द्रमुक ने कांग्रेस के साथ चुनावी समझौता किया और वह संप्रग सरकार में भी बनी रहेगी। द्रमुक द्वारा पहले संप्रग सरकार से समर्थन वापसी एवं फिर समझौता करने का यह कदम पहली नजर में ही अस्थिर राजनीति का सूचक लगता है और ऐसा है भी, लेकिन यह अस्वाभाविक नहीं है। संप्रग सरकार से द्रमुक की समर्थन वापसी यों भी बड़ी राजनीतिक घटना नहीं मानी जा रही थी। इसके कारण साफ थे। लोकसभा के अंकगणित में संप्रग के 272 में से द्रमुक के 18 सांसदों के बाहर होने पर भी सपा के 22, बसपा के 21 एवं राजद के चार सांसदों का बाहर से समर्थन सरकार को प्राप्त है। दूसरे, खुद द्रमुक ने मुद्दा आधारित समर्थन देने की बात कहकर समर्थन वापसी पर प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया था। मुद्दा अधारित समर्थन का व्यावहारिक अर्थ भी समर्थन ही है। द्रमुक मंत्रियों के त्यागपत्र देने की घोषणा में भी पुन: स्वीकार न करने की संकल्पबद्धता का अभाव था। जाहिर है, द्रमुक स्वयं क्या करे, क्या न करें की मन:स्थिति में फंसी थी। साफ लग रहा था कि सीट बंटवारे का रास्ता आसानी से निकल जाएगा। द्रमुक कांग्रेस को 60 सीटें देने पर राजी हो चुकी थी, जो पिछले विधानसभा चुनाव से 12 स्थान अधिक है। कांग्रेस तीन स्थान तथा कुछ क्षेत्र बदलना चाहती थी। यह प्रश्न निश्चय ही कायम रहेगा कि अगर द्रमुक 63 स्थान कांग्रेस को देने पर राजी हो ही गई तो उसने समर्थन वापसी जैसा अतिवादी कदम क्यों उठाया? वास्तव में इसी प्रश्न के उत्तर में इसका राजनीतिक महत्व निहित है। यह समझना भूल होगी कि वाकई यह तनाव केवल सीटों तक सीमित था। सीट बंटवारे का यह मतभेद भी कांग्रेस एवं द्रमुक के बीच बढ़ती दूरी का प्रतीक था। ए राजा की गिरफ्तारी के साथ ही राजनीतिक रिश्ते में खाई पैदा होनी शुरू हो गई थी। सीबीआइ 2जी स्पेक्ट्रम की जांच करती हुई करुणानिधि के परिवार तक पहुंच चुकी है। सीबीआइ के आरोप पत्र में कलईग्नर टीवी चैनल का भी नाम है। आरोप यह है कि डीबी रियल्टी से कलईग्नर टीवी को 206 करोड़ रुपये का निवेश मिला, जिसकी शाखा स्वान टेलीकॉम को राजा ने लाइसेंस दिलाने में मदद की। इस टीवी चैनल के बोर्ड में करुणानिधि की बेटी और सांसद एम कोनीमोझी हैं। कलईग्नर टीवी चैनल पर छापा पड़ चुका है और अनके दस्तावेज जब्त किए गए हैं। द्रमुक के अंदर इसे लेकर आक्रोश है। द्रमुक ने राजा का जितनी दृढ़ता से समर्थन किया है, उसी से साफ है कि वह उनकी गिरफ्तारी तथा उसके बाद हो रही कार्रवाई के विरुद्ध है। इसलिए पार्टी की 38 सदस्यीय उच्चाधिकार समिति ने भले प्रस्ताव में केवल विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे पर कांग्रेस के निष्ठुर रवैये को कारण बताया, इसकी जड़ें अन्यत्र थीं। द्रमुक प्रमुख एम करुणानिधि का यह कथन कि कांग्रेस ने उन्हें गठबंधन तोड़ने के लिए मजबूर किया है, बहुअर्थी था। वैसे द्रमुक का रिकॉर्ड पहले भी सरकार को दबाव में लाने और फिर पीछे हटने का है। मसलन, मई 2009 में सात संासदों को मंत्री बनाने को लेकर करुणानिधि ने दबाव बनाया और मनमोहन सिंह को इसे स्वीकार करना पड़ा। अक्टूबर-नवंबर 2008 में श्रीलंका सरकार द्वारा तमिलों के खिलाफ सैनिक कार्रवाई के मामले पर केंद्र को साफ अल्टीमेटम दिया गया कि अगर सरकार तमिलों की हत्या नहीं रोक पाती तो वह सरकार से बाहर हो जाएगी। संप्रग प्रथम सरकार गठन के समय भी करुणानिधि ने बयान दे दिया था कि कैबिनेट में मुंहमांगा विभाग नहीं मिलने पर उसके सांसद मंत्रिमंडल से बाहर ही रहेंगे। उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया। ऐसा ही इस बार भी हुआ, किंतु हम जानते हैं कि मौजूदा परिस्थितियां भिन्न हैं। ऐन चुनाव से पहले ए राजा की गिरफ्तारी और करुणानिधि के घर तक सीबीआइ का पहुंचना उसके नेताओं के लिए असह्य है। इसलिए यह कहना ज्यादा सही होगा कि सीट बंटवारे के मतभेद को संबंध विच्छेद करने की सीमा तक ले जाकर द्रमुक ने कांग्रेस के साथ अपना रोष अभिव्यक्त किया। समझौते के बावजूद हमें इस घटना को कांग्रेस-द्रमुक रिश्ते के भविष्य के सूचक के तौर पर देखना होगा। यह कहना ठीक नहीं है कि तमिलनाडु की राजनीति में इस समय दोनों के तलाक से केवल द्रमुक को ही हानि होती। एक समय अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता ने अवश्य घोषणा की थी कि द्रमुक के समर्थन वापसी की अवस्था में वह सरकार को समर्थन देगी, लेकिन विधानसभा चुनाव में उसका गठबंधन पूर्ण हो चुका है और उसमें कांग्रेस के लिए सम्मानजनक स्थान नहीं है। कांग्रेस यदि अकेले जाती तो उसे बिहार का हश्र ही प्राप्त हो सकता था। ऐसा करने का कोई राजनीतिक औचित्य नहीं था। एक ओर भ्रष्टाचार पर हमला झेल रही सरकार चुनाव में बुरे हश्र की निराशा नहीं झेलना चाहती थी। निस्संदेह कांग्रेस ने संकट प्रबंधन के तौर पर सपा के मुलायम सिंह यादव या ऐसे दूसरे नेताओं से बातचीत आरंभ कर दिया और इससे जो संदेश निकला, उसने भी द्रमुक को पुनर्विचार करने पर विवश किया। केवल तीन सीटें और कुछ विधानसभा क्षेत्र बदलने की मांग पर गठबंधन से अलग होने का कदम वैसे ही गले नहीं उतर सकता। जाहिर है, द्रमुक ने रणनीति के तहत कांग्रेस पर चोट करने की रणनीति अपनाई थी। उसे भी समय की नजाकत का अहसास था और है। ऐसे समय जब 2जी स्पेक्ट्रम भ्रष्टाचार की आंच उसके घर तक प्रवेश कर चुकी है, वह सरकार से बिल्कुल अलग होने का खतरा उठाने से बचना चाहेगी। सरकार में होने के राजनीतिक लाभ से वंचित होने का व्यावहारिक अर्थ इस समय वह समझती है। दूसरी ओर कांग्रेस भी तमिलनाडु चुनाव के मद्देनजर अतिवाद से बचना चाहती थी, किंतु इसे द्रमुक की पराजय या कांग्रेस की विजय के रूप में देखना गलत है। हमें इस राजनीतिक हकीकत को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि बसपा या सपा कभी भी संप्रग में खासकर कांग्रेस के संदर्भ में द्रमुक का स्थान नहीं ले सकती। वस्तुत: कांगे्रस के लिए द्रमुक की भरपाई तत्काल संभव नहीं। द्रमुक संप्रग में कांग्रेस की सहज साझेदार है, जबकि बसपा या सपा हमेशा असहज साझेदार होंगे। तमिलनाडु में द्रमुक-कांग्रेस चुनाव में भी एक पक्ष हैं। ठीक इसके विपरीत सपा एवं बसपा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के विरुद्ध चुनाव मैदान में उतरेंगे। ये सरकार का साथ तभी तक दे सकते हैं, जब तक कि इन्हें रणनीतिक तौर पर कुछ लाभ हो। यानी आय से अधिक संपत्ति के मामले में केंद्र सरकार इनके खिलाफ कार्रवाई तेज न करके इनका समर्थन ले सकती है। इस प्रकार ये दूसरी कई प्रकार की शर्ते कांग्रेस पर लाद सकते हैं। किंतु अपना जनाधार खोने का जोखिम कोई नहीं उठा सकता। वैसी स्थिति पैदा होने पर समर्थन कभी भी वापस हो सकता है। वैसे भी बसपा सरकार में जाने को तैयार न थी, न आगे होगी। उत्तर प्रदेश का आम कांग्रेसी कार्यकर्ता इन दोनों पार्टियों के साथ समझौते के ही खिलाफ है। कांग्रेस नेतृत्व यदि प्रदेश पार्टी के आम मनोविज्ञान के खिलाफ ऐसा करता या आगे करेगा तो इसका परिणाम कतई अच्छा नहीं होगा। हम तात्कालिक तौर पर भले जो राजनीतिक अर्थ निकालें, लेकिन कांग्रेस के लिए भी इन दोनों दलों के साथ समझौता करना कठिन और राजनीतिक तौर पर बहुत बड़ा जोखिम था और रहेगा। एक और महत्वपूर्ण बात यह कि कांग्रेस संप्रग में इस समय किसी किस्म की फूट का संकेत देना नहीं चाहती थी। इससे विपक्षी दलों को उसके खिलाफ मुद्दा मिल जाता। इसलिए जो कुछ हुआ, वह दोनों की मजबूरी थी। कुल मिलाकर यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि इस घटना ने संप्रग की स्थिरता पर सवाल खड़ा कर दिया है। वर्तमान समझौते के बावजूद द्रमुक-कांग्रेस के रिश्ते अब सामान्य नहीं हैं। द्रमुक की उच्चाधिकार समिति की बैठक के बाद का माहौल बता रहा था कि समर्थन वापसी के निर्णय से सभी खुश थे। इसमें तत्काल दोनों की मजबूरी के कारण भले बीच का रास्ता निकल गया, कांग्रेस द्रमुक संबंध हमेशा अनिश्चय के घेरे में रहेगा। द्रमुक-कांग्रेस संबंध पर विचार करते समय हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि दोनों का अंतिम रुख चुनाव परिणाम पर निर्भर करेगा। यदि द्रमुक सत्ता से वंचित होती है, जिसकी संभावना प्रबल है तो कांग्रेस का व्यवहार उसके प्रति कैसा होगा, यह कहना कठिन है। वैसे भी मन में यदि दरार पड़ जाए तो फिर संबंध कभी प्रगाढ़ नहीं हो सकते और यहां ऐसा हो चुका है। इसलिए आगे क्या होगा, कोई नहीं कह सकता। हां, कांग्रेस के लिए भी निर्णय करना कठिन होगा। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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