Monday, March 14, 2011

लोहिया के वारिस


उनकी जन्मशती में काफी कुछ सार्थक काम हुआ
किसी नेता या विचारक को हम कैसे याद करते हैं, यह अमूमन उसके कर्म और विचार पर निर्भर नहीं करता, बल्कि यह हमारी वर्तमान दशा और भविष्य के दिशाबोध पर निर्भर करता है। महापुरुषों की याद उनके अपने व्यक्तित्व, कृतित्व और रचना संसार से ज्यादा उनके शिष्यों के आचार-व्यवहार, चिंतन-मनन और काम-काज से बनती है।
इस लिहाज से राममनोहर लोहिया की जन्मशती से बहुत अपेक्षाएं पालने की गुंजाइश नहीं थी। समकालीन भारत में लोहिया के विचार चारों ओर बिखरे हुए हैं। खुद को लोहियावादी मानने वाले लोग तमाम राजनीतिक दलों में पाए जाते हैं। लेकिन कोई एक दल नहीं, जिसे लोहिया की परंपरा का वारिस कहा जा सके। एक समय मुलायम सिंह की पार्टी ऐसा दावा करती थी, अब उसने यह पाखंड भी छोड़ दिया है। लोहिया का नाम किसी राजनीतिक या वैचारिक सत्ता से तार नहीं जोड़ता। ऐसे में 23 मार्च, 2010 को शुरू हुई लोहिया जन्मशती के बारे में यही आशंका थी कि यह एक छोटे से कर्मकांड में बदलकर रह जाएगा।
लेकिन जो कुछ हुआ, उसे महज एक छोटे से कर्मकांड की संज्ञा नहीं दी जा सकती। स्वर्गीय सुरेंद्र मोहन जैसी निर्विवाद छवि की अध्यक्षता में बनी जन्मशती समारोह समिति के कई सदस्यों ने अपने पूर्वाग्रह, सांगठनिक जुड़ाव और सहूलियत से ऊपर उठकर व्यापक एका बनाने का काम किया। देश भर में फैले तमाम कार्यकर्ताओं ने अनेकानेक कार्यक्रमों के जरिये लोहिया को याद किया। बिना किसी चमक-दमक के, पर असीम लगन से हुए इन प्रयासों ने उनकी मूर्तिभंजक छवि बचाए रखी। खुद लोहिया को ऐसे प्रयासों से सुकून मिलता।
विचार जगत में इस जन्मशती के बहाने कुछ नए काम हुए। स्वर्गीय हरिदेव शर्मा की लगन और मस्तराम कपूर के उद्यम से लोहिया की रचनावली प्रकाशित हुई। समाजवादी आंदोलन से जुड़ी तमाम पत्रिकाओं ने विशेषांकों के जरिये लोहिया की याद को दर्ज किया और कुछ नए आयाम भी खोले। देश भर में लोहिया पर सेमिनार हुए। लिहाजा उम्मीद की जा सकती है कि नेहरूवादी और मार्क्सवादी दबदबे के चलते लोहिया को बौद्धिक जगत से बहिष्कृत रखने की परंपरा में सेंध लगेगी।
अगर जन्मशती का उद्देश्य राजनीतिक दायरों में लोहिया का नाम बचाकर रखना और बौद्धिक जगत में लोहिया की पहचान बनाना था, तो दो वर्ष तक चले इन प्रयासों को निरर्थक नहीं कहा जा सकता। लेकिन क्या इतनी भर अपेक्षा रखना लोहिया के साथ न्याय होगा? लोहिया खुद होते, तो निस्संदेह ज्यादा सख्त सवाल पूछते, जैसे कि उन्होंने गांधी के बाद उनके शिष्यों से पूछे थे। राजनीति के दायरे में असली सवाल यह है कि क्या वह राजनीति मजबूत हुई, जिसे लोहिया क्रांतिकारी मानते थे। बौद्धिक क्षेत्र में क्या लोहिया के विचार आगे बढ़े? क्या उनकी वैचारिक परंपरा सुदृढ़ हुई? इनके उत्तर देना लोहियावादियों के लिए कठिन होगा।
लोहिया की राजनीति को उनसे जुड़े लोगों या संगठनों की राजनीति मान लेना न सिर्फ लोहिया के साथ अन्याय होगा, बल्कि हमारे भविष्य के प्रति भी खतरनाक होगा। चाहे मुलायम सिंह यादव हों, शरद यादव हों या फिर रामविलास पासवान, इन सबकी राजनीति का शुरुआती दौर लोहिया के आंदोलन में गुजरा। आज भी वे गाहे-बगाहे लोहिया का नाम ले लेते हैं और उनसे जुड़े प्रतीकों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन उनकी राजनीति अकसर जातिवाद का सहारा लेती है, जिसके प्रति लोहिया ने बार-बार आगाह किया। आज इन सभी नेताओं और दलों की राजनीति उस पूंजीवादी व्यवस्था से समझौता कर चुकी है, जिसके खिलाफ लोहिया ने जीवन भर लडाई लड़ी। अगर यही लोहिया के वारिस हैं, तो लोहियावादी राजनीति का कोई भविष्य न तो है, न होना चाहिए।
आज लोहिया की राजनीति की तलाश हमें लोहियावादी या समाजवादी ठप्पे से दूर ले जाएगी। लोहिया के राजनीतिक वारिसों की खोज आज हमें देश भर में फैले जनांदोलनों तक ले जाएगी। वे स्वयं को समाजवादी नहीं कहते। कई तो लोहिया का नाम तक नहीं जानते। लेकिन उनके आंदोलन आज वही काम कर रहे हैं, जो लोहिया ने किया।
विचार जगत में भी हमें इसी ईमानदारी और निर्ममता से काम लेना होगा। लोहियावादी दृष्टि का मतलब यह नहीं हो सकता कि हम उनकी लिखी-कही हर बात से चिपके रहें। उनके सिद्धांत के प्रति न्याय करने के लिए हमें लोहिया के विचार से असहमत होना पड़ सकता है, नए तथ्यों की रोशनी में उनके आग्रहों से अलग होना पड़ सकता है। यही नहीं, अगर हम लोहिया के सवालों को गंभीरता से लें, तो कई बार हमें उनके उत्तर को खारिज करना पड़ेगा। उनकी वैचारिक विरासत का सबसे बड़ा खजाना है, उनकी विचार पद्धति और नजरिया, जो हमें बिलकुल नए सवालों और उनका उत्तर देने के नए तरीकों की ओर ले जाता है। इस पद्धति की खूबसूरती यही है कि इसमें बने-बनाए उत्तर नहीं हैं। समसामायिक उत्तरों की तलाश हमें अपने आप करनी होगी। ठीक वैसे ही, जैसे लोहिया ने अपने श्रद्धेय विचारकों से सीखते हुए भी अपने उत्तर स्वयं खोजे थे।
लोहिया की विरासत महज एक नेता या संगठन की धरोहर नहीं है। 

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