युवा पीढ़ी के सामने असमंजस की जो स्थिति आज बनी है उसका पिछले साठ सालों में दूसरा समकक्ष उदाहरण केवल आपातकाल का ही दिया जा सकता है। उस समय भी एक बड़ा प्रश्न उभरा था कि क्या जनतांत्रिक मूल्यों का क्षरण अपनी चरम अवस्था में पहुंच गया है? क्या इसे रोककर उन मूल्यों की पुनस्र्थापना हो सकती है? प्रयास तो युवाओं ने ही किया था और वे असफल नहीं रहे। आज शायद उससे भी विकट स्थिति उनके समक्ष दिखाई दे रही है। क्या उन्हें अपना जीवन भ्रष्टाचार के समुद्र में गोते लगाकर ही जीना पड़ेगा? जो आदर्श सदा ही युवाओं के मन-मानस में पनपते रहे हैं और जो मूल रूप से तथा मुख्य रूप से मानव सभ्यता के विकास के लिए उत्तरदायी रहे हैं उनका वर्तमान युवा पीढ़ी के सामने क्या हश्र दिखाई देगा? जो पीढ़ी सत्ता में है, अधिकार युक्त है, साधन संपन्न है वह मूल्यों, आस्थाओं, आचरण तथा नीतियों से जिस बेशर्मी से खिलवाड़ कर रही है वह तो विरले तानाशाहों के अंधे शासनकाल में ही देखा जा सका है। आज भी लोग मेहनत कर रहे हैं, नेतृत्व दे रहे हैं, मगर उसकी दिशा बदल गई है। उनका सिद्धांत है जब तक सत्ता हाथ में है, प्रभामंडल है, देश से जो भी नोचा-खसोटा जा सकता है वही करना है, वही कर्तव्य है। यह समय घोटालों की संख्या गिनने का नहीं है। जो आज भी संयम का मूल्य आधारित जीवन जीना चाहते हैं उनके रास्ते हर क्षेत्र में दूभर हैं। महात्मा गांधी के सत्तासीन उत्तराधिकारियों ने मूल्यों तथा सिद्धांतों का हर दृष्टिकोण से हनन किया है। गांधीजी को अपने अंतिम वषरें में इसका अहसास तथा आभास हो गया था। वे पहले से भी सशंकित थे और समय-समय पर अपने भाषणों तथा लेखों से सामान्यजन को आगाह करते रहते थे। हिंद स्वराज्य में उन्होंने जिस समाज की संकल्पना की थी उसमें शोषण यदि पूरी तरह समाप्त न होता तो भी न्यूनतम स्तर पर तो आ ही जाता। आज यह दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है तथा सामान्य व्यक्ति के लिए जीवन को असत्य तथा नारकीय बना रहा है। इंडिया शाइनिंग तथा इंडिया एराइब्ड जैसे नारों का भारत के 90 प्रतिशत लोगों के लिए कोई अर्थ नहीं है। गांवों में सामाजिक संबंधों का विघटन एक सामान्य प्रक्रिया बन गया है। चुनावी प्रक्रिया ने सबसे बड़ा काम अनेक प्रकार की सामाजिक दरारें पैदा करने का किया है। जो युवा गांव से शहर आ रहे हैं उनमें से अधिकांश अपना रास्ता ढूंढ नहीं पाते हैं तथा निराशा और हताशा के अंधकार में खो जाते हैं। वे जो चकाचौंध यहां देखते हैं उसका हिस्सा बनने की स्वाभाविक इच्छा उन्हें पथ-भ्रमित ही अधिक करती है। 1925 में यंग इंडिया में गांधीजी ने सात भयानक पापों की सूची दी थी। इन्हें आज के परिदृश्य में देखने-समझने की फुर्सत कम से कम नेताओं में तो नहीं ही दिखाई पड़ती है। सामाजिक तथा राजनीतिक परिदृश्य से यह सातों जुड़ते हैं। बिना काम किए धन संपत्ति अर्जन-आज कितना कुछ विघटन कर रहा है। गांधीजी ने चित्तशुद्धि के बिना आनंद को पाप माना था। अकूत धन संपत्ति लोगों को क्या वास्तव में आनंद दे पाती है, लोग ऐसा भ्रम अवश्य पालते हैं और खूब पालते हैं। संभवत: इसका मुख्य कारण अज्ञान तथा समझने की कमी या अनिच्छा को ही माना जाना चाहिए। सभी के लिए बेसिक शिक्षा का सपना देखने वाले महात्मा ने चरित्र के बिना ज्ञान को पाप माना था। आज बड़े से बड़े घोटाले तथा भ्रष्टाचार में ऊंची शिक्षा प्राप्त व्यक्ति ही आगे बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं। देश की जेलों में सबसे अधिक गरीब असभ्य तबके के लोग ही दिखाई देंगे। न्याय व्यवस्था तो उन्हीं के लिए है जो लाखों करोड़ों खर्च कर सकें। लाखों किसान आत्महत्या कुछ वषरें में कर चुके हैं, सिलसिला रुकने का नाम नहीं लेता। मंहगाई पर सभी ने हथियार डाल दिए हैं। क्या इसका मुख्य कारण नैतिकता विहीन व्यापार नहीं है? गांधी जी ने इन चार के अतिरिक्त तीन और घोर पापों की बात कही थी-मनुष्यता विहीन विज्ञान, बिना सेवा किए धर्म तथा सिद्धांत-विहीन राजनीति। आज के सामाजिक परिदृश्य ने उनकी दूरदृष्टि की सार्थकता सिद्ध कर दी है। सारा विश्व गांधी के विचारों पर पहले से अधिक विचार-विमर्श आज कर रहा है। भारत में ऐसा कुछ नहीं हो रहा है, विशेषकर राजनीतिक परिदृश्य में। सामान्यजन इस पर पुनर्विचार की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं। इस बार 30 जनवरी को पहली बार देश के सौ से अधिक स्थानों पर लोग बड़ी संख्या में बाहर आए और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी आवाज उठाई। सिद्धांत-विहीन राजनीति ही देश की इस दुर्व्यवस्था के लिए उत्तरदायी है। यह गांधी का देश है तथा इसे अपना रास्ता तय करने केलिए प्रेरणा तथा मार्गदर्शन गांधी से ही लेना होगा। इसी के आधार पर देश के युवा वर्ग से ही नया नेतृत्व उभरेगा तथा वही आगे के लिए लोगों को संगठित करेगा। यह आवश्यक नहीं है कि वह राजनेताओं में से ही हो। यह भारत में आध्यात्मिक तथा नैतिक मूल्यों के परीक्षण का समय है। (लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)
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