आखिरकार मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति अवैध ठहराकर सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक पदों की गरिमा को बरकरार रखने की दिशा में एक ऐतिहासिक फैसला दिया। हैरानी की बात यह है कि देश में भ्रष्टाचार पर निगरानी के लिए बनी संवैधानिक संस्था की अगुवाई की जिम्मेदारी एक दागी शख्स को दे दी जाती है और सरकार अपने फैसले को तमाम तर्को-कुतर्को के जरिए सही ठहराने की कोशिश करती है। इस मामले की सुनवाई के दौरान कई बार सरकार का रवैया चोरी ऊपर से सीनाजोरी वाला दिखा। इस मामले में शर्मिदा होने के बजाय सरकार की ढिठाई उस वक्त इस सबके जवाब में दिखी जब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि अगर सीवीसी का बेहद ईमानदार होना जरूरी है तो यह पैमाना सभी पदों पर लागू होता है और तब न्यायपालिका में भी हर नियुक्ति की जांच होनी चाहिए। इस पूरे मामले में खुद थॉमस साहब भी पीछे नहीं रहे और कुछ दिनों पहले उन्होंने तर्क दिया था कि जब दागी नेता सांसद बने रह सकते हैं तो वह क्यों नहीं? एक तरफ देश में भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने के लिए यूपीए सरकार हर दिन बयानबाजी करती नजर आती है तो दूसरी तरफ संवैधानिक पदों पर ऐसे लोगों को नियुक्त किया जाता है जो खुद दागदार हैं और जिनकी प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में साफ कहा है कि मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति के लिए बनी उच्चस्तरीय समिति और किसी भी सरकारी संस्था ने सीवीसी जैसी संस्था की ईमानदारी और निष्ठा के मुद्दे को प्राथमिकता नहीं दी। कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने केंद्र सरकार को सबक देते हुए उसे सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सीवीसी की नियुक्ति के मामले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमंत्री पी. चिंदबरम की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगाता है? यह फैसला सरकार को यह सीख देता कि देश से जुड़े अहम फैसलों में विपक्ष की भावना का सम्मान करना किसी भी लोकतंत्र की मजबूती के लिए बेहद जरूरी है। सीवीसी की नियुक्ति के लिए बनी उच्चस्तरीय समिति में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने जब पीजे थॉमस के नाम पर एतराज किया था तो उस वक्त सरकार को उनकी आपत्तियों पर गौर करना चाहिए था। क्या संवैधानिक पदों की गरिमा बरकरार रखना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है? लगातार हो रहे घोटालों और भ्रष्टाचार के बढ़ते मामलों को देखते हुए क्या यह आवश्यक नहीं कि सरकार अपनी जिम्मेदारी को अधिक जिम्मेदारी से निभाती और संवैधानिक पदों पर नियुक्तियों के मामले में अधिक सतर्कता बरतती। बजाय इन सबके सरकार के मंत्री संवैधानिक संस्थाओं पर उंगलियां उठाकर उसकी अहमियत को चुनौती देने की कोशिश करते हैं। दूरसंचार घोटाले पर केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल सरकारी खर्च के हिसाब-किताब पर नजर रखने वाली शीर्ष संस्था नियंत्रण एवं महालेखा परीक्षा यानी कैग के कामकाज के तरीके पर सवाल उठाते हुए यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में सरकार को उतना नुकसान नहीं हुआ है जितना कैग की रिपोर्ट में बताया गया है। कुछ ऐसा ही बयान कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने भी दिया कि कैग उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। मोइली का कहना था कि अगर कैग ने समय रहते हस्तक्षेप किया होता तो कई घोटाले नहीं होते। वर्ष 2009 में भारत के तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी ने राष्ट्रपति से चुनाव आयुक्त नवीन चावला को बर्खास्त करने की सिफारिश की थी जिसे केंद्र सरकार ने खारिज कर दिया था। इस मामले में भाजपा ने चावला के कांग्रेस पार्टी से नजदीकी और पुराने संबंधों का आरोप लगाते हुए उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठाए थे। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से सरकार की किरकिरी हुई है और विपक्ष के हाथ एक बड़ा मुद्दा लग गया है, लेकिन यहां सवाल संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा और उसकी गरिमा को बरकरार रखने का है। अदालत का कहना है कि विपक्ष के पास इस तरह की नियुक्ति को लेकर कोई वीटो तो नहीं है, लेकिन यदि विरोध होता है तो सरकार को इसको ध्यान में रखना चाहिए। इस मामले में एक याचिकाकर्ता और पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री पर भी सवाल खड़े किए हैं, लेकिन देश के कानून मंत्री वीरप्पा मोइली का अभी भी कह रहे हैं इस पूरे मामले में प्रधानमंत्री ने कुछ भी गलत नहीं किया। अभी कुछ दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट ने दूरसंचार मंत्री ए. राजा के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की अनुमति देने में विलंब को लेकर भी सरकार की खिंचाई की थी। दूरसंचार घोटाले पर सुनवाई के दौरान भी सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री की चुप्पी पर सवाल उठाए थे। तब अदालत ने सरकार से पूछा था कि क्या कोई जिम्मेदार अधिकारी किसी शिकायत पर इस तरह से चुप रह सकता है? इस मामले में जनता पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री सुब्रमण्यम स्वामी ने दो साल पहले प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर ए. राजा के खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज करने की अनुमति मांगी थी, लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस मामले पर चुप्पी साधे रहे। कुल मिलाकर संवैधानिक पदों की नियुक्ति का मामला हो या फिर देश में हो रहे तमाम घोटालों का, सरकार की कथनी और करनी में अंतर साफ दिखाई दे रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले में केवल थॉमस की नियुक्ति को रद ही नहीं किया, बल्कि सरकार को आने वाले समय में ऐसे अहम पदों पर नियुक्ति को केवल नौकरशाहों तक सीमित नहीं रखे जाने की बात भी कही है। कोर्ट का कहना है कि जब मुख्य सतर्कता आयुक्त की दोबारा नियुक्ति हो तो प्रक्रिया को केवल नौकरशाहों तक सीमित नहीं रखा जाए, बल्कि समाज से अन्य ईमानदार और निष्ठावान व्यक्तियों के नाम पर भी ध्यान दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट की इस बात का स्वागत किया जाना चाहिए और आने वाले समय में ऐसे पदों पर भ्रष्ट नौकरशाहों को रखने की बजाय बेदाग छवि वाले दूसरे लोगों के बारे में भी विचार करना चाहिए, लेकिन यहां सवाल सरकार की नियत का है। भ्रष्टाचार को लेकर आज देश भर में आवाज उठ रही हैं और तमाम संगठन इसको लेकर आए दिन विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। आम जनता और विपक्ष के सामूहिक दबाव की वजह से सरकार भ्रष्टाचार को लेकर कभी लोकपाल बिल तो कभी भ्रष्टाचारियों को नहीं छोड़ा जाएगा जैसे बयान देकर खानापूर्ति करने में जुटी है। लोकपाल जैसी संस्था भी तभी कारगर साबित होगी जब इनमें होने वाली नियुक्तियों में पारदर्शिता और निष्पक्षता का खयाल रखा जाए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो इन संस्थाओं के लिए सरकार फिर किसी थॉमस की तलाश करेगी जो सरकार के इशारों पर नाचता नजर आए। आवश्यकता इस बात की है कि सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले के बाद केंद्र सरकार और सभी राजनीतिक पार्टियां दलगत राजनीति से ऊपर उठकर देश की संवैधानिक संस्थाओं की मजबूती और उनकी गरिमा को बरकरार रखने के लिए मिलकर ऐसे कदम उठाएं ताकि फिर सीवीसी जैसे अहम पद पर किसी दागी को नियुक्त नहीं किया जा सके। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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