Sunday, March 13, 2011

रामदेव के सपने


हर आदमी को सपना देखने का अधिकार है। रात के सपनों पर किसी का बस नहीं होता, पर दिन के सपने हम खुद चुनते हैं। इसलिए इस पर एतराज करने की कोई बात नहीं है कि रामदेव ने राजनीति में उतरने का एलान किया है। बाबाओं के लिए यह कोई नई बात भी नहीं है। फर्क यह है कि अन्य बाबा सांसद या विधायक बनने का ख्वाब देखते हैं, बाबा रामदेव एक पूरा दल ही गठित करने के लिए और पूरी सत्ता को नियंत्रित करने के लिए कटिबद्ध हैं। उनका स्वागत है। हमारे देश में राजनीति का जो हाल हो चुका है, उसे देखते हुए जो भी कोई नई और स्वच्छ राजनीति की धारा बहाने के लिए सामने आता है, उसका स्वागत है। यह सभी का लोकतांत्रिक अधिकार ही नहीं, लोकतांत्रिक कर्तव्य भी है। इसलिए जब कोई संपादक यह सवाल उठाता है कि क्या इस आदमी को राजनीति में आना चाहिए तो दुख होता है। इस तरह के सवालों में बाबा रामदेव के प्रति जो नफरत या आक्रोश दिखाई देता है, उसके पीछे निश्चय ही वर्ग तिरस्कार की भावना है। रामदेव योग गुरु हैं। वे साधु हैं। अंग्रेजी नहीं बोलते। बहुत ऊंची-ऊंची, आध्यात्मिक बातें नहीं कहते। क्या इसलिए उन्हें झोलाछाप मान कर ठुकराया जा सकता है? सच तो यह है कि आज किसी भी अन्य आध्यात्मिक गुरु की तुलना में वे जनता के ज्यादा करीब हैं। इसीलिए वह जनता की जरूरतों को समझते हैं। जहां दूसरे गुरु अध्यात्म में जीते हैं और दूसरों को यही प्रेरणा देते हैं, वहीं बाबा रामदेव सांसारिक समस्याओं का हल निकालने के लिए प्रयत्नशील हैं। राजनीति में आने का फैसला इसी का एक पहलू है। इसमें अगर महत्वाकांक्षा है तो हमें इसकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। यह सात्विक महत्वाकांक्षा है। योग गुरु या योग डॉक्टर के रूप में रामदेव कितने कुशल या सक्षम हैं, इसके बारे में तब तक कोई फतवा नहीं दिया जा सकता जब तक ऐसे कम से कम हजार लोगों का सर्वेक्षण न कर लिया जाए जो बाबा के निर्देशों पर चल चुके हैं या चल रहे हैं। न तो बाबा के समर्थकों ने इस तरह का सर्वेक्षण किया है न आलोचकों ने। सिर्फ सुनी-सुनाई बातों के आधार पर कोई राय बनाना उचित नहीं है। दूसरी बात यह है कि बाबा सभी रोगों का इलाज करने का दावा करते हैं। इस दावे का परीक्षण करने के लिए विलायती पद्धति के डॉक्टरों को उनके पास कुछ रोगी भेजने चाहिए और उनके स्वास्थ्य की प्रगति की जांच करते रहना चाहिए। इन दोनों में से एक भी नहीं किया गया है। इसलिए फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि बाबा रामदेव के मामले में हमारे टिप्पणीकार गंभीर नहीं हैं, लेकिन बाबा अपने प्रति बहुत ही गंभीर हैं। शरीर और मन का इलाज करते-करते अब वे व्यवस्था की विकृतियों का इलाज करना चाहते हैं। दिक्कत यह है कि इतने बड़े काम के लिए उन्होंने न्यूनतम तैयारी भी नहीं की है। भीड़ पर भरोसा करना ठीक नहीं है। जब वोट देने का समय आता है तो मतदाता अनेक पहलुओं से विचार करता है। क्या रामदेव ने ऐसा कोई वातावरण बनाया है जिससे लगे कि उनके पास भारत की समस्याओं का समाधान करने का कारगर नुस्खा है? सिर्फ यह कहना कि भ्रष्टाचार खत्म करो, विदेशी कंपनियों पर रोक लगाओ, काला धन वापस लाओ, काफी नहीं है। हर नेता के पास एक विस्तृत राजनीतिक कार्यक्रम होना चाहिए। बाबा के पास ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं है। इसीलिए वह यह बता नहीं पा रहे हैं कि वह यह सब करेंगे कैसे। इसके बिना उनका कोई भी दावा विश्वसनीय नहीं होगा। दूसरी बात यह है कि उन्हें इतने सक्षम और उम्मीदवार कहां मिलेंगे जिनकी सहायता से सभी संसदीय सीटों पर चुनाव लड़ा जा सके। आज की राजनीतिक प्रणाली की सबसे बड़ी समस्या है बेहद भारी चुनाव खर्च। यह खर्च वे उम्मीदवार ही वहन कर सकेंगे, जिनके पास काली कमाई है और जो उसे काले उपायों से खर्च करने के लिए राजी हैं। ऐसे उम्मीदवारों को जनता क्यों वोट देगी और वोट देकर भी क्या हासिल होगा? एक जायज सवाल यह भी है कि स्वयं बाबा के विभिन्न कार्यक्रमों के लिए जिन लोगों ने बड़ी-बड़ी रकमें चंदे में दी हैं, उनके अपने आर्थिक स्त्रोत क्या है? कहीं उनकी काली कमाई का एक हिस्सा तो नहीं है? बाबा राजनीतिक सफाई की बात कर रहे हैं तो उन्हें सबसे पहले अपने दामन के रंग-बू को जनता के सामने रखना चाहिए। हम समझ सकते हैं कि बाबा रामदेव के पास एक भी पैसा नहीं होगा। स्वयं अमीर न होते हुए भी रामदेव कोई फक्कड़ बाबा नहीं हैं। वह बड़ी-बड़ी खर्चीली योजनाओं के संचालन का विचार रखते हैं। कुछ योजनाओं में उन्हें सफलता भी मिली है। इन सभी संस्थानों को अपनी संपत्ति तथा उसे प्राप्त करने के स्त्रोतों का ब्योरा सामने आना चाहिए। यह कहना कपटपूर्ण है कि बाबा रामदेव स्वयं इन संस्थाओं के अधिकारी नहीं हैं, इसलिए वित्तीय स्तर पर उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती। महात्मा गांधी भी व्यक्तिगत रूप से गरीब आदमी थे। शायद उनका भी कोई बैंक खाता नहीं था। बाबा रामदेव की तरह उनके कपड़ों में भी कोई जेब नहीं होती थी। पर उनकी प्रेरणा से संचालित संस्थाओं को लाखों रुपयों का दान मिलता था। गांधीजी के पास इन सभी संस्थाओं का पूरा हिसाब-किताब रहता था। क्या बाबा रामदेव को भी अपनी साख की रक्षा करने के लिए, अपनी वित्तीय स्वच्छता को प्रमाणित करने का प्रयास नहीं करना चाहिए|

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