राजनीति और नौकरशाही में थॉमस जैसे दागियों पर अंकुश लगाने के उपाय सुझा रहे हैं लेखक….
इंडियन रिसर्जेट इनीशिएटिव (आइआरआइ) एवं अन्य की याचिका पर आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने देश के 14वें सीवीसी पीजे थॉमस की नियुक्ति को गैरकानूनी करार देते हुए उन्हें पद से हटने का आदेश सुना ही दिया और थॉमस ने इस्तीफा भी दे दिया। लेकिन यहां एक बड़ा सवाल अब भी अनुत्तरित है कि क्या इसके लिए सिर्फ थॉमस ही दोषी थे? आखिर वह कौन सी वजह थी कि दागी थॉमस को तमाम योग्य लोगों के होने के बावजूद इस पद पर लाया गया और सरकार अंत तक थॉमस की पैरवी करती रही। निश्चित ही इसका उत्तर तलाशना आसान नहीं है, लेकिन एक बात साफ हो गई है कि हमारे ईमानदार प्रधानमंत्री उतने ईमानदार नहीं हैं जितना कि उन्हें समझा जाता रहा है। इस मामले से उन लोगों का भी मुखौटा उतरा है जो थॉमस को उत्तरोत्तर प्रोन्नति देते गए और जिन लोगों की कृपा से थॉमस चीफ सेके्रटरी, एडीशनल सेके्रटरी होते हुए सेक्रेटरी भारत सरकार और अंत में सीवीसी के पद तक पहुंच गए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से याचिकाकर्ताओं के साथ-साथ देश की जनता को भी लग रहा है कि शायद अब फिर कभी इस पद पर दागी को नहीं बिठाया जाएगा। थॉमस की विदाई के साथ ही ऑपरेशन क्लीनिंग की शुरुआत हो सकती है, जिसे बाकी संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के खिलाफ भी चलाया जाना चाहिए। हवाला कांड में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से शुरू हुए अभियान के बाद अब यह बहुत जरूरी हो गया है कि सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय को भी सरकार के नियंत्रण और प्रभाव से मुक्त कराया जाए। इसके लिए थॉमस केस का फैसला एक मील का पत्थर है। थॉमस मामले का राजनीतिक असर चाहे जो हो, लेकिन इसने हमें यह सोचने को अवश्य विवश किया है कि जनजागरूकता के अभाव में सरकार किस तरह की मनमानी और लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ कर सकती है। यहां हमें थॉमस के वकील द्वारा अदालत में रखे गए उस तर्क को भी नहीं भूलना चाहिए कि जब देश में 153 दागी व्यक्ति सांसद हो सकते हैं और मंत्री तक बन सकते हैं तो थॉमस सीवीसी क्यों नहीं बन सकते हैं? थॉमस के वकील द्वारा दिया गया यह तर्क एक तरह से न्यायिक भावना के प्रति दुर्व्यवहार है। निश्चित ही संविधान के अनुच्छेद 14 में दिए गए समता के अधिकार के तहत थॉमस के वकील का तर्क अपने आपमें सही है, लेकिन इसकी यह व्याख्या सही नहीं है कि राजनेता दागी होने पर भी उच्च पदों पर पहुंच सकते हैं तो सीवीसी क्यों नहीं पहुंच सकता। यहां इस बात की जरूरत है कि जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव किया जाए न कि दागी को सीवीसी बनाया जाए। इस कानून के तहत दो साल से कम की सजा पाए हुए दोषी व्यक्ति चुनाव लड़ सकते हैं। ऐसे लोगों को प्रतिबंधित करने के लिए कानून में संशोधन करने की जरूरत है। थॉमस की तरह ही दूसरे कई मामलों पर सरकार के रवैये को देखते हुए यही लगता है कि सरकार भ्रष्टाचार के मामले पर जरा भी गंभीर नहीं है। उदाहरण के तौर पर काले धन के मुद्दे को ही लिया जाए तो सरकार की कथनी और करनी में भेद स्पष्ट हो जाता है। भारत के सबसे बड़े भ्रष्टाचारी और टैक्स चोर हसन अली को लेकर सुप्रीम कोर्ट को आखिरकार यह तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी कि उसे अभी तक गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया और कोई पूछताछ क्यों नहीं की गई? सरकार की लापरवाही और हसन की गिरफ्तारी न होने के कारण वह अपने काले धन का करीब 30-35 हजार करोड़ रुपया स्विस बैंक से निकाल कर सुरक्षित ठिकाने पर पहुंचा चुका है। यदि हसन अली गिरफ्तार होता तो उसे यह मौका नहीं मिलता और दूसरी तमाम जानकारियां भी सरकार को मिल सकती थीं, जिनके आधार पर काले धन को वापस भारत लाया जा सकता था। हसन अली देश के कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए अपने काले धन को सुरक्षित करने में जुटा हुआ है और सरकार सोई हुई है। सरकार चाहती तो स्विस बैंक में हसन अली के काले धन को जब्त कर सकती थी। मनी लांड्रिंग का मामला होने से सरकार को स्विस बैंक के साथ अलग से समझौता करने की जरूरत भी नहीं है। पाकिस्तान में बेनजीर भुट्टो के विदेशों में जमा धन को भी इसी तरह परवेज मुशर्रफ के कार्यकाल में फ्रीज किया गया था जिसे बाद में आसिफ अली जरदारी के राष्ट्रपति बनने के बाद प्रतिबंध मुक्त कर दिया गया। 1973 बैच के आइएएस अधिकारी थॉमस को 2005-06 में सीवीसी पद के लिए अयोग्य मानते हुए उनकी दावेदारी को निरस्त कर दिया गया था, लेकिन 2008 में उन्हें फिर से इस पद के दावेदारों में शामिल कर लिया गया और अंतत: सितंबर 2010 में उनके नाम पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने विपक्ष की नेता की अस्वीकृति को दरकिनार करते हुए अंतिम मुहर लगा दी। यह जानते हुए भी कि सीवीसी एक्ट 2003 के तहत इस पद पर वही व्यक्ति नियुक्त किया जा सकता है जिसकी ईमानदारी असंदिग्ध हो यानी उस पर संदेह भी नहीं होना चाहिए था। इसके उलट थॉमस पर पॉमोलीन मामले में मुकदमा दर्ज था। इस मामले में चार्जशीट तैयार हो चुकी थी और अभियोजन अनुमति के लिए सरकार के पास लंबित था। यही कारण था कि सुप्रीम कोर्ट ने उनकी नियुक्ति को गैरकानूनी करार दिया। सरकार का यह बयान कि उसे थॉमस के पॉमोलीन मामले की पूरी जानकारी नहीं दी गई थी, सरासर गलत है, क्योंकि ऐसी समिति के पास नाम भेजने से पहले सारी जानकारी कार्मिक मंत्रालय (डीओपीटी) इकट्ठा करता है और वही बॉयोडाटा तैयार करता है। इसके बाद फाइल कैबिनेट की नियुक्ति समिति के पास जाती है और पीएमओ फिर पूरी जांच-पड़ताल करता है। यहां एक प्रश्न यह भी उठता है कि 1999 से 10-11 साल तक थॉमस पर मुकदमा चलाने के लिए अनुमति क्यों नहीं दी गई। यदि मामला सही नहीं था तो सरकार ने इसे अस्वीकृत क्यों नहीं किया? दरअसल, राजनीतिक रसूख रखने वाले अधिकारी इस नियम की आड़ में अपना उल्लू सीधा करते हैं। इसलिए सरकार से अनुमति लेने के कानून को खत्म किए जाने की आवश्यकता है ताकि निष्पक्ष और ईमानदार लोगों की ही बड़े पदों पर नियुक्ति हो सके। वास्तव में भ्रष्टाचार की लड़ाई को कारगर बनाने के लिए पूर्ण शक्तिशाली आइसीएसी (इंडिपेंडेंट कमीशन अगेंस्ट करप्शन) गठित करने की जरूरत है, जिसके कार्यक्षेत्र में प्रधानमंत्री, मंत्री, नौकरशाह और राजनेताओं के अलावा चुनाव आयोग, प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआइ आदि को भी शामिल किया जाए। (लेखक हरियाणा के पूर्व डीजीपी एवं सीबीआइ के पूर्व संयुक्त निदेशक हैं)
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