पाच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव इस दफा तय कर देंगे कि देश की राजनीति का आकार- प्रकार कैसा होगा। इन राज्यों में कांग्रेस और उसके घटक दलों की प्रतिष्ठा दांव पर है। सीटों के तालमेल के अलावा भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों पर उन्हें जनता से दो-चार होना है। ऐसे में यह चुनाव कांग्रेस और उसके घटक दलों के लिए अग्नि परीक्षा हैं तो वामपंथियों के सामने अपने दो राज्यों के किलों को बचाये रखने की अहम चुनौती। इन राज्यों में प्रमुख विपक्षी दल भाजपा का कुछ खास नहीं है जबकि वामपंथियों का राजनीतिक अस्तित्व दांव पर है। पश्चिम बंगाल और केरल में उनकी सरकार है और अभी जो राजनीतिक स्थितियां हैं, उनमें उनके इन किलों की चूलें हिलती नजर आ रही हैं। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस के साथ पश्चिम बंगाल और केरल वामपंथियों से छीनकर उन्हें उनकी राजनीतिक औकात बताने की जुगत में है। उसकी कोशिश उसे इन राज्यों में हाशिये पर लाने की है। इसके अलावा उसकी कोशिश असम और पांडिचेरी में अपनी सरकार को येनकेन प्रकारेण सत्ता में बनाये रखने की है। तमिलनाडु में वह द्रमुक के सहारे अपनी पुरानी राजनीतिक जमीन तलाशने की कोशिश में है। क्या यह इतना आसान है, जितना कांग्रेस के रणनीतिकार सोच रहे हैं? उसे अपने सत्ता वाले राज्यों में भितरघात से जूझना पड़ेगा तो केरल में उसे अपने ही एक सहयोगी घटक राकांपा से भिड़ना होगा। शरद पवार पहले ही यहां धर्मनिरपेक्ष दलों के साथ मोर्चा बनाने की घोषणा कर चुके हैं तो पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में सहयोगी दलों के साथ वह जनता की कसौटी पर हैं। इन राज्यों में वह अपने मजबूत सहयोगी दलों के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने के सपने देख रहे हैं। ऐसी जटिल व्यूह रचना के बीच इन राज्यों के राजनीतिक हालात और चुनौतियों को समझना जरूरी हो गया है। राजनीतिक पंडितों की नजरें दो बड़े राज्यों- पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु पर टिकी हैं। यहां आने वाले दिनों में बनने-बिगड़ने वाले समीकरण ही राजनीति की नई पटकथा लिखेंगे। बंगाल में तीन दशक से भी अधिक समय से कम्युनिस्टों का राज है, जिसे तृणमूल कांग्रेस कड़ी चुनौती दे रही है। एक लंबे समय से सत्ता में रहने के कारण उसका विरोध हो रहा है क्योंकि औद्योगिक विकास तेजी से न होने के कारण राज्य की हालत काफी खस्ता हुई है। रोजगार के अवसर कम होने के कारण जहां युवक उससे कट गये हैं, वहीं मोटिया मजदूर भी उसके हाथ से फिसल गया है। ऐसा नहीं कि बुद्धदेव भट्टाचार्य की नजर इस ओर नहीं गई। उन्होंने औद्योगीकरण की दिशा में कदम बढ़ाया भी, पर उनके इस विचार को पार्टी का भरपूर समर्थन नहीं मिला। उन्होंने 2007 में पूर्वी मिदनापुर के नंदीग्राम में रसायन केंद्र बनाने की घोषणा की थी। विशेष आर्थिक नीति के तहत बनाये जाने वाले इस केंद्र की बात ग्रामीणों को रास नहीं आई और उन्होंने विरोध शुरू कर दिया, जिसमें 14 प्रदर्शनकारी पुलिस के हाथों मारे गये। परिणामस्वरूप उन्हें तत्कालीन राज्यपाल से लेकर अपनी पार्टी के बड़े नेताओं की आलोचना झेलनी पड़ी। घनी आबादी वाले इस राज्य में भूमि अधिग्रहण की समस्या को वह ठीक से समझ नहीं पाये। इसके विपरीत प्रदेश में निवेश के लिए उन्होंने उद्योगपतियों से अपनी निकटता बढ़ाई। इससे लोगों में संकेत गया कि वे कारखानेदारों और व्यापारियों के पक्ष में मजदूरों को धोखा दे रहे हैं। विरोध के ऐसे माहौल में उद्योगपतियों ने भी उनसे किनारा कर लिया। इसीलिए 28 माह बाद टाटा ने 2008 में अपनी परियोजना सिंगूर से हटा ली। ऐसे में ग्रामीण जनता भी सरकार से कट गई है। इन विपरीत परिस्थितियों में वामपंथी अपनी राजनीतिक जमीन को बचाने की रणनीति बना रहे हैं। केरल में पार्टी स्वयं अपनों से ही लड़ रही है। मुख्यमंत्री अच्युतानंदन के खिलाफ ही पार्टी का एक बड़ा धड़ा लगा हुआ है। किंतु राज्य में जो हालात हैं, उसमें पार्टी के पास उनसे ईमानदार छवि वाला ऐसा कद्दावर नेता नहीं दिखता जो संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चे का मुकाबला कर सके। इसलिए, लाख मतभेद के बावजूद पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व उनके ही सहारे यहां राजनीतिक भाग्य अजमाना चाह रहा है। वैसे राकपा यहां कांग्रेस के खिलाफ आंखें तरेर रही है पर कांग्रेस के रणनीतिकार इसे आया- गया मान कर चल रहे हैं। उनका मत है कि वामपंथियों में जिस तरह की मारकाट है, वह उससे सत्ता छीन ही लेंगे। उनकी यह सोच कितनी कारगर होगी, यह तो आने वाले समय ही बतायेगा पर अभी इन दोनों राज्यों का जो राजनीतिक परिदृश्य है, उसमें वामपंथ का दुर्ग पूरी तरह हिलता नजर आ रहा है। तृणमूल कांग्रेस के लिए भी यह चुनाव ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ जैसा है। वह वामपंथियों से सरकार छीनने के लिए कोई कोर-कसर छोड़ना नहीं चाहती। यहां कांग्रेस को सीटों के तालमेल पर काफी मोलतोल करना है। वैसे ममता बनर्जी ने अपने तेवर दिखा दिये हैं। वह कांग्रेस को 65 से अधिक सीटें देने को तैयार नहीं जबकि कांग्रेस 100 सीटें चाहती है। ऐसे में तकरार स्वाभाविक है। इन स्थितियों में भितरघात और वोटों के एक-दूसरे के पक्ष में विभाजन की समस्या से इनकार नहीं किया जा सकता। निकाय चुनावों में ममता बनर्जी इस तरह की शिकायत कर चुकी हैं। इसके विपरीत भाजपा ने भी, जिसकी यहां वोटकटवा की भूमिका होगी, सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने की घोषणा की है। ग्रामीण क्षेत्रों में वह कम्युनिस्ट पार्टी को नुकसान पहुंचा सकती है तो शहरी और कस्बों में कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन के लिए भी खतरा हो सकती है। वामपंथी इन संभावनाओं के बीच अपनी सफलता की राह तलाश रहे हैं किंतु अभी राज्य का जो परिदृश्य है, उसमें परिवर्तन की आहट सुनाई दे रही है। यह संभव तभी होगा, जब तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन धर्म ईमानदारी से पालन करेंगे। तमिलनाडु में द्रमुक नेता करुणानिधि के लिए अपनी सरकार को बचा पाना आसान नहीं दिखता। भ्रष्टाचार के आरोप से उनकी सरकार सनी है, जिसकी आंच उनके परिवार तक पहुंच चुकी है। उनकी पार्टी का दलित चेहरा ए.राजा दूर संचार घोटाले में सलाखों के पीछे है, जिसे जयललिता चुनावी मुद्दा बना रही हैं। इतना ही नहीं, पार्टी पर आधिपत्य को लेकर उनके परिवार में भी घमासान है। ऐसी स्थिति में करुणानिधि भारी संकट में हैं और कांग्रेस इसी कमजोरी का लाभ सीटों के बंटवारे में उठाना चाहती है। वह 70 से 75 सीट चाहती है, जबकि द्रमुक उसे 53 सीट तक देने को तैयार दिखती है। यहां कांग्रेस का बड़ा वर्ग अकेले अपने बलबूते पर चुनाव लड़ने की पहले से ही वकालत कर रहा है। ऐसे में सामंजस्य बनाना कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसके विपरीत केरल और असम में कांग्रेस को सीटों के जोड़-तोड़ पर ज्यादा मशक्कत नहीं करनी है। असम में पार्टी की नजर छोटे-मोटे दलों के सहयोग पर केंद्रित है। केरल में पार्टी को अपनों को ही एकजुट बनाये रखने के लिए कोशिश करनी पड़ रही है। सूबों में पार्टी कुनबों में बंटी नजर आ रही है। यही बिखराव ही कम्युनिस्टों के लिए फिलहाल राहत देने वाला है। इसके विपरीत असम में असम गण परिषद से अलग हुए धड़े इस बार एकजुट होकर लड़ रहे हैं तो मुस्लिम वोट के लिए परिषद ने भाजपा से दूरी बना ली है क्योंकि यहां के नौ जिलों की 23 से 25 सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। कांग्रेस सहित अन्य क्षेत्रीय दल इन्हें पटाने में लगे हैं। किंतु मुसलमानों के कल्याण को लेकर शुरू योजनाओं में भ्रष्टाचार के चलते मुसलमान नाराज बताये जाते हैं। इसके अलावा कई क्षेत्रीय समीकरण कांग्रेस की राह में चट्टान बन कर खड़े हैं, जिनका हल मतदान से पहले उसे ढू़ंढना है। यह चुनाव घटक दलों के साथ ही साथ कांग्रेस के लिए काफी अहम है। इन चुनावों के परिणाम सीधे केंद्र की राजनीति को प्रभावित करेंगे। यदि बंगाल और तमिलनाडु में उसके सहयोगी दलों को अपेक्षित सफलता नहीं मिलती है तो वह अपनी विफलता का ठीकरा कांग्रेस के माथे फोड़ेंगे क्योंकि केंद्र सरकार के भ्रष्टाचार में लिप्त होने तथा महंगाई रोकने में विफलता के कारण घटक दल पहले ही अपने गुस्से का इजहार कर चुके हैं। ममता बनर्जी ने तो कलकत्ता में महंगाई के सवाल पर अपने सरकार के खिलाफ ही हल्ला बोल दिया था। ऐसे में आगामी 13 मई को इन राज्यों के आने वाले परिणाम केंद्र की गठबंधन की राजनीति को प्रभावित कर सकते हैं, इसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इसलिए कांग्रेस के लिए यह कठिन अग्निपरीक्षा है तो उसके घटकदलों के लिए अस्तित्व की निर्णायक लड़ाई है। कहना न होगा कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव-परिणाम केंद्र की राजनीति को प्रभावित करेंगे। यदि बंगाल और तमिलनाडु में सहयोगी दलों को अपेक्षित सफलता नहीं मिलती है तो वे विफलता का ठीकरा कांग्रेस के माथे फोड़ेंगे। भ्रष्टाचार तथा महंगाई रोकने में केंद्र की विफलता के कारण घटक दल पहले ही गुस्से का इजहार कर चुके हैं। 13 मई को इन राज्यों के आने वाले परिणाम कें द्र की गठबंधन की राजनीति को प्रभावित कर सकते हैं, इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इसलिए कांग्रेस के लिए यह कठिन अग्निपरीक्षा है तो उसके घटक दलोंिवशेष रूप से तृणमूल कांग्रेस के लिए अस्तित्व की निर्णायक लड़ाई है
Monday, March 7, 2011
नई इबारत लिखने की तैयारी
पाच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव इस दफा तय कर देंगे कि देश की राजनीति का आकार- प्रकार कैसा होगा। इन राज्यों में कांग्रेस और उसके घटक दलों की प्रतिष्ठा दांव पर है। सीटों के तालमेल के अलावा भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों पर उन्हें जनता से दो-चार होना है। ऐसे में यह चुनाव कांग्रेस और उसके घटक दलों के लिए अग्नि परीक्षा हैं तो वामपंथियों के सामने अपने दो राज्यों के किलों को बचाये रखने की अहम चुनौती। इन राज्यों में प्रमुख विपक्षी दल भाजपा का कुछ खास नहीं है जबकि वामपंथियों का राजनीतिक अस्तित्व दांव पर है। पश्चिम बंगाल और केरल में उनकी सरकार है और अभी जो राजनीतिक स्थितियां हैं, उनमें उनके इन किलों की चूलें हिलती नजर आ रही हैं। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस के साथ पश्चिम बंगाल और केरल वामपंथियों से छीनकर उन्हें उनकी राजनीतिक औकात बताने की जुगत में है। उसकी कोशिश उसे इन राज्यों में हाशिये पर लाने की है। इसके अलावा उसकी कोशिश असम और पांडिचेरी में अपनी सरकार को येनकेन प्रकारेण सत्ता में बनाये रखने की है। तमिलनाडु में वह द्रमुक के सहारे अपनी पुरानी राजनीतिक जमीन तलाशने की कोशिश में है। क्या यह इतना आसान है, जितना कांग्रेस के रणनीतिकार सोच रहे हैं? उसे अपने सत्ता वाले राज्यों में भितरघात से जूझना पड़ेगा तो केरल में उसे अपने ही एक सहयोगी घटक राकांपा से भिड़ना होगा। शरद पवार पहले ही यहां धर्मनिरपेक्ष दलों के साथ मोर्चा बनाने की घोषणा कर चुके हैं तो पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में सहयोगी दलों के साथ वह जनता की कसौटी पर हैं। इन राज्यों में वह अपने मजबूत सहयोगी दलों के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने के सपने देख रहे हैं। ऐसी जटिल व्यूह रचना के बीच इन राज्यों के राजनीतिक हालात और चुनौतियों को समझना जरूरी हो गया है। राजनीतिक पंडितों की नजरें दो बड़े राज्यों- पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु पर टिकी हैं। यहां आने वाले दिनों में बनने-बिगड़ने वाले समीकरण ही राजनीति की नई पटकथा लिखेंगे। बंगाल में तीन दशक से भी अधिक समय से कम्युनिस्टों का राज है, जिसे तृणमूल कांग्रेस कड़ी चुनौती दे रही है। एक लंबे समय से सत्ता में रहने के कारण उसका विरोध हो रहा है क्योंकि औद्योगिक विकास तेजी से न होने के कारण राज्य की हालत काफी खस्ता हुई है। रोजगार के अवसर कम होने के कारण जहां युवक उससे कट गये हैं, वहीं मोटिया मजदूर भी उसके हाथ से फिसल गया है। ऐसा नहीं कि बुद्धदेव भट्टाचार्य की नजर इस ओर नहीं गई। उन्होंने औद्योगीकरण की दिशा में कदम बढ़ाया भी, पर उनके इस विचार को पार्टी का भरपूर समर्थन नहीं मिला। उन्होंने 2007 में पूर्वी मिदनापुर के नंदीग्राम में रसायन केंद्र बनाने की घोषणा की थी। विशेष आर्थिक नीति के तहत बनाये जाने वाले इस केंद्र की बात ग्रामीणों को रास नहीं आई और उन्होंने विरोध शुरू कर दिया, जिसमें 14 प्रदर्शनकारी पुलिस के हाथों मारे गये। परिणामस्वरूप उन्हें तत्कालीन राज्यपाल से लेकर अपनी पार्टी के बड़े नेताओं की आलोचना झेलनी पड़ी। घनी आबादी वाले इस राज्य में भूमि अधिग्रहण की समस्या को वह ठीक से समझ नहीं पाये। इसके विपरीत प्रदेश में निवेश के लिए उन्होंने उद्योगपतियों से अपनी निकटता बढ़ाई। इससे लोगों में संकेत गया कि वे कारखानेदारों और व्यापारियों के पक्ष में मजदूरों को धोखा दे रहे हैं। विरोध के ऐसे माहौल में उद्योगपतियों ने भी उनसे किनारा कर लिया। इसीलिए 28 माह बाद टाटा ने 2008 में अपनी परियोजना सिंगूर से हटा ली। ऐसे में ग्रामीण जनता भी सरकार से कट गई है। इन विपरीत परिस्थितियों में वामपंथी अपनी राजनीतिक जमीन को बचाने की रणनीति बना रहे हैं। केरल में पार्टी स्वयं अपनों से ही लड़ रही है। मुख्यमंत्री अच्युतानंदन के खिलाफ ही पार्टी का एक बड़ा धड़ा लगा हुआ है। किंतु राज्य में जो हालात हैं, उसमें पार्टी के पास उनसे ईमानदार छवि वाला ऐसा कद्दावर नेता नहीं दिखता जो संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चे का मुकाबला कर सके। इसलिए, लाख मतभेद के बावजूद पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व उनके ही सहारे यहां राजनीतिक भाग्य अजमाना चाह रहा है। वैसे राकपा यहां कांग्रेस के खिलाफ आंखें तरेर रही है पर कांग्रेस के रणनीतिकार इसे आया- गया मान कर चल रहे हैं। उनका मत है कि वामपंथियों में जिस तरह की मारकाट है, वह उससे सत्ता छीन ही लेंगे। उनकी यह सोच कितनी कारगर होगी, यह तो आने वाले समय ही बतायेगा पर अभी इन दोनों राज्यों का जो राजनीतिक परिदृश्य है, उसमें वामपंथ का दुर्ग पूरी तरह हिलता नजर आ रहा है। तृणमूल कांग्रेस के लिए भी यह चुनाव ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ जैसा है। वह वामपंथियों से सरकार छीनने के लिए कोई कोर-कसर छोड़ना नहीं चाहती। यहां कांग्रेस को सीटों के तालमेल पर काफी मोलतोल करना है। वैसे ममता बनर्जी ने अपने तेवर दिखा दिये हैं। वह कांग्रेस को 65 से अधिक सीटें देने को तैयार नहीं जबकि कांग्रेस 100 सीटें चाहती है। ऐसे में तकरार स्वाभाविक है। इन स्थितियों में भितरघात और वोटों के एक-दूसरे के पक्ष में विभाजन की समस्या से इनकार नहीं किया जा सकता। निकाय चुनावों में ममता बनर्जी इस तरह की शिकायत कर चुकी हैं। इसके विपरीत भाजपा ने भी, जिसकी यहां वोटकटवा की भूमिका होगी, सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने की घोषणा की है। ग्रामीण क्षेत्रों में वह कम्युनिस्ट पार्टी को नुकसान पहुंचा सकती है तो शहरी और कस्बों में कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन के लिए भी खतरा हो सकती है। वामपंथी इन संभावनाओं के बीच अपनी सफलता की राह तलाश रहे हैं किंतु अभी राज्य का जो परिदृश्य है, उसमें परिवर्तन की आहट सुनाई दे रही है। यह संभव तभी होगा, जब तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन धर्म ईमानदारी से पालन करेंगे। तमिलनाडु में द्रमुक नेता करुणानिधि के लिए अपनी सरकार को बचा पाना आसान नहीं दिखता। भ्रष्टाचार के आरोप से उनकी सरकार सनी है, जिसकी आंच उनके परिवार तक पहुंच चुकी है। उनकी पार्टी का दलित चेहरा ए.राजा दूर संचार घोटाले में सलाखों के पीछे है, जिसे जयललिता चुनावी मुद्दा बना रही हैं। इतना ही नहीं, पार्टी पर आधिपत्य को लेकर उनके परिवार में भी घमासान है। ऐसी स्थिति में करुणानिधि भारी संकट में हैं और कांग्रेस इसी कमजोरी का लाभ सीटों के बंटवारे में उठाना चाहती है। वह 70 से 75 सीट चाहती है, जबकि द्रमुक उसे 53 सीट तक देने को तैयार दिखती है। यहां कांग्रेस का बड़ा वर्ग अकेले अपने बलबूते पर चुनाव लड़ने की पहले से ही वकालत कर रहा है। ऐसे में सामंजस्य बनाना कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसके विपरीत केरल और असम में कांग्रेस को सीटों के जोड़-तोड़ पर ज्यादा मशक्कत नहीं करनी है। असम में पार्टी की नजर छोटे-मोटे दलों के सहयोग पर केंद्रित है। केरल में पार्टी को अपनों को ही एकजुट बनाये रखने के लिए कोशिश करनी पड़ रही है। सूबों में पार्टी कुनबों में बंटी नजर आ रही है। यही बिखराव ही कम्युनिस्टों के लिए फिलहाल राहत देने वाला है। इसके विपरीत असम में असम गण परिषद से अलग हुए धड़े इस बार एकजुट होकर लड़ रहे हैं तो मुस्लिम वोट के लिए परिषद ने भाजपा से दूरी बना ली है क्योंकि यहां के नौ जिलों की 23 से 25 सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। कांग्रेस सहित अन्य क्षेत्रीय दल इन्हें पटाने में लगे हैं। किंतु मुसलमानों के कल्याण को लेकर शुरू योजनाओं में भ्रष्टाचार के चलते मुसलमान नाराज बताये जाते हैं। इसके अलावा कई क्षेत्रीय समीकरण कांग्रेस की राह में चट्टान बन कर खड़े हैं, जिनका हल मतदान से पहले उसे ढू़ंढना है। यह चुनाव घटक दलों के साथ ही साथ कांग्रेस के लिए काफी अहम है। इन चुनावों के परिणाम सीधे केंद्र की राजनीति को प्रभावित करेंगे। यदि बंगाल और तमिलनाडु में उसके सहयोगी दलों को अपेक्षित सफलता नहीं मिलती है तो वह अपनी विफलता का ठीकरा कांग्रेस के माथे फोड़ेंगे क्योंकि केंद्र सरकार के भ्रष्टाचार में लिप्त होने तथा महंगाई रोकने में विफलता के कारण घटक दल पहले ही अपने गुस्से का इजहार कर चुके हैं। ममता बनर्जी ने तो कलकत्ता में महंगाई के सवाल पर अपने सरकार के खिलाफ ही हल्ला बोल दिया था। ऐसे में आगामी 13 मई को इन राज्यों के आने वाले परिणाम केंद्र की गठबंधन की राजनीति को प्रभावित कर सकते हैं, इसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इसलिए कांग्रेस के लिए यह कठिन अग्निपरीक्षा है तो उसके घटकदलों के लिए अस्तित्व की निर्णायक लड़ाई है। कहना न होगा कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव-परिणाम केंद्र की राजनीति को प्रभावित करेंगे। यदि बंगाल और तमिलनाडु में सहयोगी दलों को अपेक्षित सफलता नहीं मिलती है तो वे विफलता का ठीकरा कांग्रेस के माथे फोड़ेंगे। भ्रष्टाचार तथा महंगाई रोकने में केंद्र की विफलता के कारण घटक दल पहले ही गुस्से का इजहार कर चुके हैं। 13 मई को इन राज्यों के आने वाले परिणाम कें द्र की गठबंधन की राजनीति को प्रभावित कर सकते हैं, इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इसलिए कांग्रेस के लिए यह कठिन अग्निपरीक्षा है तो उसके घटक दलोंिवशेष रूप से तृणमूल कांग्रेस के लिए अस्तित्व की निर्णायक लड़ाई है
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