थॉमस मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को केंद्र सरकार की प्रतिष्ठा पर एक और आघात मान रहे हैं लेखक
आखिरकार वही हुआ जिसका डर केंद्र सरकार को सता रहा था, उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश एसएच कपाडि़या की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने प्रधानमंत्री को तगड़ा झटका देते हुए केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस की नियुक्ति को गैरकानूनी करार दिया। भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त रवैया रखने वाले प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ के इस निर्णय से केंद्र सरकार और विशेष रूप से मनमोहन सिंह की साख को जबरदस्त धक्का लगा है, क्योंकि थॉमस का चयन उनकी अध्यक्षता वाली उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने ही किया था। तीन सदस्यीय इस समिति के अन्य सदस्य थे गृहमंत्री चिदंबरम और लोकसभा में नेता विपक्ष सुषमा स्वराज। सीवीसी पद के लिए थॅामस के नाम पर विचार होते समय सुषमा स्वराज ने न केवल उनका विरोध किया था, बल्कि अपनी असहमति लिखित में भी दर्ज कराई थी। फिर भी उनका चयन किया गया। इसके बाद पूर्व चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह और कुछ अन्य लोगों ने थॉमस की नियुक्ति के खिलाफ इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर कीं कि उनका नाम केरल के पॉमोलिन आयात घोटाले में शामिल है और यह मामला तिरुअनंतपुरम की अदालत में लंबित है। केरल कैडर के आइएएस अधिकारी थॉमस पर पॉमोलिन घोटाले में लिप्त होने का आरोप वर्ष 1992 में तब लगा था जब वह इस राज्य में खाद्य सचिव थे। उन पर आरोप है कि बिना टेंडर जारी किए पॉमोलिन आयात के उनके फैसले से राज्य सरकार को दो करोड़ रुपये की क्षति हुई। उन्हें इस मामले में जमानत तो मिल गई, लेकिन उनके खिलाफ मुकदमा लंबित बना रहा। इसके चलते कार्मिक विभाग ने 2000 से 2004 के बीच कई बार अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की, लेकिन उस पर अमल नहीं किया गया। अंतत: यही मामला थॉमस पर भारी पड़ा और उच्चतम न्यायालय ने उन्हें सीवीसी पद के लिए अयोग्य ठहराते हुए उनका चयन करने वाली समिति को भी निशाने पर लिया। शीर्ष अदालत के अनुसार, सीवीसी सरीखी संवैधानिक संस्था के लिए चयन सूची में शामिल अधिकारी न केवल बेदाग छवि वाले होने चाहिए, बल्कि उनकी ईमानदारी भी असंदिग्ध होनी चाहिए। शीर्ष अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि जब संस्था की साख का सवाल हो तो कसौटी सिर्फ जनहित होनी चाहिए। उसने प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति को फटकार लगाते हुए एक ओरजहां थॉमस को सीवीसी के लिए अनुपयुक्त करार दिया वहीं दूसरी ओर भविष्य के लिए अनेक दिशा-निर्देश भी तय किए। उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद केंद्र सरकार और खुद प्रधानमंत्री के समक्ष विकट स्थिति उत्पन्न हो गई है। अब विपक्ष और अधिक हमलावर हो सकता है। वह पहले से ही 2जी स्पेक्ट्रम और काले धन को लेकर सरकार की नाक में दम किए हुए है। हालांकि सरकार स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति से कराने पर सहमत हो गई है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस प्रकरण ने उसकी जमकर किरकिरी कराई। सीवीसी मामले में सरकार थोड़ी-बहुत साख बचा सकती थी, यदि उसने समय रहते अपनी गलती का अहसास कर लिया होता। दुर्भाग्य से वह थॉमस की नियुक्ति सही ठहराने पर अड़ी रही। उसने बाकायदा हलफनामा देकर कहा कि थॉमस पाक-साफ हैं और उनके चयन पर उंगली नहीं उठाई जानी चाहिए। इसका परिणाम यह हुआ कि खुद थॉमस ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह विचित्र तर्क दिया कि जब दागी नेता सांसद बने रह सकते हैं तो वह सीवीसी पद पर क्यों नहीं रह सकते? थॉमस के बचाव में उतरी केंद्र सरकार की तब और फजीहत हुई जब यह सामने आया कि उनका चयन करने वाली समिति इससे अवगत थी कि भ्रष्टाचार का एक मामला उनके खिलाफ लंबित है। खुद गृहमंत्री को यह मानना पड़ा कि थॉमस के चयन के समय उनके खिलाफ लंबित मामले की चर्चा हुई थी, लेकिन कोई भी यह स्पष्ट नहीं कर सका कि बावजूद इसके सुषमा स्वराज की आपत्ति आखिर क्यों खारिज की गई? प्रधानमंत्री ने कहा है कि वह थॉमस की नियुक्ति के संदर्भ में अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करते हैं। वैसे तो प्रधानमंत्री विस्तार से अपनी बात संसद में कहेंगे, लेकिन उनकी इस संक्षिप्त सफाई से यह संकेत मिला कि वह अपनी भूल मान रहे हैं और ऐसा कुछ नहीं कहने वाले जिससे कार्यपालिका और न्यायपालिका में टकराव पैदा हो। ध्यान रहे कि इसके पहले वह यह कह चुके हैं कि न्यायपालिका को नीतिगत मामलों में दखल नहीं देना चाहिए। थॉमस के मामले की सुनवाई के दौरान भी केंद्र सरकार की ओर से यह कहा गया था कि न्यायपालिका को सीवीसी के चयन पर दखल देने का अधिकार नहीं। इन स्थितियों में प्रधानमंत्री की ओर से दिया गया संक्षिप्त बयान शुभ संकेत है। वह संसद में अपना और सरकार का पक्ष चाहे जिस तरीके से रखें, थॉमस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से यह साफ हो गया कि एसएच कपाडि़या के नेतृत्व में शीर्ष अदालत एक बार फिर सक्रियता दिखाने के लिए तत्पर है। वैसे तो उसकी ओर से पहले भी न्यायिक सक्रियता प्रदर्शित की जा चुकी है, लेकिन पिछले कुछ समय में और विशेष रूप से पूर्व प्रधान न्यायाधीश बालाकृष्णन के कार्यकाल में सक्रियता के दर्शन नहीं हुए। इसके पीछे चाहे जो कारण हो, लेकिन यह महज दुर्योग नहीं हो सकता कि अब बालाकृष्णन भी आरोपों के घेरे में हैं। फिलहाल उनके मामले में भी केंद्र सरकार मौन साधे हुए है। अब जब थॉमस प्रकरण पर प्रधानमंत्री अपनी भूल स्वीकार करते दिख रहे हैं तब विपक्ष के लिए उचित यही होगा कि वह इस मसले पर विराम लगाए, लेकिन इसके साथ यह भी आवश्यक है कि प्रधानमंत्री इस पर विचार करें कि पहले राजा और फिर थॉमस को लेकर उनसे भूल कैसे हुई? क्या उनके ऊपर थॉमस की नियुक्ति के लिए कोई दबाव था अथवा कांग्रेस के राजनीतिक पंडितों ने उनकी अनदेखी कर दी? कहीं ऐसा तो नहीं कि कांग्रेस के रणनीतिकार केंद्र सरकार पर भारी पड़ रहे हैं? आम जनता से यह छिपा नहीं कि कांग्रेस वस्तुत: एक राजनीतिक मंडली द्वारा संचालित हो रही है। बेहतर हो कि कांग्रेसजन भी इस पर विचार करें कि क्या कारण है कि संप्रग के दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भी किरकिरी हो रही है और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की भी? कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के दामन पर जैसे दाग लग चुके हैं वे आसानी से छूटने वाले नहीं। देखना यह है कि कांग्रेस ये दाग धोने की ईमानदारी से कोई कोशिश करती है या फिर मामूली हेरफेर कर सुधरने का दिखावा भर करती है? यदि वह कुछ नए प्रवक्ता बनाने अथवा टीवी चैनलों में बहस के लिए उनकी टीम और बड़ी करने जैसे उपायों तक सीमित रहती है तो इसका मतलब होगा कि उसे अपनी प्रतिष्ठा की परवाह नहीं|
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