Wednesday, March 30, 2011

संप्रग सरकार के शक्ति केंद्र


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का भारतीय राजनीति में उद्भव पंद्रह वर्ष पूर्व करीब एक ही समय पर हुआ। मनमोहन सिंह ने भारत की अर्थव्यवस्था को 3.5 प्रतिशत की विकास दर से 8 प्रतिशत तक पहुंचा कर चमत्कार किया है और सोनिया गांधी ने गुटबंदी से त्रस्त कांग्रेस को एक अनुशासित और शक्तिशाली संगठन में परिवर्तित कर देने के असंभव से कार्य को संभव कर दिखाया है। दोनों ही अपने-अपने ढंग से महत्वपूर्ण हैं। जब नरसिंह राव ने अपना प्रधानमंत्री पद गंवाया तो दोनों में निकटता बढ़ी। 1998 में जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई तो सोनिया गांधी ने प्रणब मुखर्जी पर मनमोहन सिंह को वरीयता दी और उन्हें विपक्ष का नेता नियुक्त किया। उन्हें स्मरण था कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रणब मुखर्जी ने प्रधानमंत्री बनने का इरादा जताया था और उनके पति राजीव गांधी प्रणब मुखर्जी को पसंद नहीं करते थे। मनमोहन सिंह की वफादार होने की ख्याति उनके पक्ष में निर्णायक रही। 1999 में वह समय आया था जब सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बन सकती थीं और उन्होंने सरकार बनाने का दावा भी किया था। राष्ट्रपति केआर नारायणन ने उन्हें बहुमत सिद्ध करने के लिए आमंत्रित भी किया था। वह ऐसा नहीं कर सकीं, क्योंकि समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह उन्हें बिना शर्त समर्थन देने की अपनी बात से मुकर गए थे। मगर 2004 में जब सोनिया गांधी अपने बलबूते पर प्रधानमंत्री हो सकती थीं, उन्होंने यह पद स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। सोनिया गांधी अपने खिलाफ भाजपा के अभियान से परेशान थीं। सुषमा स्वराज ने तब घोषणा की थी कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बन गईं तो वह अपना सिर मुंडवा लेंगी। सोनिया गांधी ने संभवत: यह भी सोचा था कि सरकार का कोई भी फैसला उनकी इटालियन पृष्ठभूमि के कारण मुद्दा बन सकता है, जो देश हित में नहीं होगा। सोनिया गांधी ने भरोसेमंद मनमोहन सिंह को आगे किया। उन्हें भरोसा था कि मनमोहन सिंह उनके कहने पर पद त्याग देंगे। यह सत्य भी सिद्ध हुआ, क्योंकि मनमोहन सिंह ने खुले तौर पर कहा है कि जब भी कांग्रेस चाहेगी, वह पद त्याग देंगे। संप्रग-1 के दौरान मनमोहन सिंह ने बड़ी समझबूझ से बेहतरीन प्रदर्शन किया था, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि व्यवस्था में अब कुछ कार्यात्मक खामियां आ गई हैं। ऐसा नहीं है कि मनमोहन सिंह अब पहले जितने भरोसेमंद नहीं रहे या अब महत्वपूर्ण फाइलें दस जनपथ नहीं जातीं। सरकार की छवि में जो गिरावट आ रही है, उससे समस्याएं पैदा हो रही हैं। काफी समय से घोटालों का खुलासा हो रहा है, जिनसे कांग्रेस की परेशानियां बढ़ी हैं। सोनिया गांधी ने कुछ ऐसा आभास देना शुरू कर दिया कि संप्रग सरकार के क्रियाकलापों से कांग्रेस का कोई लेना-देना नहीं है। मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी के बीच दूरी को रेखांकित करने वाला एक अन्य प्रसंग है। कुछ अन्य मतभेद भी उजागर हुए हैं। प्रधानमंत्री जहां यह दलील देते हैं कि विकास को पर्यावरण का बंधक नहीं होने दिया जा सकता, वहीं सोनिया गांधी कहती हैं कि जनहित में उर्वर भूमि अधिग्रहीत नहीं की जानी चाहिए। जब कैबिनेट कश्मीर में सशस्त्र बल विशेष अधिनियम के संचालन पर विचार करती है तो वह कांग्रेस की कश्मीर समिति की बैठक आयोजित करती हैं और अपने हिसाब से स्थिति का आकलन कराती हैं। दोनों बैठकों का एक ही समय पर होना संयोग मात्र ही नहीं माना जा सकता। पाकिस्तान पर भी दोनों की सोच में अंतर प्रतीत होता है। मनमोहन सिंह का जनता में प्रभाव कम हो रहा है, जबकि सोनिया गांधी का प्रभाव यथावत है। इसका रहस्य संभवत यह है कि वह मौन रहती हैं और ज्वलंत विषयों पर भी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करतीं। प्रधानमंत्री के पास कैबिनेट है और कांग्रेस अध्यक्ष के पास राष्ट्रीय सलाहकार परिषद है। प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि कौन अधिक शक्तिशाली और अधिक प्रभावी है? यह जान पाना कठिन है कि किसकी अधिसत्ता कहां से शुरू होती है और दूसरे की अधिसत्ता का अंत कहां होता है? फिर भी मनमोहन सिंह सचेत हैं कि वह किस हद तक आगे बढ़ सकते हैं। मनमोहन सिंह यह दावा कर सकते हैं कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में मतभेद नहीं हैं। फिर भी लोग तब क्या सोचें जब विकास के तरीके पर सोनिया गांधी प्रधानमंत्री को झिड़कती हैं और जब एक कांग्रेस महासचिव गृहमंत्री पी. चिदंबरम के खिलाफ उंगली उठाकर बयान देते हैं कि वह माओवादियों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई कर गलती कर रहे हैं? प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष के बीच अधिसत्ता की रेखा धूमिल होने से अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो गई है। इससे देश में चिंता बढ़ रही हैं। अनेक समस्याएं पहले ही हालात को जटिल बना रही हैं। मनमोहन सिंह की बड़ी कमी यह है कि वह राजनीतिक व्यक्ति नहीं हैं। वह नौकरशाहों पर बहुत निर्भर हैं और सरकारी काम में अति व्यस्त। साथ ही उन्हें गठबंधन धर्म का भी पालन करना है, जिसकी रेखा सोनिया गांधी खींचती हैं। (लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं)

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