मांग को लेकर संघर्षरत व्यक्तियों-संगठनों की निगाहें इसी पर टिकी हैं कि सरकार तेलंगाना के प्रश्न पर क्या निर्णय लेती है। फिलहाल देश में लगभग आधा दर्जन नए राज्यों की मांग को लेकर लोग मुखर हैं। इसके पीछे विकास में पिछड़ेपन को प्रमुख आधार बनाया जा रहा है। कुछेक नेताओं की सत्ताकांक्षा भी इसके पीछे अहम कारक बन रही है। लेकिन निरपेक्ष आकलन करने पर इन मांगों का प्रमुख कारक शासन की खराब गुणवत्ता ही लगती है और धीरे-धीरे हालात ऐसे बन गए हैं कि लोग इस मर्ज का इलाज पृथक राज्यों के रूप में देखने लगे हैं। तेलंगाना आंदोलन का इतिहास लगभग आजाद भारत के इतिहास जितना ही पुराना है। जब आंध्रप्रदेश अस्तित्व में आया तो तेलंगाना के लोगों से बाकायदा समझौता कर तमाम वादे किए गए। लेकिन समय के साथ उन्हें भुला दिया गया। नतीजा तेलंगाना के लिए कभी मुखर तो कभी मद्धम स्वर में आवाज उठती रही। आज तेलंगानावासियों की शिकायत है कि उनके क्षेत्र में सिचाई, बिजली, उद्योग आदि आधारभूत संरचनाओं के विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। यह सीधे तौर पर शासन की खराब गुणवत्ता के चलते उपजी समस्या है। जाने-अनजाने इसी के चलते तेलंगाना के लोगों में अहसास उभरा कि उनकी अनदेखी हो रही है। परिणामस्वरूप लोग पृथक राज्य से कम पर मानने को तैयार नहीं हैं। यह सही है कि लोगों की इस भावना का प्रतिनिधित्व करने के बदले केसीआर जैसे नेताओं की नजरें अपनी सियासी आकांक्षा पूरी करने पर टिकी हैं। यदि ऐसा न होता तो केसीआर को तेलंगाना की याद तब न आती जब तेलगूदेशम के आंतरिक समीकरणों के चलते उनके चंद्रबाबू नायडू से मतभेद हुए। देश के कई अन्य हिस्सों में भी अलग राज्य की मांग सिर उठा रही है। और कई कसौटियों पर यह जायज भी जान पड़ती हैं। विदर्भ इसका बड़ा उदाहरण है। विकसित सूबे के तौर पर शुमार महाराष्ट्र का यह इलाका बीते सालों में किसानों की कब्रगाह के तौर पर पहचाना जाने लगा है। कपास की सालोंसाल खराब होती फसल और कर्ज के चक्रव्यूह में फंसे किसान हताशा में आत्महंता बनते जा रहे हैं। सरकार के पैकेज ऊंट के मुंह में जीरे से अधिक नहीं हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्वाचल में भी हालात अलग नहीं हैं। 1857 से लेकर स्वतंत्रता मिलने तक आजादी के आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाले वाला यह क्षेत्र बुनकरों-कालीन उद्योग की बदहाली, चीनी मिलों की बंदी और रोजगार की तलाश में विस्थापन के लिए जाना जाता है। दो दर्जन से अधिक लोकसभा और लगभग 150 विधानसभा सीटों को समेटे यह अंचल स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और बिजली सहित सभी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहा है। राज्य का एक अन्य हिस्सा बुंदेलखंड भी इसी दर्द का शिकार है। बीते सालों में मानसून और सरकारों की बेरुखी ने यहां के हालात इतने खराब कर दिए हैं कि विदर्भ की तरह ही यहां के किसान भी मुक्ति का मार्ग आत्महत्या में तलाशने लगे हैं। यूपी के पश्चिमी अंचल में हरित प्रदेश नाम के अलग राज्य की मांग भी बहुत दिनों से की जा रही है। हालांकि यह इलाका अन्य क्षेत्रों की तुलना में विकसित व संपन्न है लेकिन यहां के लोग प्रशासनिक कें द्र के रूप में लखनऊ को बहुत दूर महसूस करते हैं। इस क्रम में गोरखालैंड का जिक्र भी जरूरी है। यहां के लोग शेष पश्चिम बंगाल से भौगोलिक बनावट, विकास और संस्कृति के स्तर पर कदमताल नहीं कर पाते। विकास का नव-उदारवादी मॉडल अपनाए जाने के बाद विदर्भ, पूर्वाचल और बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों की मुश्किलें और बढ़ी हैं। सरकार द्वारा निवेश का जिम्मा प्रमुखतया निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया है, जो मुनाफे को इसकी आवश्यक शर्त मानता है। इसका नतीजा यह कि कुछेक शहर- क्षेत्र समृद्धि के द्वीप बनते जा रहे हैं और पिछड़े इलाके दरिद्र होते जा रहे हैं। लेकिन आंकड़ों की बाजीगरी में सचाई छुप जा रही है। मुंबई-पुणो की अमीरी की आड़ में विदर्भ, लखनऊनोएडा की आड़ में पूर्वाचल तथा बुंदेलखंड और हैदराबाद की ओट में तेलंगाना की मुफलिसी ढकी जा रही है। इसलिए यदि सरकार सचाई से मुंह चुराने की बजाए जनसंख्या, पिछड़ेपन और भौगोलिक हकीकतों के आधार पर नए राज्यों के गठन पर गंभीरता से विचार करे तो इसमें कुछ गलत नहीं है। वैसे भी लगभग 16 करोड़ की आबादी को समेटे उत्तर प्रदेश जैसे राज्य का पुनर्गठन वक्त की जरूरत लगती है। लेकिन हालिया वक्त में इच्छाशक्ति और टालू रवैये के चलते सरकारें किसी मामले पर तब तक स्वत: पहल नहीं कर रहीं जब तक ऐसा करना मजबूरी न बन जाए। तेलंगाना प्रकरण तो इसका प्रमाण है ही, गुर्जर आरक्षण का मसला भी ज्वलंत उदाहरण है। बहरहाल, यदि सरकार नए राज्यों का गठन कर भी दे तो मात्र इतने से ही उनकी समस्याएं सुलझ जाएंगी, ऐसा सोचना बेमानी है। समस्या की असल जड़ हमारे शासन की खराब गुणवत्ता में निहित है। अलग अस्तित्व के बाद भी झारखंड जैसे राज्यों ने प्रशासनिक बेहतरी का कोई अच्छा उदाहरण अब तक प्रस्तुत नहीं किया है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश की ‘आदर्श’ आर्थिक राजधानी मुंबई के एक तिहाई बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। दो सरकारों की नाक के नीचे दिल्ली में भी गरीबी, बेकारी जैसी समस्याएं मौजूद हैं। ऐसे में राज्य पुनर्गठन के साथ सरकारी मशीनरी को अधिक जिम्मेदार, कुशल और जवाबदेह बनाने की जरूरत है।
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