लेखक घपले-घोटालों पर निष्कि्रयता के संदर्भ में प्रधानमंत्री की सफाई को असंतोषजनक मान रहे हैं…
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का वक्तव्य सुनने के बाद इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना मुश्किल हो गया है कि उन्होंने टेलीविजन चैनलों के संपादकों के साथ बातचीत करने का निर्णय क्यों किया? इस बातचीत के पूर्व भ्रष्टाचार, महंगाई आदि मामलों पर सरकार के रवैये और विशेषकर प्रधानमंत्री की भूमिका पर जो प्रश्न खड़े थे उनका अगर कुछ हद तक भी समाधान होता तो यह कहा जा सकता था कि उनका यह निर्णय बिल्कुल सही था। क्या कोई यह कह सकता है कि प्रधानमंत्री की इस कवायद के बाद आम मनोविज्ञान में किसी प्रकार का गुणात्मक अंतर आया है? जाहिर है, अगर प्रधानमंत्री, सरकार, कांग्रेस पार्टी एवं उसके रणनीतिकार इससे भ्रष्टाचार एवं महंगाई तथा राजनीतिक अनिश्चितता को लेकर देश में कायम मनोविज्ञान को बदलने की दिशा में कुछ चाहते थे तो वैसा नहीं हुआ। हां, इससे पहले से ही कायम दो धारणाएं फिर से साबित हुईं। एक, भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्रवाई की दिशा में कोई मूलभूत अंतर नहीं आने वाला और दो, मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री का पद अभी नहीं त्यागने वाले हैं। सब जानते हैं कि उनके पद त्यागने की खबर अभी एक अफवाह से ज्यादा नहीं है। राजनीतिक अनिश्चितता की आशंका तो लगातार भ्रष्टाचार के उभरते मामलों के सामने सरकार की लाचार छवि के कारण बनी है। प्रधानमंत्री के पूरे वक्तव्य से इसका समाधान न होना चिंताजनक है। बेशक, इस कथन में उनकी पीड़ा झलकती हैं कि भारत के बारे में यह धारणा बन रही है कि यह भ्रष्टाचार उन्मुख देश है। इससे भारत के लोगों का आत्मविश्वास कमजोर हो रहा है। प्रधानमंत्री ने परोक्ष रूप से ऐसी छवि निर्मित करने एवं आम जन का आत्मविश्वास डिगाने का आरोप विपक्ष एवं मीडिया पर लगाया है। कोई छवि हवा में नहीं बनती, उसका कुछ आधार होता है। एक के बाद एक भ्रष्टाचार के मामले सामने आना और सरकार की ओर से गोलमटोल प्रतिक्रिया के बाद भारत के बारे में कोई अच्छी धारणा नहीं बन सकती है। प्रधानमंत्री ने कहा कि मीडिया को मेरा विशेष संदेश यह है कि नकारात्मक मुद्दों पर ज्यादा फोकस नहीं करें। उनका कहना था, आइए हम मिलकर आत्मविश्वास की भावना को पुन: शक्ति दें, हमारे पास समस्याओं पर काबू करने के लिए प्रभावी मशीनरी है। प्रधानमंत्री यह भूल गए कि जैसा वह चाहते हैं, मीडिया का वैसा स्वर बनाने के लिए उन्हें उसके पक्ष में सबल तर्क, तथ्य और भावी कार्ययोजना लानी होगी। इसमें वह सफल नहीं रहे। उन्होंने यह आश्वासन अवश्य दिया कि कि चाहे कोई कितने बड़े पद पर हो, हमारी सरकार उसे कानून के कठघरे में लाने के लिए पूरी तरह गंभीर है, बहुत ज्यादा उम्मीद इसलिए नहीं जगाता, क्योंकि ऐसा वह पहले भी कह चुके हैं। पूर्व दूरसंचार मंत्री ए. राजा संबंधी प्रश्न का उनका उत्तर ही उनकी लाचारी को प्रमाणित कर देता है। राजा को मंत्री बनाने के प्रश्न पर उनका जवाब था कि हम एक गठबंधन सरकार चला रहे हैं और गठबंधन की कुछ विवशताएं होती हैं। जाहिर है कि जब तक यह सरकार है, गठबंधन की मजबूरी हमेशा बनी रहेगी। इसमें प्रधानमंत्री को यदि कोई लाचार कह रहा है तो उसे कैसे गलत कहा जाए। अगर 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन में प्रधानमंत्री ने ए. राजा को पत्र लिखा और फिर भी उन्होंने नीति नहीं बदली तो इसे क्या कहा जाए? उनके ही वक्तव्य से यह प्रतिध्वनि निकलती है कि इस सरकार में अनेक निर्णय मंत्रिमंडल को बाहर रखकर मंत्रियों एवं अधिकारियों द्वारा लिए गए। सवाल यह है कि क्या पत्र लिख देने भर से प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है? सरकारी अधिकारी यही करते हैं। अपने सिर कोई जिम्मेदारी नहीं आए, इसलिए वे कागजी लिखा-पढ़ी को ठीक बनाए रखते हैं। प्रधानमंत्री का रवैया ऐसा ही हैं। वह एक सरकारी अधिकारी नहीं जो पत्रों की औपचारिक खानापूर्ति से अपना गला बचा ले, वह देश के नेता हैं और उन्हें अपनी जिम्मेदारी स्वीकारनी चाहिए। अब आइए संसद के गतिरोध की ओर। देश यह जानना चाहता था कि प्रधानमंत्री इस संबंध में क्या कुछ नया कहते हैं? लेकिन उनका कथन केवल पूर्व कथन का दोहराव भर ही रहा। संसद की विधायी भूमिका का ठप हो जाना संसदीय लोकतंत्र वाले किसी देश के लिए अहितकर है, किंतु संसद का कार्य सुचारु रुप से चले, इसके लिए प्रधानमंत्री ने किसी नई पहल का जिक्र नहीं किया। प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि विपक्ष क्यों ऐसा कर रहा है, यह उनकी समझ से परे है। इस प्रकार की भाषा पर विपक्ष की सकारात्मक प्रतिरिया तो नहीं हो सकती। एक ओर वह संसद के सामान्य संचालन के लिए विपक्ष के साथ बातचीत की सूचना देते हैं और दूसरी ओर उसके रवैये को नासमझीभरा भी बताते हैं। इन स्थितियों में समझौता आसान नहीं होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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