Wednesday, March 23, 2011

हताशा पर भारी उम्मीद की ममता


जहां माकपा नेतृत्व को यह समझना होगा कि स्तालिनवादी तौर-तरीके मौजूदा समय में कारगर नहीं हो सकते, वहीं तृणमूल कां ग्रेस को भी इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि वामपंथी शब्दावली और मां-माटी-मानुष जैसे भावनात्मक नारों के बल पर चुनाव जीतना और सत्ता पर काबिज होना तो सम्भव है, पर पश्चिम बंगाल पर लम्बे समय तक शासन करना असम्भव। इसके लिए स्पष्ट विचारधारा व विकास के एक ठोस कार्यक्रम की जरूरत होगी
पश्चिम बंगाल में मार्क्‍सवादी पार्टी (माकपा) आज जिस विकट संकट से गुजर रही है, उसका सामना शायद उसने पहले नहीं किया था। पिछले 34 वर्षो से राज्य में सत्तारूढ़ वामपंथी शासन के लिए अब अपने अस्तित्व को बचाना कठिन लगता है। इसलिए भी कि तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के बीच सीटों पर तनातनी खत्म हो गई है। दोनों के बीच जो समझौता हुआ है, उसके तहत तृणमूल कांग्रेस- 229 और कांग्रेस-65 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इस गठबंधन को लेकर किसी ने भी शंका नहीं जताई थी। माकपा के पराभव की प्रक्रिया 2007 के दौरान तब शुरू हुई जब प्रदेश की वाममोर्चा सरकार ने औद्योगिक क्षेत्रों के निर्माण के लिए किसानों की जमीनों का अधिग्रहण करने का फैसला किया। पर भूमि सुधार और भूमिहीनों के लिए भूमि वितरण को अपना राजनीतिक आधार बनाने वाली वामपंथी सरकार के इस कदम को जबर्दस्त विरोध का सामना करना पड़ा। पूर्वी मिदनापुर के नंदीग्राम और हुगली के सिंगुर में किसानों के भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलनों की कमान ममता बनर्जी ने खुद संभाली और राज्य सरकार को अपने कदम वापस लेने पर मजबूर होना पड़ा। सन 2007 के बाद से राज्य में जितने भी चुनाव हुए हैं, उन्होंने माकपा के खिसकते जनाधार की ओर इशारा किया है। चाहे वे पंचायत चुनाव हों, विधानसभा उपचुनाव हों, लोकसभा चुनाव हों या फिर नगरपालिकाओं के चुनाव। प्रदेश में पंचायतें वामपंथ की जीवनरेखा रही हैं पर 2008 के पंचायत चुनावों में वामपंथी दल 18 जिलों में से 13 में ही जीत हासिल कर पाये। इससे पहले पंचायतों पर माकपा का लगभग एकछत्र राज्य था और केवल दो जिलों- मुर्शिदाबाद और मालदा में ही कांग्रेस की जिला परिषदें थीं। इस बार कांग्रेस ने दो और तृणमूल कांग्रेस ने तीन जिला परिषदों पर जीत हासिल करके ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी राजनीतिक बढ़त दर्ज की और प.बंगाल में पंचायतों के माध्यम से अब तक सहेजे माकपा के ग्रामीण जनाधार को पहली बार चुनौती दी। नगर पालिका चुनावों ने तो यह भी स्पष्ट कर दिया कि पारंपरिक रूप से वामपंथ का साथ देने वाले मुस्लिम समुदाय पर उसकी पकड़ कमजोर होती जा रही है। अकेले कोलकाता में तृणूमल कांग्रेस ने 14 मुस्लिम बहुल वाडरे में जीत हासिल की और वामपंथी दल केवल चार वाडरे में ही जीत दर्ज कर पाए। पर मार्क्‍सवादी पार्टी की राजनीतिक साख में भारी गिरावट का सबसे बड़ा संकेत 2009 के लोकसभा परिणाम रहे। इन चुनावों में माकपा राष्ट्रीय स्तर पर 2004 में हासिल 26 सीटों के मुकाबले 16 सीटों पर जीत दर्ज कर पाई। पश्चिम बंगाल की कुल 42 सीटों में से वामपंथ को 15 सीटें मिलीं जिनमें माकपा की सिर्फ नौ सीटें हैं जबकि तृणमूल कांग्रेस ने 19 सीटें हासिल की थीं। माकपा के इस क्रमिक अवसान के कारण मिले जुले हैं। कुछ कारण स्थानीय हैं तो कुछ राष्ट्रीय राजनीति से जुड़े हैं और कुछ का सम्बन्ध विचारधारात्मक मुद्दों से है किंतु इसका मूल कारण पार्टी के वर्तमान नेतृत्व की विचारधारात्मक कट्टरता है। 1964 में संयुक्त भाकपा के विभाजन के बाद से मार्क्‍सवादी पार्टी ने कट्टर कांग्रेस-विरोध का रास्ता अपनाया। वह काफी अरसे तक मध्यमार्गी राजनीतिक शक्तियों के प्रति उतनी ही शत्रुतापूर्ण बनी रही जितनी दक्षिणपंथ के प्रति। बाद में राजनीतिक दावपेंचों में माहिर पूर्व महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत की लचीली नीतियों के चलते मार्क्‍सवादी पार्टी अपने राजनीतिक अलगाव को दूर करने में सफल हुई और राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक शक्ति बनी। पर अब वह अपने विचारधारात्मक अतीत की ओर लौटती हुई लगती है। इस वैचारिक कट्टरता का अन्य वामपंथी दलों के नेताओं ने, भले ही दबी जुबान में सही, विरोध भी किया है और माकपा के वर्तमान नेतृत्व को दम्भी तक बताया है। हाल में आरएसपी के नेता और पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ मंत्री क्षिति गोस्वामी ने सिंगुर और नंदीग्राम में राज्य सरकार की भूमिका को एक बड़ी भूल बताया। उनका कहना था कि पिछले पांच वर्षो में जो हुआ, उसकी वजह से वामपंथ को सत्ता में आने के लिए काफी जद्दोजहद करनी होगी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता भी माकपा के केंद्रीय नेतृत्व के फैसलों की समय-समय पर आलोचना करते रहे हैं। माकपा की गिरती राजनीतिक साख का दूसरा बड़ा कारण यह भी है कि राज्य में तीन दशक से भी अधिक समय से सत्तारूढ़ इस पार्टी के पास बंगाल के जनमानस को छूने वाला कोई व्यक्तित्व नजर नहीं आता। ज्योति बसु के बाद, कोई वामपंथी नेता नहीं, जो उनकी मृत्यु से पैदा हुए शून्य को भर सके। मगर ममता इस शून्य को भरती नजर आ रही हैं। भले उन्हें कितना ही झक्की, कितनी ही तुनकमिजाज राजनेता क्यों न कहा जाए पर वह एक चतुर राजनीतिज्ञ हैं। उनका लोक लुभावना नारा-मां, माटी और मानुष (जो हालांकि बहुत ही अस्पष्ट है), बांग्ला जनमानस को छू गया लगता है। अपनी अस्पष्ट विचाराधारा के बावजूद ममता अपने को जनवादी नेता के रूप में प्रस्तुत करने में काफी हद तक सफल रही हैं। वे इस बात को बखूबी जानती हैं कि पारम्परिक और सांस्कृतिक रूप से बंगाल विप्लवमुखी और वामपंथी रहा है। इसलिए यह समझ कर कि वामपंथ पर वार करना दक्षिणपंथी हथियारों से सम्भव नहीं, उन्होंने वामपंथी मुखौटा पहनने की भरपूर कोशिश की है। वे बड़ी चतुराई से मार्क्‍सवाद पर हमला नहीं करतीं लेकिन माकपा को मार्क्‍स और लेनिन का छद्म अनुयायी बताती हैं। इस संदर्भ में ममता का यह कहना तो और भी गौरतलब है कि 'वामपंथ बुरी विचारधारा नहीं है पर माकपा- वाद वामपंथ नहीं हो सकता'। पहले दो बार भाजपा से गठबंधन कर चुकी दीदी ने माकपा की गोली से उसको मारने का यह पैंतरा अपनाने के लिए वामपंथी ट्रेड यूनियन नेताओं और कथित रूप से माओवादियों का सहारा भी लिया। पर उनके साथ हॉटमेल के संस्थापक सबीर भाटिया और फिक्की के अमित मित्रा जैसे बुद्धिजीवी- उद्योगपति लोग भी जुड़े हैं। ममता का यत्न से जोड़ा गया कुनबा एक घालमेल सा नजर आता है, जिसमें परस्पर विरोधी विचारधाराओं और मकसद वाले नेताओं का जमावड़ा है। यह आगे को ध्यान में रखने से जितना अंदेशापूर्ण लगे। फिलहाल तो किसी को इस बात में संदेह नहीं है कि आगामी विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस निर्णायक बढ़त नहीं हासिल करने जा रही है। इसे लोग जानसमझ कर भी तृणमूल की धारा में बहने का मन बना चुके हैं तो इसलिए कि वे माकपा की जंगखाई शासन नीतियों से हताश हो चुके हैं। वे ममता को एक मौका देना चाहते हैं। इनमें भी दो वर्ग है-एक तो वह जो वाममोर्चा को सबक देना चाहता है और दूसरा जो ममता का समर्थक है। कुल मिला कर जहां माकपा नेतृत्व को यह समझना होगा कि स्टालिनवादी तौर-तरीके मौजूदा समय में कारगर नहीं हो सकते। उसे आधुनिक और कम नुकसानदेह विकास नीतियों को तरजीह देनी होगी। शासन के नाम पर अत्याचार से तौबा करनी होगी। वहीं ममता को भी इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि वामपंथी शब्दावली और मां- माटी-मानुष जैसे अस्पष्ट नारों के बल पर चुनाव जीतना और सत्ता पर काबिज होना तो सम्भव है, पर लम्बे समय तक शासन करना असम्भव है। इसके लिए पार्टी की स्पष्ट विचारधारा और सामाजिक-आर्थिक विकास के एक ठोस कार्यक्रम की जरूरत होगी।

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