मध्य प्रदेश में उज्जैन के माधव कॉलेज के प्रोफेसर एसएस सब्बरवाल की दर्दनाक मौत के मामले में आखिरी फैसला अभी आया नहीं है कि सूबे में ऐसी ही एक दूसरी वारदात हो गई। खंडवा के कृषि महाविद्यालय में एक प्रोफेसर के साथ हुई अभद्रता और पिटाई से उसके साथी प्रोफेसर सुरेंद्र सिंह ठाकुर को इतना गहरा सदमा पहुंचा कि दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद कार्यकर्ताओं की बदसलूकी व मारपीट से सूबे में एक और प्रोफेसर की मौत कई सवाल खड़े करता है। खंडवा के भगवतराव कृषि महाविद्यालय में बीते दिनों प्रोफेसर अशोक चौधरी पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और भाजयुमो के कार्यकर्ताओं ने एक छात्रा के साथ कथित तौर पर छेड़छाड़ का इल्जाम लगाते हुए उसके साथ मारपीट की और उनके चेहरे पर कालिख पोत दी। बीच-बचाव की कोशिश में मौके पर मौजूद प्रोफेसर ठाकुर को भी चोटें आईं थीं। खंडवा में प्रोफेसर के साथ हुआ यह शर्मनाक वाकया सारे मुल्क ने अपने टेलीविजन पर देखा। कॉलेज में जब यह हंगामा चल रहा था तो वहां की स्थानीय मीडिया भी मौजूद थी और उन्होंने इस पूरे घटना को अपने कैमरे में कैद कर लिया। शुरुआती ना-नुकुर के बाद हालांकि पुलिस ने अब जाकर इस पूरे मामले की रिपोर्ट दर्ज कर ली है, लेकिन असली अपराधियों को कोई सजा होगी इसकी संभावना बेहद कम है। सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा का सहयोगी संगठन होने के चलते पुलिस प्रशासन इन कार्यकर्ताओं की कारगुजारियों की तरफ से अक्सर अपनी आंखें मूंद लेता है। प्रदेश विधानसभा में जब इस मामले की आवाज गूंजी, तब जाकर यह मामला जागा और कुछ आरोपियों पर मामला दर्ज किया, लेकिन इतना सब कुछ हो जाने के बावजूद असली आरोपी आज भी कानून की गिरफ्त से बाहर हैं। मध्य प्रदेश में विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं का प्रोफेसरों के साथ यह शर्मनाक बर्ताव कोई पहली बार नहीं है, बल्कि सूबे में इस तरह की घटनाएं आएदिन होती रहती हैं। किसी न किसी बहाने एबीवीपी के कार्यकर्ता शिक्षकों को अपमानित और प्रताडि़त करते ही रहते हैं। पुलिस और प्रशासन इन अराजक तत्वों की गैर कानूनी हरकतों पर कोई सकारात्मक कार्रवाई करने की बजाय वह मूकदर्शक बन तमाशा देखती रहती है। जिसका नतीजा यह है कि भाजपा शासनकाल में ऐसी कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं, जिसमें इस संगठन से जुड़े कार्यकर्ताओं ने छोटी सी बात पर किसी शिक्षक पर हमला कर दिया। फिर साल 2006 में हुई प्रोफेसर सब्बरवाल की दर्दनाक मौत को भला कौन भूल सकता है, जब इसी संगठन के कार्यकर्ताओं ने जरा सी बात पर उनके साथ इस तरह से बदसलूकी और मारपीट की कि वह उनकी मौत की वजह बन गई। उस वक्त भी भाजपा सरकार ने पूरे मामले को महज एक हादसा बताकर इससे पल्ला झाड़ने की कोशिश की, लेकिन वह लोकतंत्र के चौथे खंभे मीडिया की सक्रियता ही थी जो सरकार को मजबूरन इस मामले में कार्यवाही करना पड़ी। वरना केस कभी का रफा-दफा हो गया होता। पुलिस कार्यवाही के लिए प्रत्यक्ष सबूत होने के चलते शिवराज सरकार इसे चाहकर भी झुठला नहीं पाई। तब से यह बहुचर्चित केस अदालत में है और फरियादी आज भी इंसाफ की बाट जोह रहे हैं। प्रोफेसर सब्बरवाल की हत्या के मामले में कसूरवारों के खिलाफ कोई वाजिब कार्रवाई करना तो दूर उल्टे सूबे के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद, हत्या के मुख्य आरोपी विमल तोमर की मिजाजपुर्सी के लिए अस्पताल गए थे। मुख्यमंत्री के इस कदम से उस वक्त भी यह सवाल उठा था और आज भी यह सवाल ज्यों का त्यों बरकरार है कि जिस शख्स पर सूबे में कानून बंदोबस्त को बनाए रखने और इंसाफ सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी है वह अपने इस बर्ताव से सूबे की अवाम को क्या पैगाम देना चाहता है? क्या यह एक जिम्मेदार मुख्यमंत्री की निशानी है? जाहिर है मुल्जिमों की इस मिजाजपुर्सी से उनके हौसले और भी बढ़ जाते हैं। मध्य प्रदेश ही नहीं, भाजपा जहां भी सत्ता में आती है, संघ के आनुषंगिक संगठन निरंकुश हो जाते हैं। वह किसी के भी साथ चाहे जैसा बर्ताव करें मगर उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। जाहिर है अराजक तत्वों को जब खुली छूट मिलती है और उन्हें कानून का कोई डर नहीं होता तो इस तरह की घटनाएं और भी बढ़ जाती हैं। मध्य प्रदेश में पिछले कुछ सालों से शिक्षकों के साथ अभद्रता और मारपीट की जो घटनाएं सामने आ रही हैं, उसमें दरअसल कहीं न कहीं भाजपा सरकार भी गुनहगार है, क्योंकि जब कोई सरकार अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों से मुंह चुराए तो इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति होना लाजमी है। अपनी इस शर्मनाक करतूत को अंजाम देने के लिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने जो बहाना बनाया वह यह था कि प्रोफेसर का कॉलेज में पढ़ने वाली एक छात्रा से संबंध है और वह छात्राओं पर अश्लील टिप्पडि़यां करता है। अब सवाल यह उठता है कि विद्यार्थी परिषद यदि प्रोफेसर के आचरण से नाराज थी तो उसने इसकी शिकायत प्राचार्य से करने की बजाय प्रोफेसर को मारने-पीटने और अपमानित करने का रास्ता क्यों चुना? क्या उनके मातृ संगठन आरएसएस ने असहमति या विरोध जताने का उन्हें यही तरीका सिखाया है। यदि शिकायत पर जांच और कार्यवाही नहीं होती तो वे अहिंसक तरीके से आंदोलन, धरना-प्रदर्शन कर सकते थे। वह सूबे के शिक्षा महकमे के आला अफसरों या शिक्षा मंत्री से मिल सकते थे। सत्ता पक्ष से जुड़े विद्यार्थी संगठन होने के चलते कौन उनकी बात पर कार्यवाही नहीं करता? बावजूद इसके उन्होंने खुद ही कानून अपने हाथ में ले लिया और प्रोफेसर को सरेआम मारा-पीटा और जलील किया। सत्ता के मद में वे यह भूल गए कि वे जो कुछ कर रहे हैं वह गलत है व अलोकतांत्रिक है। एक बड़ी सियासी पार्टी के आनुषंगिक संगठन होने के नाते उन्हें लोकतांत्रिक तरीकों पर यकीन होना चाहिए न कि फासीवादी तौर तरीकों पर। जो लोग ज्ञान, शील और एकता की बात करते नहीं थकते, उनका असल बर्ताव इससे ठीक उलट क्यों? संघ की पाठशाला में वे जो कुछ सीख रहे हैं, क्या यह हमारी संस्कृति के अनुरूप है? हिंदुस्तानी संस्कृति में गुरु का दर्जा ईश्वर के बराबर माना गया है, लेकिन उसी गुरु के साथ सूबे में लगातार गलत बर्ताव किया जा रहा है। और खुद को भारतीय संस्कृति का अलमबरदार बताने वाली सरकार चुपचाप तमाशा देख रही है। खंडवा में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और भाजयुमो के कार्यकर्ताओं ने प्रोफेसरों के साथ जो बर्ताव किया उसे बर्बरतापूर्ण कृत्य की श्रेणी में ही रखा जा सकता है। इस कृत्य की जितनी भी भर्त्सना की जाए वह कम है। स्कूल-कॉलेज में छात्र संगठन, छात्रों को राजनीति की सही समझ सिखाने और उनमें नेतृत्व का गुण निखारने के लिए होते हैं न कि उनमें गलत समझ पैदा करने और अपने हित साधने के लिए। मुल्क की कमोबेश सभी बड़ी सियासी पार्टियां वर्षो से छात्र संगठनों का इस्तेमाल अपने हित साधने के लिए करती रही हैं। झूठे बहकावे और थोड़े से प्रलोभन में आकर छात्र आसानी से उनके हाथों की कठपुतली बन जाते हैं। यहां तक कि छात्र यह सब भूल जाते हैं कि वे जो कुछ कर रहे हैं वह सही भी है या गलत। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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