Thursday, March 10, 2011

जेपीसी से हासिल क्या होगा


अंतत: संसद के दोनों सदनों में संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के गठन की औपचारिक स्वीकृति मिल गई। अगर विपक्ष ने शीतकालीन सत्र में संसद का बहिष्कार नहीं किया होता, तो सरकार दबाव में नहीं आती। मगर सवाल है कि क्या जेपीसी के गठन से भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में किसी अन्य संस्था से ज्यादा प्रभावी परिणाम आएगा।
जेपीसी के गठन की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने जो कहा, उससे स्पष्ट है कि सरकार इसके पक्ष में नहीं थी, किंतु उसके पास कोई चारा नहीं है। उन्होंने कहा, ‘मेरी सरकार को विश्वास था कि चूंकि सभी प्रभावी कदम उठाए जा रहे हैं, इसलिए हम विपक्ष को जेपीसी के गठन की मांग पर जोर न देने के लिए मना लेंगे। हम अपने ईमानदार प्रयासों के बावजूद इसमें सफल नहीं हो सके। हम इस स्थिति को बनाए नहीं रख सकते, जिसमें बजट जैसे महत्वपूर्ण सत्र में संसद की कार्यवाही न चलने दी जाए। यही वे विशेष परिस्थितियां हैं, जिनमें हमारी सरकार जेपीसी के गठन को सहमत हुई है।सोचने वाली बात है कि जो सरकार जेपीसी को जरूरी नहीं मानती, वह इसके प्रति कितनी गंभीर होगी। ठीक है कि जेपीसी का स्वरूप सर्वदलीय है एवं इसे किसी को भी पूछताछ के लिए बुलाने का अधिकार है, परंतु जेपीसी कोई जांच एजेंसी नहीं है। इसकी सफलता सरकार की भूमिका पर निर्भर है। बगैर सरकार के सहयोग के यह जांच भी नहीं कर सकती। यानी सब कुछ सरकार की राजनीतिक ईमानदारी एवं इच्छाशक्ति पर निर्भर करेगा।
जो सरकार इसके गठन को राजी नहीं थी, उससे इच्छाशक्ति दिखाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? वैसे भी इससे पहले चार बार जेपीसी का गठन हो चुका है, लेकिन व्यावहारिक स्तर पर वह निरर्थक ही साबित हुआ है। राजनीतिक दल ईमानदारी बरतें, तो अपने विशेषाधिकारों के कारण यह समिति वाकई भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्रवाई में सर्वाधिक प्रभावी हो सकती है। लेकिन न पहले ऐसा हुआ है और न अब ऐसा होगा। सर्वदलीय समिति होने के कारण इसकी विश्वसनीयता तो होती है, लेकिन राजनीतिक खींचतान का शिकार होना भी इसकी नियति होती है। जेपीसी गठन पर दोनों सदनों में बहस के दौरान बिलकुल दो विपरीत विचार सामने आए, जिससे लगता है कि दोनों पक्षों के बीच शायद ही सहमति हो। इसलिए इसके गतिरोध का शिकार होने की आशंका ज्यादा है। हमारी राजनीति जिस अवस्था में पहुंच गई है, उसमें दुर्भावना रहित भूमिका की संभावना लगभग क्षीण है, चाहे भ्रष्टाचार का ही मामला क्यों न हो। इसलिए जेपीसी से भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी जोरदार पहल की उम्मीद बेमानी ही होगी। अगर जेपीसी से भ्रष्टाचार रोकने में मदद मिलती, तो यह बोफोर्स घोटाले और हर्षद मेहता कांड के समय भी हो सकता था।
वास्तव में जेपीसी पर गतिरोध हमारी वर्तमान राजनीति के चरित्र को ही तो उद्घाटित कर रहा था। सरकार अपना गिरेबान बचाने के लिए इसे अस्वीकार कर रही थी, तो विपक्ष भी इसके माध्यम से राजनीतिक लक्ष्य साधता रहा। लेकिन किसी भी नजरिये से जेपीसी न तो परम लक्ष्य हो सकता है और न बिलकुल त्याज्य। जेपीसी के गठन के बावजूद सीबीआई जांच एवं न्यायिक कार्रवाई भी चलती ही रहेगी और लोकलेखा समिति की जांच भी। क्या संभव है कि दोनों पक्षों के नेता यह फैसला कर लें कि जब जेपीसी गठित हो ही गई है, तो शेष जांच रोक दिए जाएं एवं एक निश्चित समय-सीमा के अंदर रिपोर्ट आने के बाद आगे की कार्रवाई हो? जेपीसी की अनुशंसाओं के बाद भी तो प्राथमिकी दर्ज करके न्यायालय में ही कार्रवाई होगी। हां, यह समिति भ्रष्टाचार रोकने के लिए कुछ अनुशंसाएं कर सकती है, जिसके आधार पर संसद इससे संबंधित नियम-कानून बना सकती है। किंतु ऐसा तब होगा, जब समिति की कार्रवाई स्वाभाविक गति से लक्ष्य तक पहुंचेगी। यह भी असंभव नहीं कि कोई अपने राजनीतिक स्टैंड से अलग हट जाए, क्योंकि विपक्ष का रवैया भ्रष्टाचार रोकने से ज्यादा राजनीतिक लाभ उठाने वाला है। सही है कि 2 जी स्पेक्ट्रम, राष्ट्रमंडल, आदर्श सोसाइटी मामले में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो कार्रवाई हुई, उसके पीछे विपक्षी सक्रियता का महत्वपूर्ण योगदान है, पर इसमें भ्रष्टाचार रोकने के प्रति प्रतिबद्धता नहीं झलकती। साफ है कि विपक्ष सरकार को कठघरे में खड़ा कर राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करेगा और सरकार अपनी खाल बचाना चाहेगी।

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