Saturday, March 12, 2011

यादों के नश्तर


जब मैंने मेनका गांधी की मां अमतेश्वर आनंद की मृत्यु के बारे में सुना तो मुझे लगा कि जैसे किसी ने मेरे सीने में छुरा भोंक दिया हो। कभी हम एकदूसरे के बहुत निकट थे। फिर हमारे बीच कड़वाहट हो गई और हमने एकदूसरे को कभी नहीं देखा। कुछ पत्रकारों ने अमतेश्वर और मेरे संबंधों में आई कड़वाहट के संबंध में मेरा इंटरव्यू लेना चाहा, लेकिन मैंने उनसे मिलने से मना कर दिया। जो भी हो, मैंने सोचा कि अगर मैं अपने पिछले पारिवारिक संबंधों के बारे में लिखता हूं तो इसमें कुछ नुकसान नहीं होगा। पहले विश्व युद्ध के बाद अमतेश्वर के पिता और मेरे पिता सुजान सिंह को कृषि भूमि मिली थी जिसे मोंटगुमरी जिला कहा जाता था। उनके पिता दातार सिंह पशुपालन में लग गए। मेरे दादा सुजान सिंह भी खेती करने लगे। उन्होंने ट्रैक्टर और हारवेस्टर जैसी नई तकनीके इस्तेमाल में लाने की कोशिश की। वह आधुनिक तरीके से खेती करके जमीन से भरपूर फायदा उठाने के कायल थे। मिंया छन्नू और खानेवाल के बीच एक रेलवे स्टेशन में अभी भी उनका नाम कोटि सुजान सिंह है। उन्होंने एक कपास की फैक्टरी भी लगाई जो उनके पिता इंदर कॉटन फैक्टरी के नाम पर थी। दोनों परिवार समृद्ध हुए। पशुपालन में सुधार के लिए अंग्रेज सरकार ने दातार सिंह को नाइटहुड की उपाधि दी। मेरे दादा को सरकार साहिब का खिताब मिला। मैं समझता हूं कि मेरे चाचा उज्जल सिंह और पिता सुजान सिंह ने अवश्य ही इस मौके पर पंजाबी कहावत गढ़ी होगी, जो इस तरह से है - बन गया सर दातर, मंझा चरा के मोह लई सरकार, गप्पां मार-मार के विभाजन के बाद मोंटगुमरी साहीवाल बन गया और अब वहां केवल एक रेलवे स्टेशन है, जहां कुछ गाडि़यां रुकती हैं। गालिब का पसंदीदा शेर : एक शाम मैं अपने मेहमानों को गालिब का लिखा सुना रहा था। एक युवा महिला ने पूछा कि गालिब का कौन सा शेर मेरा पसंदीदा है? अविलंब मैंने वह सुना दिया- इश्क ते तबियत ने जीस्त का मजा पाया दर्द की दवा पाई दर्द बेदवा पाया मैंने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया पर उससे मैं खुश नहीं था और उसमें सुधार करने की कोशिश कर रहा था। तभी मेरा नौकर बहादुर उर्दू और हिंदी में गालिब की शायरी की एक किताब ले आया। उसने कहा कि कोई सज्जन यह किताब लाए हैं और आपसे मिलना चाहते हैं। हालांकि मैं किसी से बिना समय निश्चित किए नहीं मिलता, लेकिन मुझे लगा कि इस संयोग के पीछे कुछ छिपा हुआ है। मैंने बहादुर से उस व्यक्ति को अंदर लाने के लिए कह दिया। इस तरह पब्लिशर इलस्ट्रेटर और केलिग्राफर नसरुद्दीन अमरजीत से मेरी मुलाकात हुई। मैंने उनसे पूछा कि क्या इसमें मेरा मनपसंद शेर है। उन्होंने अफसोस जाहिर किया कि उन्होंने इसे शामिल नहीं किया है। मैंने किताब के पन्ने पलटे, सुंदर केलिग्राफी, लेकिन चित्र अच्छे नहीं थे। उन्होंने अपने बारे में मुझे कुछ बताया। उनका जन्म दाउदी बोहरा परिवार में हुआ था। उनकी मातृभाषा गुजराती है। उन्होंने स्कूल और कॉलेज में अंग्रेजी और उर्दू सीखी और 29 साल तक सरकारी नौकरी की। इसके बाद वह कोलकाता चले गए और अब वहीं रहते हैं। मैंने उनसे पूछा कि क्या कभी उन्होंने अपनी किताब बेचने की कोशिश की। उन्होंने जवाब दिया कि अब ऐसा करूंगा यह पहली कृति है। मैंने पूछा, आप इसकी कितनी कीमत रखेंगे? उन्होंने बताया कि 1200 रुपये है, लेकिन आपके लिए यह मेरा उपहार है। मैंने कहा, यह उपहार नहीं होगा यह आपकी पहली बिक्री होगी। मैंने अपने नौकर बहादुर से 1200 रुपये लिए और उनके हाथ में थमा दिए। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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