कश्मीर के एक नेता आइडी खजूरिया के मुताबिक जम्मू से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्रों में कश्मीर के मसले पर छपने वाली खबर या दूसरी सामग्रियों में कुछ बुनियादी अंतर होता है। उनका मानना है कि अंग्रेजी के समाचार पत्रों में जहां कश्मीर के मसले पर आए दिन कुछ न कुछ सामग्री छपती है और वैसी भी सामग्री जो कश्मीर के मसले पर कथित राष्ट्रवादियों को रास नहीं आती है, लेकिन हिंदी के समाचार पत्रों में इसका घोर अभाव होता है। इसके अलावा वह बताते हैं कि श्रीनगर और जम्मू से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्रों के चरित्र में भी बुनियादी अंतर होता है। इस तरह से कश्मीर से जुड़े तथ्यों को लोगों के सामने प्रस्तुत करने और उसे रोकने की हर स्तर पर कोशिश देखी जा रही है, लेकिन लोकतंत्र में लोगों से संवाद करने के कई माध्यम विकसित हुए हैं। लोकतंत्र की गति संवाद के किसी माध्यम पर निर्भर नहीं रहती है, लेकिन यह देखा जा रहा है कि कश्मीर के नेता देशभर में घूम-घूमकर देश के लोगों के साथ अपने राज्य से जुड़े विवादों को लेकर संवाद बनाना चाहते हैं तो उन पर हमले हो रहे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एसआर गिलानी से लेकर सैयद शाह गिलानी, मीर वाइज और दूसरे नेताओं पर दिल्ली, राजस्थान, बंगाल, पंजाब में हमले किए गए। उन्हें देश के लोगों के साथ संवाद कायम करने से रोकने की कोशिश की गई। उनकी सभाओं में हो हल्ला कर उसमें खलल पैदा किए गए। लोकतंत्र में यह एक प्रक्रिया विकसित हुई है कि किसी भी विवाद को लेकर लोगों के बीच बहस की जाए और उसका एक रास्ता निकालने की कोशिश की जाए, जबकि कश्मीर को लेकर इसके उलट स्थिति देखी जा रही है। कश्मीर के नेताओं पर न केवल कश्मीर से बाहर हमले किए जा रहे हैं, बल्कि कश्मीर से बाहर लोकतंत्र में बहस मुबाहिसे में यकीन रखने वाले जो लोग कश्मीर के नेताओं को अपनी बात कहने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं, उन्हें भी हमले का शिकार बनाया जा रहा है। दूसरा तरीका यह भी अपनाया जा रहा है कश्मीर के नेताओं व उन्हें संवाद के लिए देश के लोगों के बीच आमंत्रित करने वाले लोगों पर देश भर में मुकदमे कायम कराए जा रहे हैं और उनके घरों तक पर हमले किए जा रहे हैं। संसदीय लोकतंत्र में संभवत: ऐसी स्थिति पहली बार आई होगी, जब किसी राज्य के नेताओं को देश के लोगों के साथ संवाद करने से रोका जा रहा हो और इसे लोकतंत्र के एक हिस्से के रूप में स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ही उलट देने की कोशिश हमलावरों के राजनीतिक सिद्धांत के अनुकूल है और कश्मीर का इस्तेमाल इस सिद्धांत को स्थापित करने के लिए किया जा रहा है। आखिर कश्मीर तानाशाही, सैन्य शासन और फासीवादी के मिश्रित रूपों वाले इस राजनीतिक सिद्धांत के लिए क्यों सबसे ज्यादा अनुकूल समझा जाता है? देश में एक बड़ा हिस्सा कश्मीर के साथ अपना भावनात्मक संबंध रखता है। उसे वह अपने देश के ताज के रूप देखता-मानता आया है। वह कश्मीर को दुनिया के स्वर्ग के रूप में देखता रहा है, लेकिन वहां की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से उतना ही नावाकिफ रहा है। अंग्रेजों के जाने के साथ जब हिंदुस्तान का दो देशों के रूप में बंटवारा हुआ उस समय तैयार की गई प्रचारात्मक सामग्री का उस पर सबसे ज्यादा असर हुआ जिसे आज भी देखा-समझा जा सकता है। बनाए गए अथवा कृत्रिम धारणाओं में तथ्यों की मात्रा बेहद कम है अथवा वह दिग्भ्रमित है। आजादी के बाद पाकिस्तान एक इस्लामिक देश के रूप में स्वतंत्र अस्तित्व के तौर पर सामने आया। आज कश्मीर में इस्लाम धर्म को मानने वाले बहुमत में हैं। इसीलिए उसे पाकिस्तान के साथ जोड़कर देखने वाले प्रचार को काफी बल मिला। कश्मीर भारत के विभाजन के पहले भी एक अलग राज्य के रूप में स्वीकृत व स्थापित था। देश के दूसरे हिस्से की तरह उसका अपना एक अलग राजनीतिक स्वरूप था, लेकिन सिवाय सांप्रदायिक नजरिए के कश्मीर को समझने की कोशिश देश के बड़े हिस्से ने कभी नहीं की है। इस संदर्भ में यहां एक उदाहरण यह भी है कि कश्मीर की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक स्थितियों पर आधारित तथ्यात्मक पुस्तकों का घोर अभाव है। हिंदी भाषी इलाकों में सबसे ज्यादा कश्मीर को लेकर उग्रता देखी जाती है। कश्मीरी भाषा में लंबे समय से चले आ रहे कश्मीर के बुनियादी सवालों से जुड़े और उसके पाकिस्तान और भारत में विभाजन की पूरी प्रक्रिया को तथ्यात्मक स्तर पर समझाने वाली पुस्तकें नहीं के बराबर हैं। एक देश के किसी हिस्से के साथ रिश्ता केवल इस राजनीतिक आधार पर मजबूत नहीं हो सकता है, जब तक कि वहां की जनता से देश के शेष लोगों के साथ गहरे रिश्ते नहीं हों। खुद कश्मीर के भीतर कई तरह के विवाद हैं, परंतु उनके बारे देश के अधिकांश लोगों में जानकारी का घोर अभाव है। जम्मू-कश्मीर में दस अलग-अलग नस्लीय पहचान हैं। यह मुख्य तौर पर डोगरा, कश्मीरी, पहाड़ी, कारगिली, लद्दाखी, वाल्ती, पठवारी, गुर्जर, बकरवाल और वोटमैन हैं। 1952 में शेख-नेहरू समझौते के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच 27 दिसंबर 1963 से 16 मई 1967 तक छह वार्ताएं हो चुकी थीं। 1972 में शिमला समझौता हुआ। 1966 का ताशकंद घोषणा पत्र, 1975 का शेख व इंदिरा गांधी के बीच किया गया समझौता, 1986 में राजीव-फारुख अब्दुल्ला के बीच हुए समझौते के अतिरिक्त भी कई तरह की वार्ताएं एवं समझौते हो चुके हैं, लेकिन कश्मीर लगातार हिंसा में लथपथ होता रहा है। साफ है कि सरकारी स्तर पर इसका समाधान नहीं ढूंढ़ा जा सका है। ऐसी स्थिति में यदि कश्मीर के नेता देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर लोगों से संवाद कर रहे हैं तो लोकतंत्र में किसी विवाद को सुलझाने की इससे बेहतर प्रक्रिया और क्या हो सकती है? कश्मीर के नेता आखिर लोगों के बीच पहुंचकर करते क्या हैं? वह अपनी बातें ही तो कहते हैं और वे कश्मीर विवाद से जुड़े विभिन्न तथ्यों व अपने नजरिए को लोगों के सामने रखते हैं। क्या यह जरूरी है कि देश के लोगों के सामने कश्मीर से जुड़े तथ्य एवं प्रचार सामग्री जो पहले से ही मौजूद हैं, वह उसी आधार पर कश्मीर के बारे में अपनी राय कायम करें? आखिर कश्मीरी नेताओं के तथ्यों, नजरिए और मुश्किलों को जानने की एक प्रक्रिया यदि शुरू होती है तो उससे कौन-सा फर्क पड़ जाएगा जो इतना हायतौबा मचाया जा रहा है। ज्यादा से ज्यादा यही तो हो सकता है कि देश के बड़े हिस्से की जो राय अब तक कश्मीर के बारे में है, उससे कुछ फर्क आ जाए, लेकिन लोकतंत्र की प्रक्ति्रया भी तो यही है। कश्मीर का सच जानने से जो खतरे हैं, वह है राष्ट्रवाद के नाम पर सांप्रदायिक राजनीति का आधार कमजोर पड़ना। यहां एक बड़ा सवाल देश में लोकतांत्रिक विचारों पर आधारित एक समाज निर्मित करने का भी है। परंतु सांप्रदायिक राजनीति करने वालों के लिए कश्मीर लोकतांत्रिक विचारों के विकास से खुद को खतरा महसूस हो रहा है, जिस कारण वह इस तरह के प्रयासों का विरोध कर रहे हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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