Monday, February 28, 2011

बयानबाजी की राजनीति


युवा अकाली दल के सरपरस्त और विधायक विक्रमजीत सिंह मजीठिया ने यह कहकर पंजाब की राजनीति में भूचाल ला दिया है कि वह पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर सिंह का सिर कलम करने के लिए अकेले ही काफी हैं तथा इसके लिए उन्हें उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल की मदद लेने की आवश्यकता नहीं होगी। यह बयान उन्होंने अमृतसर में एक बस अड्डे के उद्घाटन समारोह में अपने संबोधन में दिए। हालांकि बाद में जब उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि उन्होंने अनुचित बयानबाजी कर दी है तो उन्होंने इसे सुधारने की कोशिश की और कहा कि उनका मंतव्य कैप्टन अमरिंदर सिंह के सियासी कत्ल से था, लेकिन तब तक ब्यास में काफी पानी बह चुका था। उनका बयान अखबारों की सुर्खियां बन चुका था और उस पर कांग्रेसियों की प्रतिक्रियाएं भी आने लगी थीं। कई कांग्रेस नेताओं ने मजीठिया को चुनौती तक दे डाली कि जहां मजीठिया चाहें, वे पहुंचने के लिए तैयार हैं। इस पर सबसे ताजा टिप्पणी होशियारपुर से सांसद संतोष चौधरी की थी। उन्होंने इसकी न केवल जमकर आलोचना की, बल्कि मजीठिया के खिलाफ कई गंभीर आरोप भी लगाए। जैसा कि राजनीति का चलन बनता जा रहा है, ऐसे मौकों पर छुटभैया नेता बड़े नेताओं से भी अधिक तेजी दिखाते हैं, यहां भी वैसा ही हुआ। ऐसे ही कुछ नेताओं ने मजीठिया के विरुद्ध आपत्तिजनक शब्द कहे और कुछ स्थानों पर उनके पुतले भी फूंके गए। तात्पर्य यह कि उनकी सफाई से अधिक उनके बयान ने रंग दिखाया और राजनीति में एक तनाव का माहौल बन गया। कदाचित इस मामले को यदि समय रहते न संभाला गया होता तो इसके भी अवांछित परिणाम निकलते। इस बात की व्याख्या की आवश्यकता नहीं है कि लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में हिंसा का कोई स्थान नहीं होता है। चाहे वह व्यावहारिक रूप में हो या वक्तव्य के रूप में। मजीठिया का मंतव्य चाहे कुछ भी रहा हो, किंतु जिस प्रकार के शब्दों का प्रयोग उन्होंने किया उससे कम से कम हिंसा का बोध तो होता ही है। राजनीति में इस प्रकार के वक्तव्य से किसी प्रकार के सकारात्मक परिणाम की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। ऐसी ही बातें आगे चलकर बड़ी हिंसक घटनाओं का कारण बनती हैं। यही कारण है कि हर चुनाव के दौरान मार-काट और हत्या जैसी घटनाएं होती हैं। यह भाषा राजनीतिकों की न होकर बाहुबलियों की होती है। इसमें संदेह नहीं कि मजीठिया भले ही राजनीति में अपरिपक्व हों, लेकिन वह बाहुबली तो नहीं ही हैं। वह मंत्री रह चुके हैं और अपने कार्यकाल में अच्छा प्रदर्शन भी कर चुके हैं। विक्रमजीत सिंह मजीठिया के बयान की गंभीरता को सुखबीर सिंह बादल ने उसी समय भांप लिया और बाद में इस पर जिस प्रकार की सधी हुई प्रतिक्रिया उन्होंने व्यक्त की, उससे सहज ही उनके मंजे हुए राजनेता का अहसास होता है। सुखबीर सिंह बादल सांसद रह चुके हैं और प्रदेश के उपमुख्यमंत्री भी हैं। पंजाब की राजनीति में उन्हें प्रकाश सिंह बादल के वारिस के तौर पर देखा जाता है। उन्होंने मजीठिया के बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि वह व्यक्तिगत कटाक्ष पर विश्वास नहीं करते हैं। सुखबीर सिंह बादल की टिप्पणी यह जाहिर करती है कि उन्हें जनता के मिजाज की सही समझ और उसकी नब्ज की पहचान है। धरातल की सच्चाई भी यही है कि जनता राजनीति में इस प्रकार की उत्तेजक बयानबाजी और भड़काऊ भाषणों को पसंद नहीं करती है। वह राजनेताओं से जनहित के कामों की अपेक्षा करती है और उसके पूरा न होने पर उन्हें खारिज कर देती है। इसका उदाहरण कई राज्यों में देखने को मिल चुका है। सर्वाधिक ताजा उदाहरण बिहार का है, जहां नीतीश कुमार को जनता दोबारा सत्ता में आने का अवसर मात्र उनके काम को देखते हुए ही दिया, जबकि उनके प्रखर प्रतिद्वंद्वी लालू प्रसाद यादव अपनी बयानबाजी के कारण ही प्रदेश की राजनीति में हाशिये पर चले गए। वैसे मजीठिया ने जिस प्रकार के शब्दों का प्रयोग सार्वजनिक रूप से किया, वे प्रदेश के लिए नए नहीं हैं। कांग्रेस के अनेक नेता भी पूर्व में इसी प्रकार की भाषा का इस्तेमाल करते रहे हैं। स्वयं कैप्टन अमरिंदर सिंह भी कई बार आम सभाओं में बादल पिता-पुत्र पर आपत्तिजनक टिप्पणी कर चुके हैं। यही कारण है कि दोनों के बीच निजी मुकदमे बाजी भी हो चुकी है। किंतु अब समय काफी बदल चुका है और मतदाता काफी जागरूक हो चुके हैं। उसे राजनेताओं की आपसी लड़ाइयों से कुछ भी लेना-देना नहीं होता है। यह बात कुछ राजनेता समझ भी रहे हैं, किंतु ऐसे नेताओं की संख्या बेहद कम है। अधिकांश नेता इसी भुलावे में हैं कि वे भड़काऊ भाषणों से जनता को बरगला कर अपना उल्लू सीधा कर सकते हैं। उनका यही भ्रम लोकतंत्र को हिंसा की ओर धकेल रहा है। पंजाब भी इससे अछूता नहीं है। यहां भी चुनावों के दौरान हिंसा की घटनाएं हो चुकी हैं। इसमें संदेह नहीं कि राजनेताओं के मुंह से निकला हर शब्द दूर तक प्रभाव छोड़ता है। नेताओं के बयान के आधार पर ही कार्यकर्ता अपनी रणनीति तय करते हैं। कुछ स्थानीय नेता तो बड़े नेताओं के बयान को ही पार्टी की नीति समझ कर उसी दिशा में आगे बढ़ने लगते हैं। यही कारण है कि बड़े नेताओं के निरर्थक बयान पार्टी की छवि भी खराब करते हैं। जहां तक विक्रमजीत सिंह मजीठिया का सवाल है तो उनका सौभाग्य है कि उनकी पार्टी में उनकी गलतियों को सुधारने के लिए सुखबीर बादल जैसा नेता मौजूद है, अन्यथा अन्य राजनीतिक दलों में तो किसी नेता के ऐसे बयान का सियासी लाभ पार्टी में मौजूद अन्य नेता ही उठा लेते हैं और बयान देने वाला हाशिये पर धकेल दिया जाता है। अब समय आ गया है, जब नेताओं को समय की रफ्तार को समझना होगा और यह स्वीकार करना होगा कि उनका काम ही उनके राजनीतिक भविष्य को तय करेगा, क्योंकि यही राजनीति की मुख्य धारा बन रही है। जनता की पसंद-नापसंद का पैमाना बेहतर काम ही है और जो नेता इसकी उपेक्षा करते हैं उन्हें जनता रद्दी की टोकरी में डाल देती है। नेताओं को भावनात्मक मुद्दे उठाने के बजाय अपने क्षेत्र के विकास के लिए काम करना चाहिए। जिस राज्य में विकास होगा, वहां की जनता खुश रहेगी और अपने नेता को प्यार भी करेगी। किसी भी राजनीतिक दल को लंबे समय तक जीवित और दमदार बनाए रखने का सूत्र भी यही है कि उसके नेता जनहित को प्राथमिकता दें और निजी विवादों से दूर रहें। लोकप्रिय नेता भी वही होता है, जिसके नाम के साथ कोई विवाद नहीं जुड़ा होता है। सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके भारतीय जनता पार्टी के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी इसके साक्षात उदाहरण हैं। (लेखक दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं)

बसपा को रोकेगी बसपा कांशीराम


 आगामी विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मायावती की बसपा की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। उनके खिलाफ बसपा (कांशीराम) सक्रिय होने जा रही है। बसपा संस्थापक स्वर्गीय कांशीराम के भाई दलबारा सिंह व भतीजी सुरविंद्र कौर 15 मार्च को सहारनपुर के गंगोह क्षेत्र में दलितों के सम्मेलन में शिरकत कर इसका श्रीगणेश करेंगे। इसे लेकर अभी से पश्चिमी यूपी के बसपा नेताओं में हलचल पैदा हो गई है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा को चुनौती देने के लिए इस बार बसपा संस्थापक स्व. कांशीराम के भाई दलबारा सिंह व भतीजी कु. सुरविंद्र कौर ने कमान संभाली है। कांशीराम का परिवार बसपा सुप्रीमो मायावती पर कांशीराम के बताए मार्गो का अनुसरण न करने का आरोप लगाता रहा है। यही नहीं कांशीराम के छोटे भाई दलबारा सिंह ने बहुजन संघर्ष पार्टी (कांशीराम) का गठन किया है। अभी तक यह पार्टी हरियाणा व पंजाब में सक्रिय रही है। बसपा (कांशीराम) ने 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव में बसपा को किनारे लगाने की तैयारी कर ली है। पार्टी पश्चिमी यूपी में अपने उम्मीदवार खड़े करने की योजना बना रही है। इसके लिए तैयारियां भी शुरू हो गई हैं। पश्चिमी यूपी में बसपा को मात देने के लिए उसके मूल वोट बैंक दलित पर ही चोट करने की तैयारी की जा रही है। पार्टी के कार्यक्रमों की शुरुआत कांशीराम के 77वें जन्म दिवस 15 मार्च को गंगोह में आयोजित दलित महासम्मेलन के जरिए की जाएगी। मान्यवर कांशीराम विचार चेतना समिति के तत्वावधान में आयोजित इस कार्यक्रम में भारी संख्या में दलितों को बुलाया गया है। इसमें कांशीराम के भाई दलबारा सिंह व उनकी भतीजी सुरविंद्र कौर मुख्य अतिथि के तौर पर पहुंच रही हैं। महासम्मेलन की अगुआई वे दलित कर रहे हैं, जो बसपा के घोर विरोधी रहे हैं। महासम्मेलन के जरिये बसपा कांशीराम पार्टी के नेताओं का उद्देश्य अपने ताकत को टोह लेने का है। इसके साथ ही वे बसपा के खिलाफ अपने प्रत्याशी मैदान में उतरने की घोषणा करेंगे। महासम्मेलन में कभी मुख्यमंत्री के खास और आज घोर विरोधी पूर्व सांसद ईसम सिंह भी मौजूद रहेंगे। भले ही गंगोह में होने वाले कार्यक्रम को महासम्मेलन का नाम दिया गया हो, पर इसकी तैयारी महारैली की मानिंद हो रही है। ऐसे में यहां के बसपा नेताओं में इस बात को लेकर बेचैनी बढ़ गई है। वह मान रहे हैं कि भले ही बसपा (कांशीराम) सीट न जीत सके, पर बसपा के दलित वोट में सेंधमारी कर उसे नुकसान पहुंचा सकती है। बसपा हाईकमान ने इस कार्यक्रम की टोह लेने का जिम्मा बसपा के एक विधायक को सौंपा है|

Saturday, February 26, 2011

रेल बजट में की गई तथ्यों की अनदेखी

सीएम ने जगजाहिर की सम्पत्ति


गोधरा मामले में सजा अब एक मार्च को


उम्मीद रखें, उजले दिन आएंगे


गोधरा कांड का फैसला आने के बाद से दोनों समुदायों में जिस किस्म का धैर्य और विनम्रता दिखी, उसकी तारीफ किए बगैर आप रह नहीं सकते। यह सामाजिक समरसता की बे जोड़ मिसाल है। उनके इस आचरण से धर्म के ठेकेदार सहम उठे हैं तो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सक्रिय ताकतों के हौसले भी पस्त हुए हैं। फैसले पर उनकी सधी प्रतिक्रिया इसी का सबू त है। गोधरा से लेकर गुजरात दंगे के प्रमुख नौ मामलों में कानूनी कार्यवाही उच्चतम न्यायालय की निगरानी में चल रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अन्य मामलों में आने वाले फै सलों से सच और उजागर होगा
डायरी के पन्ने फड़फड़ा रहे हैं। नौ साल पहले गुजरात के गोधरा में जो हुआ, उस पर न्यायालय का फैसला आ चुका है। अदालत ने भी मान लिया है कि दिल दहलाने और हाड़ कंपा देने वाली यह वारदात यूं ही नहीं हुई। बाकायदा इसकी व्यूह रचना की गई थी। यह सौ फीसद साजिश थी। अभी तक इस घटना को लेकर खूब राजनीति होती रही। धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वाले नेताओं ने इसकी आड़ में वोटों की फसल काटने का कोई भी जतन नहीं उठा रखा तो उधर मामले की जांच के लिए बना एक आयोग भी शक के घेरे में आ गया। सवाल यह है कि क्या ऐसे संवेदनशील मामले पर राजनीति होनी चाहिए? हर अमन पसंद का जवाब होगा- नहीं।इसलिए अल्पसंख्यकों व बहुसंख्यकों को अपने बीच सक्रिय उन चरमपंथियों की पहचान करने का समय आ गया है जो भावनाओं को भड़काने का काम करते हैं। यह हमारे समय की दुखद और भयावह हकीकत है कि इस लोमहर्षक घटना की प्रतिक्रिया में गुजरात में साम्प्रदायिक दंगा भड़का। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश के लिए यह कलंक है। साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 कोच में आग लगाये जाने को महज दुर्घटना करार देने वालों को अपने बयान पर नये सिरे से सोचना जरूर चाहिए क्योंकि जो 59 कारसेवक इस आगजनी की भेंट चढ़े, वे कारसेवक बाद में और इंसान पहले थे। इससे पहले ऐसी किसी वारदात की मिसाल गुजरात में नहीं मिलती। इसके साथ घिनौनी राजनीति का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह अभी तक नहीं थमा है। लेकिन इस आंधी-पानी के बावजूद फैसला आने के बाद से दोनों समुदायों में जिस किस्म का धैर्य और विनम्रता दिखी, उसकी तारीफ किए बगैर आप रह नहीं सकते। यह सामाजिक समरसता की बेजोड़ मिसाल है। उनके इस आचरण से धर्म के ठेकेदार सहम उठे हैं तो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सक्रिय ताकतों के हौसले भी पस्त हो गये हैं। इस फैसले पर उनकी सधी प्रतिक्रिया इसी का सबूत है। गोधरा से लेकर गुजरात दंगे के प्रमुख नौ मामलों में कानूनी कार्यवाही उच्चतम न्यायालय की निगरानी में चल रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अन्य मामलों में आने वाले फैसलों से सच और उजागर होगा। तेजी से रंग बदलते सामाजिक बदलाव के इस क्रम में इन मामलों को लेकर हुई राजनीति पर नजर डालना अब जरूरी हो गया है ताकि कोई चरमपंथी या सियासी ताकत हमारी सामाजिक समरसता बिगाड़ न सके। मैं यहां गोधरा कांड को लेकर बने आयोगों की रिपोर्ट पर पाठकों का ध्यान दिलाना चाहता हूं और न्यायालय के फैसले के कुछ बिंदुओं को सामने रखकर फैसला आप पर छोड़ता हूं। गोधरा कांड पर बने दो आयोगों की रिपोर्ट परस्पर विरोधी थीं। जीटी नानावती आयोग का गठन नरेंद्र मोदी सरकार ने किया तो यूसी बनर्जी आयोग का तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने। बनर्जी आयोग ने अपनी रिपोर्ट में यह मानने से मना कर दिया कि साबरमती एक्सप्रेस के कोच को जलाने के पीछे कोई बदनीयत थी। आयोग ने कहा कि यह जानबूझ कर अंजाम दी गई घटना नहीं थी और न कोईषड्यंत्रथा। रिपोर्ट में पुलिस की पेट्रोल परिकल्पना को नकारते हुए कहा गया कि जब ट्रेन रुकी नहीं तो कोच के फर्श पर साठ लीटर पेट्रोल व अन्य ज्वलनशील पदार्थ डालना संभव नहीं था। यह आकस्मिक आग थी। कार सेवकों ने ट्रेन में खाना पकाया, इसके प्रमाण हैं। यह भी कि नारियल की घास, फोम और बर्थो में लगी रबड़ ने आग पकड़ी। इसके विपरीत नानावती आयोग ने इस नरसंहार को पूर्व नियोजित षड्यंत्र माना और कहा कि कोच जलाने की घटना जानबूझ कर की गई क्योंकि उसी कोच में कारसेवक यात्रा कर रहे थे। गुजरात पुलिस ने भी इसका समर्थन किया। इतना ही नहीं, इसकी साजिश रज्जाक कुरकुद, सलीम पानवाला और अन्य लोगों ने रची। कोच को बाहर से पेट्रोल छिड़ककर आग लगाई गई। यह कार्रवाई प्रशासन को अव्यवस्थित करने और आतंक फैलाने के लिए मकसद से की गई किंतु अब न्यायालय ने भी अपने फैसले में इसे षड्यंत्र मान लिया है। यह गुजरात पुलिस के लिए बड़ी जीत है क्योंकि विशेष जांच दल (एसआईटी) के आरोप पत्र में वर्णित घटनाक्रम को अदालत ने लगभग स्वीकार कर लिया है। इसमें अमन गेस्ट हाउस में साजिश रचने की बैठक से लेकर वहीं पेट्रोल रखने और कपड़ों के गट्ठर में आग लगाकर अंदर फेंकने की बात शामिल थी। जांच दल ने जिसे मुख्य अभियुक्त माना, न्यायालय ने भी उसी पर मुहर लगा दी है और उसे पांच मुख्य साजिशकर्ताओं में मान लिया। अदालत ने पेट्रोल का छिड़काव तथा कपड़ों के गट्ठर में आग लगाकर अंदर फेंकने की बात भी स्वीकार कर ली है। राज्य फोरेंसिक विज्ञान निदेशालय ने भी कोच जलाने के लिए पेट्रोल के प्रयोग की बात मानी है। न्यायालय ने 253 गवाहों के बयान, दस्तावेजी सबूतों तथा आठ अभियुक्तों के कन्फेशन के आधार पर यह फैसला दिया है। अब तथाकथित उन धर्मनिरपेक्ष ताकतों को सोचना चाहिए जो इस क्रूर साजिश को महज हादसा मान गंदी राजनीति कर रहे थे। मेरा मानना है कि बनर्जी आयोग का गठन भी राजनीति का ही एक हिस्सा था। तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद ने बिहार के चुनाव में इस रिपोर्ट का प्रचार कर वोट बटोरने की राजनीति की थी। यह बात जरूर है कि उनका यह दांव नहीं चला। अयोध्या, गोधरा और गुजरात दंगों को लेकर आज भी राजनीति हो रही है। इन दोनों समुदायों के स्वयंभू ठेकेदार ऐसी घटनाओं को जिंदा रखना चाहते हैं ताकि उनकी दुकान चलती रहे और समुदायों की गोलबंदी में कहीं से भी कोई सेंधमारी न हो। उनकी दिलचस्पी इस बात में हरगिज नहीं है कि विवाद सुलझे और दोनों पक्ष अमन से रहें। इसके ठीक उलट उनकी मंशा यह है कि नफरत की आग जलती रहे, चाहे वह गोधरा हो या कोई और घटना। यह आग बुझी तो उनकी सियासत बुझ जाएगी और दुकान पर ताला लग जाएगा। इसलिए ऐसे लोगों की पहचान जरूरी हो गई है क्योंकि यह देश के विकास की राह में सबसे बड़े बाधक हैं। वह नहीं चाहते कि उनकी कौम तरक्की करे। उन्हें भय है कि यदि ऐसा हुआ तो उनका वजूद समाप्त हो जाएगा। यहां दारूल उलूम के कुलपति मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी के उस बयान का जिक्र जरूरी है जिस पर इन दिनों तूफान मचा हुआ है। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि गुजरात सरकार अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों में भेदभाव नहीं कर रही है। गुजरात दंगों का मुद्दा वर्षो पुराना है और अब हमें आगे की तरफ देखना चाहिए।वस्तानवी पर सितम टूट पड़ा कि वर्षो पूर्व लाशें बिछाने वाले की सरकार को उन्होंने अच्छा कैसे कह दिया? हालांकि बाद में वह एक सधे हुए राजनीतिज्ञ की तरह यह कहते हुए अपने बयान से मुकर गये कि मेरे साक्षात्कार को तोड़ मरोड़कर पेश किया गया। दरअसल इस हंगामे के पीछे भी राजनीति है। इससे पहले दारूम-उलूम पर हिंदी भाषियों का वर्चस्व रहा। जाहिर है, उत्तर प्रदेश की राजनीतिक लड़ाई और वोट बैंक की राजनीति यहां भी घुस आई और वस्तानवी को इस लड़ाई में अग्नि परीक्षा देनी पड़ रही है। यह प्रगतिशील मुसलमानों के लिए विचारणीय सवाल है। गुजरात आज विकास कर रहा है तो उसे स्वीकारने से दंगे का कलंक उसके माथे से मिट नहीं जाता। इसलिए, विकास की तारीफ करना कोई अपराध नहीं है। योजना आयोग ने भी वहां के विकास दर की तारीफ की है। विश्व बैंक भी वहां की तारीफ कर चुका है। यदि वस्तानवी ने इस सच्चाई का बखान कर दिया तो हंगामा क्यों? वामदल मुसलमानों के सबसे बड़े हितैषी बनते हैं लेकिन उन्हीं के शासन वाले पश्चिम बंगाल को सच्चर समिति ने अल्प संख्यकों के विकास के मामले में सबसे पीछे माना है। उत्तर प्रदेश और बिहार में मुसलमानों की शैक्षिक और माली हालत किसी से छुपी नहीं है। आसन्न चुनावों में मुस्लिम वोट के लिए ही दलित से मुस्लिम और ईसाई बने लोगों को आरक्षण देने पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई राजनीतिक मामलों की कैबिनेट कमेटी में निर्णय इसलिए नहीं हो सका क्योंकि ममता बनर्जी चाहती थीं कि पूरे मुस्लिम समुदाय को आरक्षण दिया जाए। यह मामला अब उलझकर रह गया है। सवाल यह है कि मुसलमान कब तक दकियानूसी ताकतों और चरमपंथियों के चंगुल में फंसा रहेगा। आज जरूरत इससे बाहर निकलने और सोच बदलने की है। तभी आम मुसलमान प्रगति कर सकता है। दुखद यह है कि मुस्लिम वोटों के सौदागर और कुछ तथाकथित संगठन ही उनकी राह में सबसे बड़े अवरोध हैं। उनकी सोच का परिणाम है कि गोधरा पर फैसला आने के बाद उनकी सबसे ज्यादा सहानुभूति रिहा हुए लोगों के प्रति दिखी जबकि रेल कोच में मारे गये कार सेवकों के प्रति उतनी नहीं। वस्तुत: यह रवैया दुर्भाग्यपूर्ण और बेहद शर्मनाक है और जरूरत इसी को बदलने की है।


बाबा से क्यों डरी कांग्रेस बाबा से क्यों डरी कांग्रेस बाबा से क्यों डरी कांग्रेस


काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ बाबा रामदेव की स्वाभिमान यात्रा से उद्वेलित कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की टिप्पणियों ने अभी तक बाबा और कांग्रेस के बीच इशारों-इशारों में चल रही लड़ाई को सार्वजनिक कर दिया है। उत्तराखंड के एक कांग्रेसी विधायक किशोर उपाध्याय तो बाबा रामदेव की संपत्ति की जांच की मांग लेकर न्यायालय में भी पहुंच चुके हैं। वास्तव में राजनीति में उतरने की चाह रखने वाले योग गुरु के लिए यह राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता जितनी आवश्यक है, वर्तमान परिस्थितियों में उससे कहीं ज्यादा यह कांग्रेस के लिए उपयोगी है। यही कारण है कि कांग्रेस के बेहद कद्दावर महासचिव दिग्विजय सिंह ने स्वयं बाबा रामदेव के खिलाफ मोर्चा संभाल लिया है। दरअसल, दिग्विजय सिंह की कांग्रेस के भीतर अहमियत राजनीतिक हलकों में भलीभांति जानी जाती है। संघ के पर हमला बोलना हो या अपनी ही सरकार की नक्सलवाद से निपटने की रणनीति पर उंगली उठाना या फिर गृहमंत्री की मानसिकता एवं कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करना, इन सबके बावजूद दिग्विजय सिंह की अहमियत कांग्रेस में घटी नहीं है, बल्कि कथित रूप से कांग्रेसी युवराज के राजनीतिक गुरु के कद में इजाफा ही हुआ है। अब जबकि भ्रष्टाचार और घोटालों के तमाम आरोपों से घिरी कांग्रेस को अगले आम चुनावों में अभी से हार की चिंता सताने लगी है, तब फिर से कांग्रेसी रणनीतिकार दिग्विजय सिंह एक नई रणनीति के साथ सामने आए हैं। विपक्षी एकता को तोड़ना और विपक्षी वोटों का बंटवारा इस दिग्विजयी कांग्रेसी रणनीति का एक अहम हिस्सा है। इस रणनीति की कामयाबी का स्वाद कांग्रेस महाराष्ट्र में चख भी चुकी है। अब इसी प्रयोग को कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर आजमाना चाहती है। अपने इसी प्रयोग की राष्ट्रीय स्तर पर कामयाबी के लिए बाबा रामदेव की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं कांग्रेस को खूब सुहा रही हैं। विपक्षी वोटों के बंटवारे का यही खेल रचकर कांग्रेस महाराष्ट्र में कामयाब हो चुकी है। महाराष्ट्र में राज ठाकरे की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को समझकर कांग्रेस ने राज ठाकरे को बढ़ने में भरपूर सहयोग दिया, जिसका नतीजा यह हुआ कि राज ठाकरे ने अपनी ही पुरानी पार्टी शिवसेना और पुराने सहयोगी भाजपा को भरपूर नुकसान पंहुचाते हुए कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन के फिर से सत्ता में वापसी के लिए राह प्रशस्त की। भ्रष्टाचार और घोटालों में फंसी कांग्रेस सरकार को अब बाबा रामदेव में यही संभावनाएं नजर आ रही हैं। कांग्रेस बेशक बाबा की आमदनी को निशाना बनाने की बात कर रही है, मगर उसकी असली इच्छा बाबा को जल्द से जल्द एक राजनीतिक दल के मैदान में कूदते देखने की है। इसीलिए एक टीवी चैनल पर बातचीत में उत्तराखंड के कांग्रेसी विधायक किशोर उपाध्याय ने अपनी इच्छा जाहिर करते हुए योग गुरु से पूछ ही लिया कि वह अपनी पार्टी बनाकर राजनीति क्यों नहीं करते हैं। वास्तव में कांग्रेस के रणनीतिकार जानते हैं कि बाबा रामदेव के समर्थकों में यों तो सभी राजनीतिक धाराओं के लोग हैं, लेकिन भाजपा से हमदर्दी रखने वाले लोगों और भाजपा के वोट बैंक का बाबा रामदेव से विशेष लगाव है। इस वास्तविकता से बाबा रामदेव भी अनभिज्ञ नहीं हैं। यही कारण है कि वह जब भी भ्रष्टाचार और कालेधन पर हमला करते हैं तो भाजपा को थोड़ा बचाते हुए ही हमला करते हैं। भाजपा और उसके जनाधार में बाबा रामदेव की यही पैठ कांग्रेस की नई रणनीति की ऊर्जा का काम कर रही हैं। बाबा रामदेव को अपना स्वाभाविक राजनीतिक विरोधी सिद्ध करने के लिए कांग्रेस की ओर से आने वाले दिनों में योग गुरु पर इस तरह के हमलों की संख्या में लगातार इजाफा होगा। इन हमलों से कांग्रेस कम से कम तीन तरह के फायदे उठाने की स्थिति में रहेगी। एक, बाबा रामदेव को अपना स्वाभाविक राजनीतिक प्रतिस्पर्धी सिद्ध करके योग गुरु के खिलाफ तेज राजनीतिक अभियान से अपने जनाधार को बचाने में सहायता मिलेगी। दूसरे, बाबा राजनीतिक रूप से जितने मजबूत होगें, विपक्षी वोटों को तोड़ने की उनकी ताकत में उतना ही इजाफा होगा और शर्तिया तौर पर अंततोगत्वा यह कांग्रेस के हित में होगा। तीसरे, कांग्रेस बाबा और भाजपा की नजदीकियों का हावाला देकर धर्म निरपेक्ष वोटों से अलग करने का काम भी करेगी। योग गुरु की लगातार राजनीतिक सक्रियता कांग्रेस के सत्ता में बने रहने की नई संभावनाएं पैदा करने का काम कर रही है। हालांकि कांग्रेस और बाबा की तकरार ने दो समाज सेवी तबकों की कार्यप्रणाली पर एक बहस की शुरुआत कर दी है। एक ओर राजनीतिज्ञों की तथाकथित समाजसेवा है तो दूसरी तरफ धार्मिक बाबाओं की समाज सेवा। दोनों तबके अपनी सेवा का बहुत बड़ा मेहनताना आम आदमी से वसूल कर रहे हैं। योग गुरु लाख कहें कि उनका किसी बैंक में खाता नहीं है, लेकिन एक साधु होने के बावजूद 1,152 करोड़ की दौलत का व्यावहारिक स्वामित्व बाबा के पास ही है और यह कोई नई घटना नहीं है। देश के सभी बाबाओं का दौलत अर्जित एवं खर्च करने का एक यही एक प्रचलित तरीका है, जिसमें टैक्स से बचाव भी है और सभी तरह के ऐशोआराम भी। नए दौर की यह भी एक कमाल की फकीरी है। बाबा पर शुरू हुई इस तकरार में भाजपा और कांग्रेस के निहितार्थ हैं। एक साधु होने के बावजूद बाबा रामदेव की आक्रामक कार्यशैली से कांग्रेस भलीभांति परिचित है, जिस कारण कांग्रेस के रणनीतिकार योग गुरु को सलाह दे रहे हैं कि वह एक राजनीतिक दल बनाकर मैदान में आएं। यदि कांग्रेस को योग गुरु से कोई खतरा होता तो यह तय था कि कांग्रेस भी भाजपा की ही भाषा बोलती या खामोश रह सकती थी, लेकिन कांग्रेस का बाबा की कार्यशैली को लेकर विचलित होना और उन्हें उकसाना कांग्रेस की एक राजनीतिक जरूरत है। वहीं भाजपा बाबा रामदेव के पक्ष में उतरकर अपने जनाधार का बचाव ही कर रही है। इसके अलावा बाबा रामदेव की भी अपनी विवशताएं हैं। वह भाजपा से लाख हमदर्दी रखने के बावजूद अपने आप को भाजपा के साथ खड़ा नहीं दिखा सकते हैं, क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनके नए सहयोगी किरण बेदी, अरुणा राय और अरविंद केजरीवाल जैसे सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित नाम उनका साथ छोड़ जाएंगे, जो संभवतया बाबा रामदेव की भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम को बड़ा और गंभीर झटका होगा, क्योंकि इन सभी नामों का जमीनी काम और इनकी ईमानदार साख कहीं बड़ी है। इसके अतिरिक्त बाबा रामदेव का प्रभाव क्षेत्र शहरी मध्यम वर्ग तक ही अधिक सीमित है। योग को एक ब्रांड बनाकर बेचने वाले योग गुरु ने नई शहरी जीवनशैली जनित व्याधियों को ही संबोधित किया है, वह भी उस मध्यम वर्ग को जिसकी जेब में पैसा है। ग्रामीण मजदूरों-किसानों की बात तो दूर, बाबा रामदेव का योग शहरी गरीबों की पहुंच से भी दूर है। अब देखना यह है कि बाबा रामदेव कितने दिनों में कांग्रेस की मंशा पूरी करते हैं। हालांकि योग गुरु ने एक टीवी चैनल पर चर्चा के दौरान स्पष्ट घोषणा कर दी है कि जब भी अगला लोकसभा चुनाव होगा, वह अपने उम्मीदवार उतारेंगे। अब कथित रूप से दो समाजसेवी तबकों के इस संघर्ष में दोनों के ही जीतने की पूरी संभावनाएं हैं। यदि कोई हारेगा तो देश का वह गरीब आदमी, जिसके पास न बाबा रामदेव के योग शिविर में जाने के पैसे हैं और न ही वर्तमान धन और बाहुबल की राज|

Friday, February 25, 2011

नीतीश ने विपक्ष की बोलती बंद की


मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गुरुवार को बिहार विधान सभा में राज्यपाल के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव का सरकार की ओर से जवाब देते हुए विपक्ष की बोलती बंद कर दी। उन्होंने विपक्ष पर जातिवादी राजनीति का आरोप लगाते हुए कहा कि यहां बांटने और जोड़ने वालों के बीच द्वंद है। बिहार आज रोल मॉडल के रूप में पूरे देश में उभरा है। यहां की योजनाओं और विकास की चर्चा पूरे देश में हो रही है। उन्होंने विपक्ष सहित केन्द्र की यूपीए सरकार पर प्रहार करते हुए कहा कि बिहार एक नया इतिहास लिख रहा है। ऊंची जातियों के आर्थिक, सामाजिक अध्ययन के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट के लखनऊ बेंच के सेवानिवृत्त जज जस्टिस डी के त्रिवेदी की अध्यक्षता में राज्य आयोग के गठन की घोषणा करते हुए उन्होंने कहा कि देर-सबेर पूरे देश में इस तरह की पहल होगी। सबको लेकर ही समाज निर्माण और विकास की बातें हो सकती है। अपराध, त्वरित न्याय, स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क आदि की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि इन मौलिक संरचनाओं के विकास के माध्यम से बिहार में जो बदलाव आया है, अब उसकी चर्चा पूरे देश में हो रही है। आम बिहारियों में सुरक्षा और गौरव का अहसास हुआ है। विकास का मतलब केवल चन्द फैक्ट्रियों का लग जाना मात्र नहीं है, बल्कि असली विकास तो मानव विकास से है। टीकाकरण में बिहार राष्ट्रीय औसत से आगे निकल चुका है। भ्रष्टाचार को समाज का कोढ़ बताते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि उन्होंने तो अंजाम की परवाह किए बिना जंग शुरू कर दी है।

अपराध के बाबत प्रतिपक्ष के नेता अब्दुलबारी सिद्दीकी के तमाम आरोपों को नकारते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि त्वरित और नियमित सुनवाइयों के माध्यम से वर्ष 2006 से लेकर जनवरी 2011 तक 57,341 मामलों में सजा सुनाई जा चुकी है। यह इस अवधि में देश के किसी भी राज्य में सुनाई गई सजा में सर्वाधिक है। उन्होंने कहा कि माहौल बदला है। लोग गवाही दे रहे हैं। कोर्ट में सुनवाई हो रही है। पहले लोग डरे-सहमे रहते थे, अब लोगों के मन से डर निकल गया है। महिलाओं को सुकून मिला है। पिछले बिहार विधान सभा चुनाव में इसी का नतीजा था कि महिलाएं बड़ी तादात में घर से निकलीं और वोट दी। इसी प्रकार स्वास्थ्य सेवा में भी उल्लेखनीय सुधार हुआ है। साल 2006 के शुरू में जहां प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर महीने में औसतन 39 लोग इलाज के लिए जाते थे वहीं अब वहां प्रति माह 5 हजार से ज्यादा मरीज जाते हैं। टीकारण के माध्यम से स्वास्थ्य प्रतिरक्षण का अभियान चलाया गया है। टीकाकरण का राष्ट्रीय औसत जहां 61 प्रतिशत है वहीं टीकाकरण में बिहार का औसत 66.6 प्रतिशत हो गया है। सरकार का लक्ष्य इस औसत को देश के सबसे आगे रहने वाले राज्यांे से भी अधिक करना है।

मुख्यमंत्री ने विपक्ष को निशाना बनाते हुए कहा कि जब 2005 में पहली बार उन्होंने सरकार गठित की थी तो सूबे 12.5 प्रतिशत अल्पसंख्यक, दलित, महादलित और आदिवासी के बच्चे स्कूलों से बाहर थे। पांच साल बाद यह संख्या घटकर 3.5 प्रतिशत रह गयी है। सरकार अब शिक्षा गुणवत्ता पर ध्यान दे रही है। जो बच्चे स्कूल जाएं वे बीच में पढ़ाई नहीं छोड़ें, बल्कि अपनी पढ़ाई पूरी करके ही स्कूल से बाहर आएं। मुख्यमंत्री साइकिल योजना की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि अब तक 4 लाख 90 हजार लड़कियों को साइकिल दी जा चुकी है। अब लड़कियां साइकिल चलाती हुई स्कूल जाती है। यह प्रगति और विकास की असली निशानी है। बिहार के निजी स्कूलों में 5.2 प्रतिशत बच्चे पढ़ते हैं, वहीं यहां के सरकारी स्कूलों में 79.9 प्रतिशत बच्चे पढ़ते हैं। सड़क के मामले में सरकार की सोच है कि सूबे के किसी दूरस्थ इलाके से भी कोई व्यक्ति छह घंटे के अंदर पटना जा जाए।

इस दिशा में उल्लेखनीय उपलब्धि रही है। जाति विशेष के अफसरों की तैनाती के विपक्ष के आरोप पर बिफरते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि विपक्ष आज भी जातिवादी राजनीति कर रहा है, मगर बिहार की जनता इससे आगे निकल चुकी है।

Thursday, February 24, 2011

पटनायक को मिली पटखनी


एमपी शरणम् गच्छामि !


प्रधानमंत्री की मजबूरियां


जूते भी खाए, प्याज भी खाया और जुर्माना भी दिया कहावत केंद्रीय सत्ता पर पूरी तरह से लागू होती है। पहले सरकार 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की विपक्ष की मांग पर राजी नहीं हुई, जिस कारण संसद के शीतकालीन सत्र में कामकाज नहीं हो सका। इसके बाद प्रधानमंत्री ने लोक लेखा समिति के समक्ष उपस्थिति के लिए पत्र लिखा और अब बजट सत्र से पहले संयुक्त संसदीय समिति के लिए तैयार हो गए। इसके पीछे भले ही यह तर्क दिया जा रहा हो कि सरकार बजट सत्र का वही हश्र नहीं होने देना चाहती जो शीतकालीन सत्र का हुआ है, लेकिन सच्चाई यह है कि संचार घोटाले के बाद घोटालों का जो पिटारा खुला उससे सरकार की विपक्ष का सामना करने की हिम्मत टूट गई और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं हुई कि वह मजबूर हैं। यद्यपि इस मजबूरी का ठीकरा उन्होंने गठबंधन की अपरिहार्यता पर फोड़ कर खुद को बचाने का प्रयास किया है, किंतु वास्तविकता यह है कि वह द्वितीय विश्व युद्ध से पूर्व इंग्लैंड के प्रधानमंत्री चैंबरलेन के समान कमजोर इरादे वाले प्रधानमंत्री साबित हो रहे हैं। सत्ता पक्ष के इन दावों में कोई दम नहीं है कि वह घोटालों की सीबीआई जांच कराकर भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर कदम उठा रहा है। वास्तविकता यह है कि जांच जैसी कार्रवाई और पद से हटाने जैसे कदम तभी उठाए गए जब बच निकलने के सारे रास्ते बंद हो गए तथा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की स्वच्छ छवि तार-तार होने लगी। घोटाले के संदर्भ में सीधे प्रधानमंत्री पर आक्षेप पर अब विरोध के स्वर नहीं उठते। लोकसभा चुनाव के समय लालकृष्ण आडवाणी द्वारा मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री कहना जिन लोगों को बुरा लगा था, वही अब खुलेआम उनके कमजोर होने के प्रति सहमति जता रहे हैं। जो मीडिया उनके प्रति उदार था, मजबूरी जाहिर करने के बाद अब उसका रुख कटु हो गया है। इससे तो यही लगता है कि मनमोहन सिंह भले ही कार्यकाल पूरा करने का दावा करें, जनता यह मानने लगी है कि प्रधानमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल का अंत निकट है। 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में संयुक्त संसदीय समिति के लिए सहमत होना सरकार की विवशता का परिचायक है। यह इस बात का भी परिणाम है कि बचाव के सारे रास्ते बंद होने के साथ-साथ न केवल प्रधानमंत्री बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर भी उंगली उठने लगी हैं। एक के बाद एक घोटालों और प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति पर उठ रहे सवाल सोनिया गांधी को भी लपेटे में ले रहे हैं। यह खुला रहस्य है कि भले ही प्रधानमंत्री का पद मनमोहन सिंह के पास हो, सत्ता की कुंजी तो सोनिया गांधी के हाथ में ही है। मनमोहन सिंह महज मोहरे हैं। मोहरे के रूप में उनकी छवि में जितना निखार आता जाएगा, सोनिया गांधी पर उतनी ही जवाबदेही बढ़ती जाएगी। संचार घोटाले के साथ-साथ इसरो समझौते पर, जो अब रद कर दिया गया है, सीधे प्रधानमंत्री की जवाबदेही बनती है। इसी के साथ मुख्य सतर्कता आयुक्त और मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष को लेकर जो छीछालेदर हो रही है, उससे भी प्रधानमंत्री की छवि धूमिल हुई है। शायद इस स्थिति से ध्यान बंटाने के लिए ही उन्होंने मंत्रिमंडल में फेरबदल का पासा फेंका है और बजट सत्र के बाद और व्यापक फेरबदल की घोषणा की है। किंतु इस दिखावे से उनकी छवि में कोई सुधार नहीं हुआ है। जिस तरह चैंबरलेन ने हिटलर के सामने घुटने टेक दिए थे, उसी प्रकार मनमोहन सिंह भी हर उस समस्या के आगे घुटने टेक रहे हैं, जिससे देश की जनता त्रस्त है। ये समस्याएं प्रशासनिक तंत्र की असफलता उजागर करती हैं। शर्म-अल-शेख में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के साथ जारी संयुक्त वक्तव्य से देश शर्मसार हो गया था। अमेरिका द्वारा भारत के अपमान की घटनाएं बढ़ती जा रही है। राजनयिकों को अपमानित करने के बाद एक अमेरिकी विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों के पैरों में रेडियो कॉलर बांधने की घटनाएं यह स्पष्ट करती हैं कि अमेरिका भारतीय नागरिकों के साथ अमानवीय व्यवहार कर रहा है। यह एक ऐसा मामला है जिस पर देशभर में गुस्सा फूट पड़ना चाहिए था, लेकिन कहीं भी इसके विरोध में रैली नहीं हुई। युवा संगठनों तक ने इसका संज्ञान इसलिए नहीं लिया क्योंकि देश का प्रधानमंत्री मजबूरी का इजहार कर स्वतंत्र देश के नागरिकों का स्वाभिमान कुचल चुका है। आज भारत के सामने समस्याओं का अंबार लगा है। ऐसे में कमजोर इरादों और आचरण वाले प्रधानमंत्री से उनके समाधान की आशा करना व्यर्थ है। नेतृत्व परिवर्तन की धारणा जोर पकड़ती जा रही है। देश के लिए यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। भारत को मजबूर नहीं मजबूत प्रधानमंत्री की जरूरत है और जैसाकि लालकृष्ण आडवाणी ने कहा है मनमोहन सिंह जितना कमजोर प्रधानमंत्री आज तक कोई नहीं हुआ। मनमोहन सिंह ने अपना कार्यकाल पूरा करने का दावा किया है। यदि उन्हें प्रधानमंत्री बने रहना है तो मजबूर नहीं मजबूत होना पड़ेगा। अन्यथा उन्हें पद छोड़ देना चाहिए। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)