आरक्षण की मांग को लेकर देश में आए दिन कभी कोई समुदाय रेल पटरियों को जाम कर देता है तो कभी कोई सड़कों पर हंगामा करता नजर आता है। पहले गुर्जर समुदाय ने रेल और सड़क यातायात को बाधित किया और अब यही काम जाट समुदाय के लोगों ने शुरू कर दिया है। आरक्षण के लिए कभी कोई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र करता है तो कभी कोई अगड़ा खुद को पिछड़ा साबित करने के लिए सड़कों और रेल पटरियों पर उतर जाता है। आजादी के बाद भारतीय संविधान में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए शुरू किया गया आरक्षण का प्रावधान देखते ही देखते राजनीतिक दलों के लिए अपने-अपने वोट बैंक को बनाए रखने का एक बड़ा जरिया बन गया। आज भले ही समाज में आरक्षण को लेकर कुछ जातियां और समुदाय आंदोलन कर रहे हों, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या आरक्षण के जरिए समाज के इन तबकों का कोई भला होने वाला है? क्या इतने बरसों तक आरक्षण देकर समाज के कमजोर तबके की हालत में किसी तरह का कोई सुधार आया है? क्या केंद्र और राज्य सरकारें या तमाम राजनीतिक दल आरक्षण देकर समाज के कमजोर और पिछड़े तबकों के हालात में वाकई सुधार होते देखना चाहते हैं? दरअसल, राजनीतिक दल या सत्तारूढ़ सरकार की दिलचस्पी समाज के कमजोर और पिछड़े तबके के जीवन स्तर में सुधार की कम और खुद के वोट बैंक बनाने में ज्यादा रही है। देश भर में स्कूलों के हालात किसी से छिपे नहीं हैं। मध्याह्न भोजन को बिचौलिए डकारते जा रहे हैं। यह बात ठीक है कि प्रारंभिक शिक्षा में मामूली सुधार हुआ है, लेकिन आज भी प्रारंभिक शिक्षा में तकरीबन 43 फीसदी बच्चे पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बच्चों में पढ़ाई छोड़ने की स्थिति और भी बदतर है। अनुसूचित जाति के 52 फीसदी से ज्यादा और अनुसूचित जनजाति के 63 फीसदी से ज्यादा बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में हालात और भी बदतर हैं। इन राज्यों में अनुसूचित जाति के 50 फीसदी से ज्यादा बच्चे प्राथमिक शिक्षा से ऊपर अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख पाते। आजादी के बाद से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान आज भी लागू है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि आज भी 75 फीसदी दलित आबादी गरीबी की रेखा के नीचे है। तमाम राजनीतिक दल किस आरक्षण की बात करते हैं? अगर केवल दलित महिलाओं और लड़कियों की बात करें तो आज भी ज्यादातर लोग साक्षर तक नहीं है। लड़कियों को पढ़ने के लिए स्कूल नहीं भेजा जाता है। कुल मिलाकर जब समाज के कमजोर और पिछड़े तबके के लोगों को प्राथमिक शिक्षा भी ठीक से मुहैया नहीं है तो ऐसे में आरक्षण का झुनझुना पकड़ा कर क्या कोई सरकार इनके हालात में सुधार कर सकती है? संविधान में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए शुरुआत के दस बरसों के लिए किए गए प्रावधान को संविधान संशोधन कर हर बार दस-दस साल के लिए बढ़ाया जाता रहा, क्योंकि आजादी के बाद कोई भी सरकार आरक्षण के प्रावधान को खत्म करके अपने वोट बैंक को खतरे में डालने का जोखिम नहीं उठा सकी। बात यहीं आकर नहीं रुकी, कभी कोई राजनीतिक पार्टी आरक्षण की सीमा रेखा को बढ़ाए जाने की बात करती रही तो कभी कोई दल इसके दायरे में बाकी बिरादरियों को शामिल करने की मांग रखकर नए वोट बैंक की तलाश में नजर आया। 20 सितंबर 1978 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने बिंदेश्वरी मंडल की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग की घोषणा की थी, जिसकी रिपोर्ट 21 दिसंबर 1980 को आ गई थी। लेकिन बहुत दिनों तक धूल खाती इस रिपोर्ट के जरिए वीपी सिंह ने खुद को पिछड़ा वर्ग का तथाकथित मसीहा बनने की ठान ली। 1989 में जनता दल सरकार के अस्तित्व में आने के बाद इस मसले पर कार्यवाही प्रारंभ की गई तो इसके विरोध में देश भर में नौजवान सड़कों पर उतर आए और आत्मदाह करने वालों का तांता लग गया। उस वक्त सरकार ने तमाम विरोध को दरकिनार करते हुए 7 अगस्त 1990 को मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा कर दी, लेकिन इसके विरोध में जगह-जगह आगजनी और आत्मदाह की घटनाओं को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 1 अक्टूबर 1990 को इस पर रोक लगा दी थी। एक बार फिर कांग्रेस सत्ता में आई, लेकिन मंडल के कमंडल को पूरी तरह दरकिनार कर वह पिछड़े तबके की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहती थी। कांग्रेस ने राष्ट्रीय मोर्चा की आरक्षण नीति में संशोधन किया और 16 नवंबर 1992 को सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़े वर्ग के आरक्षण को लेकर फैसला सुना दिया, जिसमें आरक्षण की सीमा को पचास फीसदी से कम रखने की बात कही गई थी। इसके साथ ही आरक्षण को सिर्फ प्रारंभिक भर्तियों पर लागू करने की बात कही थी और पदोन्नति पर किसी भी तरह के आरक्षण नहीं दिए जाने की बात थी। सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमीलेयर यानी पिछड़े में अगड़ों को भी आरक्षण से बाहर रखने की बात कही थी और इसके साथ ही विकास और अनुसंधान के काम में लगे संगठनों, संस्थाओं में तकनीकी पदों के संबंध में आरक्षण व्यवस्था लागू नहीं करने की बात कही थी। सुप्रीमकोर्ट के फैसले के मुताबिक इंडियन एयरलाइंस और एयर इंडिया के पायलट, परमाणु और अंतरिक्ष कामों में लगे वैज्ञानिकों जैसे पदों में आरक्षण लागू नहीं होना चाहिए। नवंबर 1992 के इस ऐतिहासिक फैसले में न्यायालय ने साफ कहा था कि यह सूची केवल उदाहरण के तौर पर है और अब यह केंद्र सरकार पर निर्भर करता है कि वह उन सेवाओं और पदों के बारे में यह तय करे, जिन पर आरक्षण लागू नहीं होना चाहिए। कुल मिलाकर सुप्रीमकोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले में आरक्षण के नकारात्मक परिणामों को एक सीमा तक कम करने की बात कही गई थी। इसी बीच तमिलनाडु की विधानसभा में 69 फीसदी आरक्षण संबंधी विधेयक पारित कर दिया गया, जिसे राष्ट्रपति ने अपनी मंज़ूरी दे दी थी और सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले को उलट दिया गया। पिछड़े वर्ग के आरक्षण के संबंध में दिए गए सुप्रीमकोर्ट के फैसले के संदर्भ में तत्कालीन केंद्र सरकार आरक्षण को लेकर कोई स्पष्ट नीति बना सकती थी, लेकिन आज तक किसी भी सरकार या राजनीतिक दल ने वोट बैंक की खातिर ऐसी कोई भी पहल नहीं की। यह वोट बैंक की राजनीति ही है, जिसके चलते उत्तर प्रदेश में जाट आरक्षण की मांग का प्रदेश कांग्रेस से लेकर भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी तक समर्थन कर रही है। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार से लेकर हरियाणा की हुड्डा सरकार तक, रेल पटरियों पर कब्जा जमाए जाट प्रदर्शनकारियों पर सख्त कार्रवाई करने से बच रही है और इस बारे में अदालतों को दखल देना पड़ रहा है। अपने राजनीतिक फायदे के लिए कुछ जातियों को पिछड़े वर्ग में शामिल कराने की राजनीतिक दलों की मंशा ने आज देश में आम जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया है। इसमें कोई दो मत नहीं कि भारतीय समाज में सदियों तक अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और कमजोर वर्ग के लोगों का शोषण हुआ है और समाज के हर तबके को मुख्य धारा से जोड़कर ही हम देश का चौमुखी विकास कर सकते हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि समाज का कमजोर और पिछड़ा तबका अपने लिए आरक्षण की मांग करने की बजाय बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं के हक के लिए सरकार के खिलाफ आवाज उठाए ताकि कोई भी केंद्र या राज्य सरकार आरक्षण का झुनझुना थमाकर उसको फुसलाने की कोशिश नहीं करे। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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