कोई राजनीतिक पार्टी पुलिस सुधार के बारे में गंभीर नहीं
यह देश की प्रशासन-व्यवस्था पर सचमुच एक गंभीर टिप्पणी है कि उच्च पुलिस निगरानी वाले शहरों और थानों व सरकारी कार्यालयों के नजदीक वाले गांवों में अपराध की दर काफी ऊंची है। इसके विपरीत दूरस्थ इलाकों के वे गांव तुलनात्मक रूप से अपराध मुक्त हैं, जहां पुलिस वाले मुश्किल से दिखाई पड़ते हैं। गांवों में जातिगत और सामुदायिक आधार पर होने वाले ज्यादातर अत्याचारों के पीछे पुलिसिया समर्थन होता है। एक बांग्ला कहावत है कि बाघ के काटने पर 16 घाव ही होते हैं, जबकि पुलिस के काटने पर 32 घाव होते हैं। हकीकत यह है कि गांवों में पुलिस का आना सुरक्षा का एहसास नहीं जगाता, बल्कि खौफ जगाता है।
आज के दौर में समृद्ध नागरिकों द्वारा व्यक्तिगत तौर पर निजी सुरक्षा की व्यवस्था इस तथ्य का खुला स्वीकार है कि उनका ‘पुलिस पर भरोसा नहीं’ है। दूसरी ओर, निजी सुरक्षा का भार नहीं उठा सकने वाले करोड़ों लोग भगवान भरोसे जीते हैं। गांवों, झुग्गी बस्तियों और गरीब इलाकों से छोटे बच्चों के गायब होने की हमारे यहां रिपोर्ट भी बहुत कम होती है और जांच भी। पिछले तीन वर्षों में अकेले दिल्ली में 6,687 बच्चे गायब हुए हैं। इनमें वे बच्चे शामिल नहीं हैं, जिनकी गुमशुदगी की रिपोर्ट उनके अभिभावकों ने दर्ज नहीं कराई। दिल्ली से सटे नोएडा के निठारी गांव से गुम हुए बच्चों की रिपोर्ट दर्ज करने के दौरान पुलिस ने उन बच्चों के अभिभावकों को जिस तरह आतंकित किया, वह अपने यहां पुलिसिया रवैये का ठेठ उदाहरण है।
मैंने काफी करीब से देखा है कि कैसे पुलिस ने स्कूल जाते हुए एक बच्चे के अपहरण पर उसके परिवार को आतंकित किया था। मान लीजिए, उस बच्चे का नाम नसीम और उसके पिता का नाम आमिर था। आमिर ने अपहरण का मुकदमा दर्ज कराने के लिए आकाश-पाताल एक कर दिया, फिर भी विफल रहा। पुलिस वाले उस पर यह कहकर हंसते थे कि तुम्हारा बेटा खुद ही भागकर किसी आतंकी समूह में शामिल हो गया होगा। मैंने आमिर को गुमशुदा बच्चों के लिए काम करने वाले एक एनजीओ के पास भेजा, लेकिन उन्होंने भी केस दर्ज कराने में कोई मदद नहीं की। मैंने दिल्ली पुलिस के कई वरिष्ठ अधिकारियों से भी बात की, लेकिन वायदा के बावजूद कुछ नहीं हुआ।
गायब होने के छह महीने बाद नसीम अचानक भूत की तरह घर लौट आया। उसके पूरे बदन पर घाव के निशान थे। उसने वह भयानक कहानी बताई कि कैसे नशीला रूमाल सुंघाकर उसे एक पुलिस चौकी के पास मारुति में उठाया गया। उसके बाद उसे एक अज्ञात जगह पर ले जाया गया और साठ से ज्यादा बच्चों के साथ आवासीय इलाके से दूर खेतों के बीच बने एक मकान के बेसमेंट में रखा गया। उन्हें बेसमेंट से बाहर निकलने की मनाही थी और उनसे अवैध बंदूक बनाने वाली एक फैक्टरी में काम कराया जाता था। कुछ अन्य बच्चों के साथ उसने दो बार वहां से भागने की कोशिश की और पकड़े जाने पर बुरी तरह पीटे गए। लेकिन तीसरी बार वह पास के खेत में छिपकर रात भर घिसटते हुए किसी तरह रुड़की रेलवे स्टेशन पहुंचने में सफल रहा।
जब आमिर अपने बेटे को लेकर उसके लौट आने की रिपोर्ट देने थाना गया, तो उस पर मनगढंत किस्सा रचने का आरोप लगाया गया और झिड़कते हुए पूछा गया कि इलाके में और भी बच्चे रहते हैं, लेकिन केवल तुम्हारे ही बेटे का अपहरण क्यों हुआ। पुलिस ने उसके परिवार को आमिर के आतंकी संपर्क की जांच के बहाने तंग करना भी शुरू कर दिया। स्थिति इतनी खराब हो गई कि आमिर ने अपने बेटे को कहीं छिपा दिया। अंतत: उस परिवार ने किसी दूसरे इलाके में जाकर शरण ली। मैंने उसे अपने साथ पुलिस कमिश्नर के पास ले जाने की कोशिश की, ताकि उसका बेटा फंसे हुए अन्य बच्चे को छुड़ाने और उस गिरोह के भंडाफोड़ में मदद कर सके। लेकिन वह पुलिस से कोई बात करने के लिए तैयार नहीं हुआ, क्योंकि अब वह जान चुका था कि पुलिस उस गिरोह से मिली हुई थी और उसके बेटे के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकती थी, क्योंकि उसके लौटने पर वे नाराज दिख रहे थे।
देश के ज्यादातर नागरिक, खास तौर से गरीब, नरक से ज्यादा पुलिस थाने से डरते हैं। वे आईएसआई के आतंकियों के बजाय हमारी अपनी पुलिस से कहीं ज्यादा आतंकित रहते हैं। इसका सीधा-सा कारण है-आतंकी एक बार हमला करते हैं, जबकि पुलिस घूस खाने के लिए हर रोज आक्रमण करती है। उनका ज्यादातर समय हफ्ता वसूली, अतिरिक्त कमाई के मौके ढूंढने और अपराधियों के साथ साठगांठ करने में बीतता है। वे खुलेआम ‘सूखी’, ‘गीली’ और ‘मलाईदार पोस्टिंग’ (पदस्थापन) की बात करते हैं। गीली पोस्टिंग वह है, जो नियमित घूस का मौका देती है, जबकि सूखी पोस्टिंग में वैसी सुविधा नहीं होती।
कांग्रेस ने 2009 के चुनावी घोषणापत्र में देश के हरेक नागरिक की अधिकतम संभव सुरक्षा की गारंटी देने, पुलिस बल को ज्यादा प्रभावी और प्रशिक्षित करने तथा उसकी जवाबदेही को संस्थागत करने का वायदा किया था। लेकिन लगता नहीं कि कांग्रेस को अपने वायदे की याद है। कोई भी राजनीतिक दल पुलिस सुधार को लेकर गंभीर नहीं है, क्योंकि एक बार पुलिस जिम्मेदार और सक्षम हो गई, तो उसका दलगत उद्देश्यों के लिए उपयोग करना आसान नहीं होगा। ऐसे में जरूरी है कि नागरिक संगठन पुलिस सुधार के लिए दबाव समूह बनाएं, ताकि देश और नागरिकों के लिए खतरा बनते पुलिस बलों के व्यापक अपराधीकरण पर रोक लग सके। हम अपने बच्चों को ऐसे असुरक्षित वातावरण में नहीं छोड़ सकते।
इस देश के गरीब लोग हमारी अपनी पुलिस से डरते हैं, जबकि अमीर लोग निजी सुरक्षा व्यवस्था पर ही भरोसा करते हैं
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