Monday, February 7, 2011

विचलित करने वाला मौन


लेखक भ्रष्टाचार पर शासकों की खामोशी और निष्कि्रयता को राजधर्म के उल्लंघन के रूप में देख रहे हैं

2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की समस्याएं फिलहाल खत्म नहीं होने वाली हैं। कपिल सिब्बल सोचते हैं कि वह अपने इस चतुराई भरे तर्क से मनमोहन सिंह का बचाव कर लेंगे कि नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग की रिपोर्ट में जिस बात का इशारा किया गया है वैसा कुछ नहीं है और देश का धन किसी ने नहीं लूटा है। इस तरह कपिल सिब्बल ने मामले को और उलझाने का काम किया, जिस कारण सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करते हुए कहना पड़ा कि वह न्यायिक जांच में हस्तक्षेप कर रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। इस बारे में 21 जनवरी को जस्टिस जीएस सिंघवी और एके गांगुली की न्यायिक पीठ ने कहा कि मंत्री महोदय को अनिवार्य रूप से अपने उत्तरदायित्व के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए। वास्तव में सरकार द्वारा चुप्पी साधे रखना ही 2जी स्पेक्ट्रम मामले में वर्तमान राजनीतिक संकट की मूल वजह बना। यही वह कारण है कि अभी तक गतिरोध बना हुआ है और संसद का एक पूरा सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया। ईमानदार प्रधानमंत्री पर अब भारतीय जनता का गुस्सा तेजी से बढ़ रहा है, जो संभवत: हाल के भारतीय इतिहास में सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार के मुखिया के पद पर बैठे हुए हैं। अंधकारपूर्ण वर्तमान हालात में देश की जनता खिन्न और निराश है और वह अब एक ऐसे ईमानदार व्यक्ति से छुटकारा पाना चाहती है जो अपने आसपास के बेईमान लोगों पर अंकुश नहीं लगा सका। यह वही मनमोहन सिंह हैं जिन्हें एक समय जनता एक नि:स्वार्थ और नैतिक व्यक्ति के रूप में देखती थी। कुछ ऐसे ही महाभारत में भीष्म भी थे। वह तब भी मौन रहे जब द्रौपदी का चीर हरण किया जा रहा था। दु:शासन द्वारा अपमानित होने के कारण द्रौपदी क्रुद्ध हुई और उसने शासकों के धर्म के बारे में सवाल उठाए, लेकिन तब सभागार में बैठे राजपरिवार के किसी भी सदस्य ने उसे उत्तर नहीं दिया और हर कोई शांत बना रहा। उस समय विदुर ने तिरस्कार भाव से मौन की अनैतिकता का सवाल उठाया और सभागार में बैठे लोगों को लताड़ लगाई। उस समय विदुर ने किसी अपराध के घटित होने पर आधा दंड दोषी को दिए जाने, एक तिहाई दंड सहयोगियों अथवा इस तरह के कृत्य में शामिल होने वालों के लिए और शेष एक तिहाई दंड मौन रहने वालों के लिए बताया था। 2जी घोटाले में हमारे प्रधानमंत्री की चुप्पी बहुत गहरे तक हमें मथने वाली अथवा परेशान करने वाली है। सितंबर 2007 में पूर्व संचार मंत्री ए. राजा ने जब स्पेक्ट्रम आवंटन की दोषपूर्ण नीति घोषित की तो प्रधानमंत्री इसमें चोरी-छिपे बड़े पैमाने पर होने वाले अपराध को भांप गए थे। इसीलिए उन्होंने ए. राजा द्वारा घोषित की गई नीति पर ऐतराज करते हुए अपनी तरफ से एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने उनसे पारदर्शी नीति बनाने और उसे अपनाने के बारे में कहा था। तब ए. राजा ने खुद का बचाव करते हुए उन्हें तत्काल जवाब भी दिया। 3 जनवरी, 2008 को प्रधानमंत्री ने इस पत्र के मिलने की पुष्टि की और इस नीति को अपनी स्वीकृति देने की बात भी स्वीकार की। इस तरह ए. राजा को स्पेक्ट्रम लाइसेंस आवंटन के मामले में आगे बढ़ने की दिशा मिली। मई, 2010 में प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया कि ए. राजा ने वास्तव में उन्हें पत्र लिखकर सूचित किया था। सवाल यह है कि आवंटन नीति पर आपत्ति उठाने के बाद प्रधानमंत्री चुप क्यों हो गए? यही वह सवाल जिसका उत्तर भारतीय जनता अब जानना चाहती है। इस संकट में प्रधानमंत्री के मौन के अतिरिक्त एक अन्य विचलित करने वाला पहलू भी है। सफलता के संदर्भ में हमारी धारणा भी दांव पर लगी हुई है। ए. राजा ने इस धारणा को कमजोर करने की कोशिश की है। हाल तक राजा दुनिया की निगाहों में एक भारी सफलता के उदाहरण थे। उनके पास शक्ति थी, पैसा था, रुतबा था। इसके बाद उनका पतन शुरू हुआ। सवाल यह है कि सफलता के लिए हम कितनी कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं? क्या यह संभव है कि हम सफल भी हो जाएं और अच्छे भी बने रहें। एक व्यक्ति जो ईमानदार और दयालु है उसे केवल इन गुणों के आधार पर ही ऊंचे दर्जे पर क्यों नहीं रखा जा सकता? राजा का उदय और पराभव प्रत्येक भारतीय माता के समक्ष आने वाली उस दुविधा को रेखांकित करता है जिसे अपने बच्चे को कोई नाम देना है। पश्चिम में हर किसी को टाम, डिक और हैरी नाम मिल जाता है, लेकिन अपने देश में माता-पिता बच्चे का नाम तय करने में महीनों का समय लगाते हैं। इसलिए, क्योंकि वे इस नामकरण के साथ एक प्रकार से अपने बच्चे का भविष्य और भाग्य तय कर रहे होते हैं। सफलता और अच्छाई के बीच फंसे वे स्पष्ट रूप से सफलता को चुनते हैं। यही कारण है कि अपने देश में हर पांचवें बच्चे का नाम अर्जुन होता है और युधिष्ठिर आपको ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे। राजा ने हमें पूरी दुनिया के सामने नीचा दिखाया है। हालांकि हम हमेशा से अपनी एक भद्दी सच्चाई को जानते रहे हैं। भारत में भ्रष्टाचार बच्चे के जन्म लेते ही आरंभ हो जाता है। आपको जन्म प्रमाणपत्र हासिल करने के लिए किसी को रिश्वत देनी पड़ती है। यह सिलसिला उसकी मौत तक चलता रहता है, जब मृत्यु प्रमाण पत्र के लिए एक बार फिर किसी की जेब भरनी पड़ती है। यह समझना मुश्किल है कि महान विचारों के साथ जन्म लेने वाले देश में आखिर इतना भ्रष्टाचार कैसे आ गया? हम माता-पिता को इसका दोष नहीं दे सकते कि वे अपने बच्चे को सफल होते देखना चाहते हैं, लेकिन वे अपने बच्चों को सही कार्य करने की शिक्षा तो दे ही सकते हैं। उन्हें अपराध के समय शांत न रहने की नसीहत दी जा सकती है। इसके साथ ही शासन के संस्थानों में अपरिहार्य हो चुके सुधारों को लागू करके भी भ्रष्टाचार को कम किया जा सकता है। द्रोपदी के सवाल इसलिए प्रशंसनीय थे, क्योंकि उसने राजधर्म पर जोर दिया था। यह आश्चर्यजनक है कि हम अपनी ऊर्जा राजनीतिक वामपंथ और दक्षिणपंथ के विभाजन पर बहस करते हुए खर्च करते हैं, जबकि बहस सही और गलत के विभाजन पर होनी चाहिए। मनमोहन सिंह इसे समझते हैं। यही कारण है कि 2004 में सत्ता में आने के बाद उन्होंने प्रशासनिक सुधार के साथ भ्रष्टाचार पर चोट करने का भरोसा व्यक्त किया था, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सके। सुधार कभी आसान नहीं होते-यह बिल्कुल कुरुक्षेत्र में युद्ध करने के समान होता है, फिर भी यह करना ही होता है। हमारे शासक यदि अभी भी सक्रियता दिखाने से इनकार करते हैं तो उन्हें भी पतन के लिए तैयार रहना चाहिए। फ्रांस के शासकों ने भी जनता का विश्वास खो दिया था और 1789 में ऐसे ही पतन का शिकार हुए थे। (लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं)



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