Saturday, March 26, 2011

सत्ता की चौपड़ में ईमान का दांव


विकीलीक्स के खुलासों को दुनिया के तमाम देशों ने यह कहकर नजरअंदाज कर दिया कि वे अमे रिकी राजनयिकों के निराधार आकलन हैं। हमारे प्रधानमंत्री ने भी नकार दिया है लेकिन इससे सच्चाई पर पर्दा पड़ने वाला नहीं है कि भारतीय राजनीति में भ्रष्ट तत्वों की भूमिका बढ़ती जा रही है जो स्वार्थो के लिए ईमान बेच रहे हैं। आने वाले चुनावों में जनता की अदालत में यही 'टूटता विश्वास और गिरता ईमान' बड़ा सवाल बनने वाला है
परमाणु करार के मुद्दे पर जुलाई 2008 में लाये गये अविश्वास प्रस्ताव पर जीत हासिल करने के लिए सांसदों को रिश्वत देने के विकीलीक्स के ताजा खुलासे से आया तूफान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सफाई के बाद शांत हो गया। इसी 18 मार्च, 2011 को इस खुलासे के बाद विपक्ष के आक्रामक तेवर के कारण सरकार मुसीबत में फंस गयी थी। सत्ता के गलियारे में सरगर्मी बढ़ गयी थी। सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच शह-मात का खेल शुरू हो गया था। सांसदों को घूस देने का बोतल में बंद जिन्न एक बार फिर बाहर आ गया था किंतु 23 मार्च को संसद के दोनों सदनों में विपक्ष के आरोपों के जवाब में प्रधानमंत्री के इस कथन के बाद कि 'विश्वास मत हासिल करने के लिए उनकी सरकार में से किसी ने भी न तो सांसदों की खरीद-फरोख्त की और न ही इसके लिए किसी को अधिकृत किया था। किसी देश और उसके दूतावास के बीच हुई अपुष्ट बातचीत पर शोर मचाना खतरनाक है'। इसी के बाद घूस देकर सरकार बचाने का बाहर आया जिन्न पुन: बोतल में बंद हो गया है। सरकार राहत महसूस कर रही है। सरकार (कांग्रेस) और विपक्ष इसे अपनी जीत व हार के नजरिये से भले देख रहे हों पर इस घटना ने सत्ता के इस राजनीतिक खेल में बढ़ते भ्रष्टाचार के खेल की पोल जरूर खोल दी है जो नेताओं के ईमान और विश्वास पर गंभीर सवाल खड़ा कर रहा है। सरकार बनाने और बचाने के लिए मोल-तोल का राजनीतिक हथकंडा कोई नया नहीं है। इसके कई उदाहरण भी हैं किंतु यह मामला कुछ हटकर है। चौदहवीं लोकसभा में यूपीए सरकार के अविश्वासमत के दौरान संसद में भाजपा के तीन सदस्यों ने कथित घूस में मिली नोट की गड्डियों को संसद में लहराया था। इसकी जांच के लिए एक संसदीय समिति बनी थी, जिसकी रिपोर्ट के आधार पर इस मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था। समिति ने इसकी जांच सक्षम जांच एजेंसी से कराने का सुझाव दिया था। यदि कांग्रेस सरकार ने उसी समय इसकी जांच किसी सक्षम एजेंसी को दे दी होती तो विकीलीक्स के इस खुलासे पर इतना हंगामा नहीं मचता। उस दिन 19 संसद सदस्य अनुपस्थित थे। इतना ही नहीं सांसदों की खरीद-फरोख्त के गंभीर आरोप भी लगे थे। इसी बुधवार को संसद में र्चचा के दौरान जद यू अध्यक्ष शरद यादव, तेदेपा और अकाली दल ने खुलेआम कांग्रेस पर उस समय अपनी-अपनी पार्टी के सांसदों की खरीद-फरोख्त का दुखड़ा सुनाया। कई नेताओं ने कहा कि इसी के चलते उनके कुछ सांसद आज कांग्रेस के टिकट पर चुनकर आ गये हैं पर सरकार इसका जवाब संसद में नहीं दे पायी। विकीलीक्स के खुलासों को दुनिया के तमाम देशों ने यह कहकर नजरअंदाज कर दिया कि वे अमेरिकी राजनयिकों के निराधार आकलन हैं। हमारे प्रधानमंत्री ने भी नकार दिया है लेकिन इससे सच्चाई पर पर्दा पड़ने वाला नहीं है कि भारतीय राजनीति में भ्रष्टतत्वों की भूमिका बढ़ती जा रही है जो स्वार्थो के लिए ईमान बेच रहे हैं। आने वाले चुनावों में जनता की अदालत में यही 'टूटता विश्वास और गिरता ईमान'
बड़ा सवाल बनने वाला है। वोट के बदले नोट के इस मामले पर आये इस राजनीतिक तूफान के मर्म को समझने की जरूरत है। चौदहवीं लोकसभा का सवाल पुन: मुद्दा कैसे बना? विपक्ष के घेरे में सरकार इसलिए आ गयी कि एक के बाद एक घोटालों के उजागर होने से सरकार की साख को गहरा धक्का लगा है। प्रधानमंत्री जिनकी बेदाग छवि और ईमानदारी के सभी कायल हैं, उनकी यह छवि भी सरकार को कठघरे में खड़ा करने से रोक न सकी। यहां कांग्रेस और प्रधानमंत्री को समझना होगा कि परमाणु करार पर सरकार को दांव पर लगा कर वह जनता के बीच यह संदेश देने में कामयाब हुए थे कि उन्हें राजनीति में तात्कालिक लाभ की तुलना में देश के भविष्य की चिंता ज्यादा है। लोगों में भरोसा था कि मनमोहन सिंह के हाथों में देश की बागडोर रहते भ्रष्टाचारी पनप नहीं सकेंगे। जनता के हितों और देश की सुरक्षा के साथ कोई समझौता नहीं होगा। 26 /11 की मुम्बई घटना के बाद आतंकवाद के खिलाफ विश्व बिरादरी का समर्थन जुटाकर उन्होंने इस भरोसे को और मजबूत किया था, जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस दूसरी बार सत्ता में आयी। प्रधानमंत्री ने विपक्ष पर प्रहार करते हुए कहा कि पन्द्रहवीं लोकसभा में उनकी सीटें चौदहवीं लोकसभा की तुलना में 145 से बढ़कर 206 हो गयीं। मतलब कांग्रेस को 61 सीटों का फायदा हुआ जबकि प्रमुख विपक्षी दल भाजपा की सीटें 138 से घटकर 116 हो गयीं। उसे 22 सीटों का नुकसान हुआ। जो सच है। किंतु कांग्रेस और प्रधानमंत्री को यह सोचना होगा कि क्या उसकी छवि वर्ष 2009 में हुए चुनाव के समय जैसी थी, वैसी आज भी है। जवाब होगा नहीं। घोटालों के कारण सरकार की छवि पर ग्रहण लग गया है तो प्रधानमंत्री की साख खतरे में है। टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला, सीवीसी की नियुक्ति, कामनवेल्थ गेम्स घोटाला तथा आदर्श सोसायटी आदि घोटालों के चलते आमजन का सरकार से मोहभंग हुआ है तो प्रधानमंत्री से उनका भरोसा टूटा है, जो कांग्रेस के लिए आने वाले दिनों में खतरे की घंटी हो सकती है। क्योंकि घोटालेबाजों के खिलाफ कार्रवाई करने में सरकार का रवैया काफी सुस्त और गैरजिम्मेदाराना रहा है, जिससे लोगों को लगने लगा है कि सरकार घोटालेबाजों को दंडित करने के बजाय अपने बचाव में लग गयी है। टू जी स्पेक्ट्रम मामले के उजागर होने पर ए. राजा को बचाने के लिए संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने बकायदा प्रेस के जरिये उन्हें बेदाग घोषित कर दिया और उसी के बाद सीबीआई ने उन्हें सलाखों के पीछे कर दिया। सीवीसी की नियुक्ति के मामले में तो प्रधानमंत्री ने देश के सामने अपनी चूक मान ली। कॉमनवेल्थ गेम्स में छोटी मछलियों पर ही गाज गिरी है। विकीलीक्स के इसी खुलासे में कैप्टन सतीश शर्मा के इशारे पर उनके खास नचिकेता कपूर की भूमिका सांसदों की खरीद-फरोख्त के मामले में सामने आयी थी। इस खुलासे के बाद शर्मा ने उनसे रिश्ते की बात नकार दी थी, पर दूसरे दिन ही उनके साथ एक अखबार में छपी तस्वीरों ने इसका पर्दाफाश कर दिया, जिसने इस आरोप को और गहरा कर दिया था। इन्हीं कारणों के चलते सरकार की धमक की चमक धूमिल हो रही है तो प्रधानमंत्री की बातों में अब विश्वास का संकट खड़ा हो गया है। इसीलिए नेता विपक्ष सुषमा स्वराज ने संसद में र्चचा के दौरान उन पर हमला कर सीधे उनकी कार्यशैली पर ही सवाल खड़ा कर दिया और कहा कि 'प्रधानमंत्री अपनी भलमनसाहत का सहारा लेकर ठीकरा दूसरों पर फोड़ते हैं। देश में महंगाई है तो शरद पवार जिम्मेदार हैं, कॉमनवेल्थ गेम्स आयोजन में घोटाला है तो कलमाडी जिम्मेदार हैं, टू जी स्पेक्ट्रम हुआ तो राजा जिम्मेदार हैं। मुझे कुछ पता नहीं और कुछ पता भी है तो यह गठबंधन की मजबूरी है'। आज यही सच्चाई भी है। आमजन को उनकी इसी शैली के कारण विश्वास टूट रहा है, जो सरकार के लिए घातक है। प्रधानमंत्री और कांग्रेस को अपने पिछले इतिहास से सबक लेना चाहिए। वर्ष 1985 में राजीव गांधी दो तिहाई बहुमत से सत्ता में आये थे। उनकी आम छवि मिस्टर क्लीन की बनी थी। उनकी ही सरकार में मंत्री रहे वी.पी. सिंह ने उनसे कुछ मुद्दों पर मतभेद के चलते पार्टी से अलग होकर 'बोफोर्स घोटाला' मामला उठाया और देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसा माहौल बनाया कि कांग्रेस सत्ता में नहीं आ सकी। इसी तरह 1991 में नरसिंह राव सरकार के लिए बहुमत हासिल करने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों के साथ सामूहिक सौदा हुआ था। घूस का यह मामला सुप्रीम कोर्ट गया था, जिसका बड़ा राजनीतिक खमियाजा सरकार को सत्ता से लंबे समय तक बाहर रहकर चुकाना पड़ा था। इसके विपरीत संसदीय इतिहास में एक और घटना है, जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार जयललिता के समर्थन वापस लेने के बाद एक वोट से गिर गयी थी। यह घटना बारहवीं लोकसभा की है और यह 21 दलों के मोर्चे की सरकार थी। इसके बाद राजग सरकार में आयी तो उसने अपना कार्यकाल पूरा किया। आज घोटालों के आरोपों से लहूलुहान कांग्रेस इससे सबक लेने को तैयार नहीं दिखती है। अभी सरकार ने सांसदों की स्थानीय क्षेत्र विकास निधि को दो करोड़ से बढ़ाकर पांच करोड़ रुपये सालाना कर दिया है। उल्लेखनीय है कि 10 दिसम्बर, 2003 को इस सांसद निधि के बारे में उस समय मनमोहन सिंह ने कहा था कि 'यदि ढर्रा इसी तरह चलता रहा तो नेताओं तथा लोकतांत्रिक शासन पर से आम लोगों का विश्वास उठ जायेगा'। आज उन्हीं के प्रधानमंत्रित्व काल में यह राशि बढ़ा दी गयी है। शायद प्रधानमंत्री को अपना ही कथन याद नहीं है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि गठबंधन की इस सरकार में अब सांसद यह राशि अपनी मर्जी से अपने क्षेत्र में खर्च कर सकेंगे। बदले में अगले पांच साल तक संसद भंग न हो और अब यही सभी सांसदों का निहित स्वार्थ बन जायेगा। वैसे 1993 में नरसिंह राव सरकार ने यह योजना एक करोड़ रुपये से शुरू की थी। वर्ष 1998 में अटल सरकार ने इस राशि को बढ़ाकर दो करोड़ रुपये कर दिया था। यह भी सौदेबाजी है, जिसका कोई भी दल विरोध नहीं कर रहा है। राजनीति के इस खेल में तोल-मोल से जनता अब पूरी तरह वाकिफ हो चुकी है। कांग्रेस और प्रधानमंत्री को समझना होगा कि आम चुनावों में अभी काफी समय जरूर है पर जनता इसे समय के साथ भूल जायेगी तो यह सोचना उनकी बड़ी चूक होगी। क्योंकि जब विश्वास टूटता है तो आक्रोश बढ़ता है, जो प्रतिक्रिया के रूप में सामने आता है। वर्ष 2009 में भाजपा की नकारात्मक राजनीति और गुटबंदी के कारण उसे लाभ मिला था। संसद में विकीलीक्स के खुलासे को नकार कर सरकार भले वाहवाही लूट ली हो और उसे अपनी जीत के रूप में देख रही हो पर सरकार को इस मामले की जांच कराकर तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचना होगा ताकि वह आम जनता के मन में भरोसा जगा सके कि विश्वासमत हासिल करने में सांसदों को वोट के बदले नोट नहीं दिये गये थे।


No comments:

Post a Comment