Sunday, February 20, 2011

गठबंधन की गैरजरूरी ढाल


लेखक भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के संदर्भ में प्रधानमंत्री ने जो विवशता दिखाई उससे असहमति जता रहे हैं
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद के बजट सत्र के ठीक पहले मीडिया के साथ एक लंबी बातचीत में घपलों-घोटालों को लेकर जो सफाई दी उससे यह भी स्पष्ट हुआ कि वह स्थितियों को ठीक करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। मनमोहन सिंह साफ-सुथरी छवि वाले दुर्लभ राजनेता हैं। उनका अधिकांश जीवन अर्थशास्त्री के रूप में व्यतीत हुआ है। राजनीति में उनका प्रवेश संभवत: इस भावना के साथ हुआ होगा कि एक राजनेता के रूप में वह हालात सुधारने में कहीं अधिक सक्षम हो सकते हैं। उन्होंने यह साबित भी किया। प्रधानमंत्री नरसिंह राव के कार्यकाल में वित्तमंत्री के रूप में उन्होंने आर्थिक सुधार के जो कार्यक्रम लागू किए उनकी दुहाई आज भी दी जाती है। मौजूदा आर्थिक नीतियां मूलत: उनके सुधारों की देन हैं। उनकी इस क्षमता और ईमानदार नेता की छवि को देखते हुए ही कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में चुना। अभी भी उन्हें सोनिया गांधी का पूरा समर्थन प्राप्त है, लेकिन वह खुद को मजबूर पा रहे हैं। वह भ्रष्ट तत्वों पर लगाम लगाने और घपले-घोटालों को नियंत्रित करने में असफल साबित हुए हैं। इसे उन्होंने स्वीकार भी किया। एक के बाद एक घोटालों में सरकारी तंत्र की लिप्तता से उनका खीझना स्वाभाविक है, लेकिन इससे काम चलने वाला नहीं है। जब 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला सामने आया तो कांग्रेस एवं केंद्र सरकार ने पहले उस पर लीपापोती करने की कोशिश की और जब यह महसूस हुआ कि पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा है तो संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की विपक्ष की मांग स्वीकार कर ली। यही नहीं स्वयं प्रधानमंत्री ने मीडिया के सामने आकर स्पष्टीकरण दिया, लेकिन 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में वह अभी भी सच्चाई स्वीकार करते नहीं दिख रहे हैं। उन्होंने जिस तरह भ्रष्टाचार के लिए गठबंधन राजनीति की आड़ ली उससे आम जनता के बीच यही संदेश गया कि यदि गठबंधन सरकार चलानी है तो कहीं न कहीं समझौते भी करने पड़ेंगे। आखिर यह क्या बात हुई? लोगों के लिए यह समझना कठिन है कि ईमानदार नेता की मिसाल बने मनमोहन सिंह भ्रष्टाचार के मामले में ऐसी मजबूरी क्यों दिखा रहे हैं? वह इसके पहले यह कह चुके हैं कि गठबंधन सरकार चलाना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है, लेकिन इस तरह की सरकारें तो पहले भी रही हैं। सवाल यह भी है कि सत्ता की कुर्सी पर बैठे रहना जरूरी है अथवा भ्रष्टाचार को सहन करना? प्रधानमंत्री के इस तर्क से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि समझौते न करने की स्थिति में हर छह महीने में चुनाव हो सकते हैं। वर्तमान युग गठबंधन राजनीति का है और यदि प्रधानमंत्री का यह कथन सही है कि गठबंधन राजनीति में छोटे दल राष्ट्रीय दलों पर दबाव डालकर मनमानी कर रहे हैं तो यह भयावह स्थिति है। इस स्थिति को तत्काल प्रभाव से दूर किया जाना चाहिए। गठबंधन राजनीति के लिए ऐसे कायदे-कानून बनाने चाहिए जिससे सरकार भी स्थिर रहे और गठबंधन में भागीदार दल मनमानी न करने पाएं। इसके लिए संविधान में संशोधन की आवश्यकता हो तो भी ऐसा किया जाना चाहिए। गठबंधन राजनीति के कायदे-कानून बनाने की आवश्यकता सबसे अधिक स्वयं प्रधानमंत्री को महसूस करनी चाहिए, जो यह कह रहे हैं कि गठबंधन सरकार चलाते समय समझौते करने पड़ते हैं। क्या वह इसके लिए कोई पहल करेंगे या फिर गठबंधन राजनीति की खामियों का सामना करते रहेंगे? गठबंधन राजनीति के नियम-कानून बनाने की पहल सत्तापक्ष के साथ विपक्ष और विशेष रूप से भाजपा को भी करनी चाहिए। वह यह दावा नहीं कर सकती कि राजग शासन के समय में उस पर अपने घटक दलों का दबाव नहीं था। गठबंधन सरकार की कठिनाइयों से परिचित होते हुए भी भाजपा घपलों-घोटालों पर राजनीति अधिक कर रही है। वह सरकार पर दबाव डालकर यह संदेश देना चाहती है कि केंद्रीय सत्ता भ्रष्ट है, ताकि राजनीतिक लाभ उठाया जा सके। क्या भाजपा यह गारंटी ले सकती है कि उसके द्वारा शासित राज्य भ्रष्टाचार से अछूते हैं? हो सकता है भाजपा को दोबारा केंद्र सरकार की सत्ता चलाने का अवसर मिले और तब उसके सामने वैसी ही स्थितियां बन सकती हैं जैसी आज कांग्रेस के समक्ष हैं। इन स्थितियों में दोनों राष्ट्रीय दलों के लिए यही हितकारी होगा कि वे गठबंधन राजनीति को नियम-कानूनों के दायरे में लाने की कोई ठोस पहल करें? ध्यान रहे गठबंधन राजनीति के मौजूदा स्वरूप के कारण अनेक ज्वलंत समस्याओं का समाधान नहीं हो पा रहा है। इन समस्याओं के समाधान में गठबंधन सरकार में शामिल दल ही आड़े आ जाते हैं। ऐसे दलों के कारण सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सुधार संबंधी अनेक जरूरी कार्यक्रम लागू नहीं हो पा रहे हैं। राष्ट्र के समक्ष उपस्थित गंभीर मुद्दों का समाधान न होने पाने का एक कारण कांग्रेस और भाजपा के रिश्ते भी हैं। अनेक मुद्दों पर दोनों दलों में सहमति बन सकती है, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा। भाजपा ने ऐसे अनेक मुद्दों पर कांग्रेस का ध्यान आकर्षित करने के साथ ही उसका सहयोग करने की पेशकश की है, लेकिन कई बार कांग्रेस ऐसा रवैया प्रदर्शित करती है जैसे वह अकेले ही राष्ट्र की समस्याओं का समाधान कर लेगी। उसे अपने इस रवैये पर पुनर्विचार करना चाहिए। यदि मौजूदा व्यवस्था पटरी से उतरती दिख रही है तो उसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार कांग्रेस है। जहां तक भ्रष्टाचार की बात है तो इसे विस्मृत नहीं किया जा सकता कि यह कोई नई समस्या नहीं। सच तो यह है कि 2जी स्पेक्ट्रम जैसे कई घोटाले सरकारी फाइलों में दबे हो सकते हैं। शायद ही कोई सरकारी योजना हो जो घपले-घोटाले का शिकार न बनती हो, लेकिन समस्या यह है कि व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की कोई ठोस पहल नहीं हो रही। यही कारण है कि प्रधानमंत्री के आश्वासन के बावजूद यह नहीं प्रतीत होता कि वह घपले-घोटालों को रोकने वाली व्यवस्था का निर्माण कर सकेंगे। बेहतर होगा कि जिस साहस के साथ उन्होंने मीडिया के समक्ष स्वयं को प्रस्तुत किया उसी साहस का परिचय वह राजनीतिक सुधारों को आगे बढ़ाने के मामले में भी दें, जिससे देश भ्रष्टाचार के कलंक से मुक्त हो सके। प्रधानमंत्री की ऐसी किसी पहल को विपक्ष का भी समर्थन मिलना चाहिए। भ्रष्टाचार से न तो अकेले सत्तापक्ष निपट सकता है और न ही विपक्ष। यह तो वह बुराई है जिसका सामना दोनों पक्ष मिलकर ही कर सकते हैं।


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