जिन लोगों को लोकसभा में 22 जुलाई 2008 का दृश्य याद होगा, उनके लिए विकिलीक्स के खुलासे पर आश्चर्य करने का कोई कारण नहीं है। उस दिन मनमोहन सिंह सरकार ने विश्वास मत जीत लिया था, लेकिन मतदान के पूर्व भाजपा के तीन सांसदों द्वारा लोकसभा की मेज पर एक-एक हजार के नोटों से भरी अटैचियां रखने का शर्मनाक नजारा दुनिया के सामने आ चुका था। भारतीय संसद के इतिहास में वह इस किस्म का पहला काला दिन था। इसके पूर्व कभी ऐसा नहीं हुआ था। हालांकि इतना होने के बावजूद विपक्ष तब इसे बड़ा मुद्दा बनाने में सफल नहीं हुआ और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार पूरे आत्मविश्वास से काम करती रही। सरकार की ओर से ही यह आरोप लगाया गया कि विपक्ष ने जानबूझकर उसकी सरकार को बदनाम करने के लिए अपनी ही नोटों की गड्डियां लोकसभा में लहराई। यह बड़ी विचित्र स्थिति थी और पता नहीं क्यों विपक्ष ने बाद में इस मामले को तूल नहीं दिया, लेकिन आम नागरिकों के अंदर यह विश्वास घर कर गया कि सरकार बचाने के लिए करोड़ों का लेन-देन हुआ है। विकिलीक्स के खुलासे से केवल आम नागरिकों की उस धारणा की पुष्टि हुई है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा सरकार बचाने के लिए किसी प्रकार के लेन-देन से इनकार करने मात्र से आम नागरिकों के अंदर घर कर चुकी इस धारणा का अंत संभव नहीं। सरकार और कांग्रेस पार्टी चाहे जो तर्क दे, विकिलीक्स के तथ्यों में कुछ त्रुटियां भी हैं। मसलन, अजीत सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल के लोकसभा में कुल तीन सांसद थे, चार नहीं, जैसा विकिलीक्स बता रहा है और तीनों सांसदों ने विश्वास मत के विरुद्ध मतदान किया था, पक्ष में नहीं। ऐसी कुछ बातें और सामने लाई जा सकती हैं। इससे यह आम धारणा गलत साबित नहीं होती कि सरकार बचाने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त से लेकर अन्य प्रकार के लोभ लालच का शर्मनाक कृत्य किया गया। नचिकेता सतीश शर्मा के साथ था या नहीं, उसने अमेरिकी दूतावास के किसी राजनयिक को नोट दिखाए या नहीं, उसे सरकार बचाने के लिए सांसदों को खरीदने की सूचना दी या नहीं, इन सब पर दो राय हो सकती है, लेकिन इनके आधार पर कांग्रेस पार्टी और सरकार लोगों के गले यह नहीं उतार सकती कि उसके पाले में विपक्ष के जो सांसद आए या जिन्होंने विश्वासमत के दौरान मतदान नहीं किया, उसके पीछे केवल उन सांसदों की अंतरात्मा की आवाज थी। इस समय मसला भारत-अमेरिका नाभिकीय समझौते के सही या गलत होने का भी नहीं, सरकार की साख का है। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का यह तर्क वैधानिक रूप से सही है कि 14वीं लोकसभा में जो कुछ हुआ, उसे 15वीं लोकसभा में लागू नहीं कर सकते। उस समय सरकार विश्वास मत जीत गई और संविधान के अनुसार उसे एक सरकार के सारे अधिकार प्राप्त रहे। प्रणब मुखर्जी से यह प्रश्न किया जाना चाहिए कि क्या कोई अधिकारी अपने कार्यकाल में कोई अपराध करे और इसका खुलासा उसके पद से हटने के बाद हो तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं हो सकती? झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव पर पदमुक्त होने के बाद मुकदमा चला। उन पर भी तो 1993 में अपनी सरकार बचाने के लिए सांसदों को घूस देने का ही आरोप था। यह बात अलग है कि न्यायालय ने उन्हें बरी कर दिया, पर न्यायालय में मुकदमा तो चला। संप्रग तब भी शासन में था और मनमोहन सिंह ही तब भी प्रधानमंत्री थे, इस नाते उस दौरान जो कुछ हुआ, उसका संबंध सीधे वर्तमान के साथ बनता है। अगर घूस देकर सरकार बचाई गई तो साफ है कि ऐसा नहीं किया जाता तो सरकार गिर जाती और अगर सरकार गिर जाती तो उसके बाद की राजनीतिक स्थिति क्या होती, कोई नहीं जानता। संभव है संप्रग बिखर जाता और वह दोबारा शासन में लौटता ही नहीं। अनैतिक और अवैधानिक तरीके से बहुमत हासिल करने वाली सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों की वैधानिकता का प्रश्न भी इससे जुड़ा हुआ है। प्रणब दा का यह तर्क भी उचित नहीं है कि यह किसी संप्रभु देश की सरकार और उसके दूतावास के बीच हुई बातचीत का मसला है और उसके बारे में कुछ नहीं किया जा सकता। यह प्रश्न यहां है ही नहीं। इस समय प्रश्न केवल यह है कि उस दौरान सरकार, मुख्य राजनीतिक पार्टी, उसके अपने नेता तथा सरकार को सहयोग करने आगे आए नेताओं ने सरकार बचाने के लिए संासदों को घूस दिया या नहीं? सारी बातें घूस देने की ओर इशारा कर रही हैं। हम मानते हैं कि एक के बाद एक खुलासे के कारण अस्थिरता की आशंका बढ़ रही है और जनहित के महत्वपूर्ण मुद्दे हाशिए पर जा रहे हैं, जो कतई देशहित में नहीं। किंतु किया क्या जा सकता है। वर्तमान खुलासा और उस समय का समूचा घटनाक्रम तथा सामने आए तथ्य घूस दिए जाने के आरोपों को बल प्रदान करते हैं। विश्वास मत का समर्थन करने के लिए धन देने का आरोप लगाने वाले तत्कालीन तीन भाजपा सांसदों मध्य प्रदेश के मुरैना से अशोक अर्गल, मंडला के सांसद फग्गन सिंह कुलस्ते और सालुंबर राजस्थान से महावीर भगोड़ा ने यह कहा था कि उन्हें जब से धन देने की पेशकश की गई, उन्होंने सारी बातों की वीडियो रिकॉर्डिग करवाई। एक प्रमुख टीवी चैनल ने भी लेन-देन के स्टिंग ऑपरेशन की बात स्वीकारते हुए कहा कि पूरा टेप लोकसभा अध्यक्ष को सौंप दिया गया है। चैनल द्वारा वीडियो नहीं दिखाए जाने पर भाजपा ने यह सार्वजनिक घोषणा की थी कि उसका कोई नेता तब तक चैनल के किसी कार्यक्रम में भाग नहीं लेगा, जब तक पूरा ऑपरेशन प्रसारित नहीं किया जाता। अंतत: उस चैनल ने स्टिंग ऑपरेशन के कुछ अंश प्रसारित भी किए। अगर आरोप के पीछे तथ्य नहीं होता तो भाजपा इतना सख्त रवैया किसी समाचार चैनल के खिलाफ नहीं अपनाती। वैसे भी विपक्ष के 11 सांसदों द्वारा पाला बदलकर मतदान करना और 10 सांसदों का अनुपस्थित रहना यों ही नहीं हो सकता। भाजपा के सात सांसद टूट गए, कांग्रेस को सपा का आश्चर्यजनक साथ मिला, जदयू, अकाली दल यानी राजग एवं वाम खेमे के तेलुगू देशम, जनता दल सेक्युलर के सांसदों ने सरकार के पक्ष में मतदान करके या अनुपस्थित रहकर उसकी जीवन रक्षा में भूमिका निभाई थी। इतना बड़ा राजनीतिक उलटफेर बगैर किसी ऑपरेशन के संभव ही नहीं। ये सांसद नाभिकीय समझौते को भारत के हित में मानने के कारण सरकार बचाना चाहते थे, इसे कौन स्वीकार कर सकता था। इसलिए विकिलीक्स के माध्यम से आए खुलासे पर आश्चर्य करने का कोई कारण नहीं है। राजनीतिक तौर पर संप्रग उस दौरान आरोपों को नकारने में सफल रही और इस समय भी उसका स्वर वही है। प्रधानमंत्री विकिलीक्स की रिपोर्ट को गलत बता रहे हैं। यह भी तर्क दिया जा रहा है कि अमेरिका के बारे में कई हजार पृष्ठ थे, पर उस देश में ऐसा हंगामा नहीं हुआ, जैसा हमारे यहां हो रहा है। अमेरिका संबंधी खुलासे में अपने देश के अंदर सरकार बचाने या समर्थन के लिए घूस देने जैसे शर्मनाक कृत्य का आरोप नहीं था। उसमें विदेश नीति में अमेरिका के राष्ट्रीय हित को साधने के लिए अनैतिक एवं अवैध तरीके अपनाने, उनके राजनयिकों द्वारा दूसरे देशों के नेताओं द्वारा की गई अपमानजनक टिप्पणियां आदि हैं। वस्तुत: दोनों खुलासे में गुणात्मक अंतर है। इसलिए दोनों को एक तराजू में रखकर नहीं तौला जा सकता है। वास्तव में मनमोहन सिंह सरकार के लिए आज यह जरूरी हो गया है कि वह स्वयं के दामन को पाक-साफ साबित करें। अगर वह पाक-साफ साबित करने का उपक्रम करने की जगह अपने बचाव में केवल तर्क देने तक सीमित रहती है तो उसके बारे में कायम आम धारणा और मजबूत होगी। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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