Tuesday, March 15, 2011

लाल दुर्ग की दरकती दीवारें


पश्चिम बंगाल और केरल में वामपंथी वर्चस्व समाप्त होने के संकेतों का विश्लेषण कर रहे हैं  लेखक 
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के पहले ही वामपंथी दलों में दिख रही हड़बड़ाहट इस बात का साफ संकेत है कि 35 साल पुराना किला ढहने के कगार पर है। पहले 2009 के लोकसभा चुनाव और फिर 2010 में स्थानीय निकाय के चुनावी नतीजे लगातार वामपंथी जमीन खिसकने की मुनादी पीट रहे हैं। शायद सत्ता विरोधी लहरों के इन संकेतों को समझते हुए ही पश्चिम बंगाल में वामपंथियों ने अपने 9 मंत्रियों समेत 149 विधायकों को दोबारा टिकट नहीं दिया है। वामपंथियों के दूसरे गढ़ केरल से भी उनके लिए लगातार डराने वाली खबरें आ रही हैं। साढ़े तीन दशक तक राइटर्स बिल्डिंग पर लाल परचम लहरा रहा था जो कि दुनिया के जनतांत्रिक इतिहास में एक असाधारण घटना मानी जा सकती है। इस लिहाज से अगर वाम मोर्चा पराजित हुआ तो यह असाधारण राजनीतिक घटना ही होगी। वास्तव में अगर वाम मोर्चा हारता है तो उसके लिए यह सब कुछ खत्म होने जैसा नहीं, बल्कि पार्टी के वजूद पर जम चुकी एकरसता की केंचुल उतार फेंकने का मौका होगा। शायद ईमानदारी से आत्ममंथन करने का अवसर उसे विपक्षी खेमे में ही बैठकर मिल सकेगा। साढ़े तीन दशक तक सत्ता में रहने के कारण उसमें स्वाभाविक तौर पर अगर मा‌र्क्सवादी शब्दावली में कहें तो पेटी बुर्जुआ यानी लुंपन वर्ग घुस गया है। सत्ता के साथ जुड़ने वाला यह तत्व भी विपक्ष में जाने पर अपने आप ही छंटने की कोशिश करेगा। साथ ही लगातार सत्ता में रहने का दंभ और विचारधारा में लगी जंग धोने का भी संभवत: वामपंथियों को माकूल वक्त मिले। सबसे दिलचस्प यह देखना होगा कि ममता बनर्जी अगर सत्ता में आईं तो मां, माटी और मानुष नारे की अतिवादी सच्चाई भी जमीन पर किस तरह आती है। ममता ने वाममोर्चे को बेदखल करने के लिए उनके ही पैदा किए हुए भस्मासुरों यानी माओवादियों से हाथ मिलाया है। अभी इसका विरोधाभास बहुत खुलकर नहीं दिख रहा है। जाहिर तौर पर सत्ता में आने के बाद यह वर्ग ममता से अपने समर्थन की पूरी कीमत वसूलेगा। ऐसे में ममता के सत्तारोहण में आशाओं के साथ आशंकाएं भी कम नहीं हैं। नक्सलवाद कोई मामूली कीमत लेकर सत्ता छोड़ने वाली विचारधारा नहीं है। उसके पूरे एजेंडे की भयावहता से अभी पूरी तरह लोग परिचित नहीं हैं। इसे कोई भी जनतांत्रिक व्यवस्था सौैदेबाजी करके शांत नहीं कर सकती। जिस पुलिस संत्रास विरोधी समिति ने डंके की चोट पर ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस जैसी ट्रेनों को विस्फोटों से उड़ा दिया था, ममता उसी रेल विभाग की मंत्री भी हैं। इसके बावजूद तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष इन अतिवादियों का नाम तक लेने का साहस नहीं दिखा सकीं। यदि वामपंथियों का किला ढहता है तो वह यह सोचने के लिए विवश होंगे कि साढ़े तीन दशक तक शासन में रहने के बाद भी बंगाल को कोई ठोस नतीजे क्यों नहीं दे पाए? वाम मोर्चे के बड़े नेता भी अपनी उपलब्धियों में ले देकर आपरेशन बर्गा यानी भूमि सुधार आंदोलन ही गिनाते रहे हैं। भूमि सुधार भी बड़े किसानों से छोटे किसानों और भूमिहीनों से मजदूरों तक नहीं पहुंचा। सुधार के इसी खोखलेपन की वजह से ही माकपा का ग्रामीण गढ़ नक्सलियों की घुसपैठ से भरभरा चुका है। माकपाई महिमामंडन से हटकर देखें तो वास्तव में वामपंथी शासन भी भद्रलोक का ही शासन है। जिनमें सिर्फ दिखावे के लिए कांग्रेस की जगह वामपंथी शब्दावली गढ़ ली गई। बंगाल में आदिवासियों, भूमिहीनों, सीमांत किसानों और यहां तक कि गोरखाओं और मुस्लिमों को भी कांग्रेस अथवा वामपंथी शासन में कोई फर्क नहीं दिखता। पश्चिम बंगाल के बड़े नेताओं में इन वंचित वर्गो का शायद ही कोई नुमाइंदा हो। वामपंथी शासन भी केवल इन वर्गो के हितों का ढोंग ही करता रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में वामपंथी शासन की इसी असफलता के साथ ही उनकी औद्योगीकरण की नीति भी असफल दिख रही है। ब्रितानी हुकूमत के दौरान बंगाल में औद्योगिक ढांचा बनने से पहले ही उसे तोड़ना शुरू कर दिया था। वाम मोर्चे ने शायद उसी प्रक्रिया को पूरा किया है। शिक्षा और सरकारी सेवा में बढ़त की वजह से बंगाल का यह दुर्भाग्य दब सा गया था, लेकिन अब यह सतह पर है। वाम शासन की ट्रेड यूनियन और चोलबे न की उनकी नीति का ही नतीजा है कि पश्चिम बंगाल विकास की दौड़ में देश के दूसरे राज्यों की तुलना में फिसड्डी रह गया है। बुद्धदेव बाबू ने बुझते दीये की आखिरी लौ की तरह कृत्रिम तेजी दिखाई तो अपने ही गढ़ में आग लगा बैठे। सिंगुर और नंदीग्राम में औद्योगिक ढांचा खड़ा करने की हताश कोशिश में वह अपनी ही पार्टी की विचारधारा और नीति से भटक गए। औद्योगीकरण के नाम पर जिस तरह अनावश्यक रूप से बड़ी संख्या में लोगों को जमीन से बेदखल किया गया और उपजाऊ व शहरों के पास की महंगी जमीन औद्योगिक घरानों को देने की कोशिश की गई वह अब माकपाइयों के लिए स्थायी सिरदर्द बन गई है। वाम मोर्चा फिलहाल अपने राजनीतिक इतिहास में विचारधारा, नीतियों और नीयत पर सबसे करारे हमले झेल रहा है। ऐसे में काडर आधारित इस संगठन को इन हमलों से उसकी एकजुटता और आपसी भरोसा ही बचा सकता था, लेकिन हो बिल्कुल उल्टा रहा है। राष्ट्रीय स्तर से लेकर बंगाल और केरल में दोनों ही जगह पार्टियों को नेतृत्व और संगठन की समस्या से भी दो-चार होना पड़ रहा है। बंगाल में ज्योति बाबू के चमत्कारिक व्यक्तित्व के आगे माकपा की ये सांगठनिक कमी छिप गई थी। केरल में तो स्थिति बेहद शर्मनाक है। यहां मुख्यमंत्री अच्युतानंदन ने केवल प्रादेशिक संगठन को ही नहीं, राष्ट्रीय नेतृत्व को भी बुरी तरह अपमानित किया है। यह कितनी राजनीतिक असहज स्थिति है कि जिस व्यक्ति को विधानसभा के टिकट लायक नहीं समझा गया, पोलित ब्यूरो से निकाला गया, वह व्यक्ति उसी पार्टी से मुख्यमंत्री बना बैठा है। पश्चिम बंगाल और केरल में असफलता के लिए प्रादेशिक नेतृत्व तो जिम्मेदार है ही, सबसे बड़ी असफलता केंद्रीय नेतृत्व की है। माकपा महासचिव प्रकाश करात के किताबी क्रांतिकारी नेतृत्व ने इस काडर आधारित पार्टी की जमीन को बंजर ही बनाया है। वैसे भी बंगाल में वामपंथियों के सत्ता में बने रहने का सबसे बड़ा कारण यह कि वे दिल्ली में कांग्रेस को समर्थन देकर राज्य में उससे परोक्ष समर्थन हासिल कर लेते थे। कांग्रेस आलाकमान केंद्र के इस लाभ के लिए प्रादेशिक इकाई को दांव पर लगाता रहा है। शायद इसीलिए ममता बनर्जी कुछ साल पहले तक प्रदेश कांग्रेस संगठन को तरबूज कहा करती थीं। तरबूज यानी जो ऊपर से हरा है, लेकिन अंदर से लाल है। करात ने अरसे से चली आ रहे इस तरबूजी गठजोड़ को उग्र अमेरिका विरोध के कारण केंद्र से समर्थन वापस लेकर तोड़ दिया। ममता और कांग्रेस का यह गठबंधन उसी फैसले का नतीजा है। अब चुनावी नतीजों पर इस फैसले का क्या असर होगा, यह वक्त बताएगा। (लेखक दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक हैं)

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