Thursday, February 3, 2011

खतरे की नई घंटी


पहले से ही विपक्ष के दबाव से परेशान सत्तापक्ष के समक्ष यह मांग एक नई खतरे की घंटी है कि बजट सत्र सुचारु रूप से चलाने के लिए 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर संयुक्त संसदीय समिति गठित करने के साथ ही केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस को हटाया जाए। भाजपा की यह नई मांग इस बात का परिचायक है कि उसने सत्तापक्ष पर दबाव और बढ़ा दिया है। संभवत: उसे यह अहसास हो चुका है कि केंद्र सरकार अपनी साख बचाने के लिए हाथ-पांव मार रही है। यह आश्चर्यजनक है कि विपक्षी दल सत्तापक्ष पर अपना दबाव लगातार बढ़ाते जा रहे हैं, लेकिन वह ऐसे संकेत दे रहा है जैसे कुछ हुआ ही न हो। यह तब है जब उसे विपक्ष के साथ-साथ आम जनता के सवालों के जवाब भी नहीं सूझ रहे हैं। केंद्रीय सत्ता को अब तक यह प्रतीति हो जानी चाहिए कि विपक्ष के सवालों में आम जनता की भावनाएं भी निहित हैं। उसे केवल विपक्ष ही नहीं, बल्कि आम जनता को भी संतुष्ट करना है। विडंबना यह है कि उसके समक्ष ऐसे सवाल बढ़ते जा रहे हैं जिनका जवाब देना इसलिए मुश्किल हो रहा है, क्योंकि केंद्रीय सत्ता के नीति-नियंता ठोस फैसले लेने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं और इसका ताजा प्रमाण है पीजे थॉमस के मामले में कांग्रेस और साथ ही केंद्र सरकार की किंकर्तव्यविमूढ़ता। केंद्र सरकार केवल 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन से ही नहीं घिरी, बल्कि वह आदर्श सोसाइटी घोटाले और राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान की गई लूट संबंधी सवालों से भी दो चार है। केंद्र सरकार किस तरह एक मामले से निपटने के पहले ही दूसरे के सामने आ खड़ी होती है, इसका ताजा उदाहरण काले धन का मुद्दा है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि काला धन जमा करने वालों के नाम-पते जानना और इस धन को वापस लाना आसान कार्य नहीं, लेकिन यह निराशाजनक है कि केंद्र सरकार ने अपने आचरण से देश-दुनिया को यह संदेश देने की कोशिश की कि इस मामले में कुछ विशेष नहीं किया जा सकता। शायद यही कारण है कि उसे उच्चतम न्यायालय के कुछ कठिन सवालों का सामना करना पड़ा। उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी से यह स्पष्ट हुआ कि केंद्र सरकार ने संसद में आश्वासन देने के बावजूद उन लोगों की खोज-खबर लेने की कोशिश नहीं की जिन्होंने काला धन विदेशी बैंकों में जमाकर रखा है और जिनके नाम-पते भी उसे हासिल हो गए हैं। उच्चतम न्यायालय ने यह बिल्कुल सही कहा कि आखिर यह पता करने की कोशिश क्यों नहीं की गई कि इन लोगों की आय के Fोत क्या हैं? यह निराशाजनक ही नहीं, बल्कि चिंताजनक है कि इस सवाल का जवाब खोजने के बजाय सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। ध्यान रहे कि उसने कुछ ऐसा ही नीरा राडिया टेप प्रकरण में भी किया था और स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले तथा राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घपले-घोटाले के मामलों में भी। इन सभी ज्वलंत मुद्दों पर केंद्रीय सत्ता के आचरण से आम जनता इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए विवश है कि वह शासन करने की इच्छाशक्ति खोती जा रही है। यदि ऐसी सरकार पर विपक्षी दलों का दबाव लगातार बढ़ता जाए तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं।



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