विगत पांच दिनों से रेल की समयसारणी को पूरी तरह गड़बड़ा देने और लाखों यात्रियों को अचानक अपनी यात्रा रद्द करने के लिए मजबूर करने वाला तथा रेल मंत्रालय को हर रोज करोड़ों को नुकसान पहुंचाने वाला जाटों का आंदोलन अभी रुकने का नाम नहीं ले रहा है। केंद्रीय सेवाओं में पिछड़ी जातियों के लिए मिले आरक्षण में खुद को भी हिस्सेदार बनाने की मांग के साथ जाट आरक्षण संघर्ष समिति के आह्वान पर हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा आसपास के अन्य इलाकों से शुरू जाटों का यह आरक्षण आंदोलन तेज हो गया है। खबरों के मुताबिक समिति के पदाधिकारियों और केंद्रीय कैबिनेट सचिव के बीच होने वाली बातचीत जाट नेताओं की नई शर्त के कारण नहीं हो सकी, जिसमें उत्तर प्रदेश के अधिकारियों को भी साथ ले जाने की बात कही गई थी। इस बीच जाट नेताओं ने केंद्र सरकार की अर्थी निकाल कर उसे पूरे ट्रैक पर घुमा कर उसका दाहसंस्कार भी किया। संघर्ष समिति का तर्क सीधा है कि अगर राजस्थान, दिल्ली और उत्तर प्रदेश के स्तर पर उन्हें पिछड़ी जाति मान लिया गया है तो आखिर केंद्र सरकार क्यों आनाकानी कर रही है। इसे आप वोट की राजनीति का दबाव कहें या उनके रुख में आया परिवर्तन, मगर विभिन्न राज्य सरकारों ने भी जाटों की इस मांग का समर्थन किया है। पिछले साल जब जाट आरक्षण की अपनी मांग को लेकर सड़कों पर थे और उन्होंने उत्तर प्रदेश से दिल्ली जाने वाली जल आपूर्ति रोकने की बात कही थी, उस वक्त मुख्यमंत्री मायावती ने उनके आंदोलन को अपना नैतिक समर्थन दिया था और कहा था कि उन्हें दिल्ली सरकार पर जोर डालना चाहिए। यही हाल हरियाणा की वर्तमान सरकार का है, जिसकी विधानसभा ने इस संबंध में प्रस्ताव पारित कर उसे केंद्र सरकार के पास भेज दिया है। प्रश्न उठता है कि अपने आप को पिछड़ा साबित करने की जाट समुदाय की मांग के पीछे का तर्क क्या है? इसे समझने के लिए हम मंडल आयोग की सिफारिशों पर गौर कर सकते हैं, जिसका गठन वर्ष 1978 में मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व वाली जनता पार्टी सरकार ने संविधान की धारा 340 के तहत किया था। अन्य पिछड़ी जातियों में सामाजिक एवं शैक्षिक तौर पर पिछड़ी किन जातियों को शामिल किया जा सकता है, इसके लिए उसने एक लंबी कवायद की थी। और लगभग चार हजार जातियों को सामाजिक एवं शैक्षिक आधार पर पिछड़ा घोषित किया था। गौरतलब है कि अपने विस्तृत अध्ययन के आधार पर मंडल आयोग ने अपनी फेहरिस्त में जाटों को शामिल नहीं किया था। वर्ष 1980 में ही सरकार के सामने पेश इस रिपोर्ट के आधार पर वर्ष 1989 में तत्कालीन वीपी सिंह सरकार ने केंद्र सरकार की नौकरियों में पिछड़ों के लिए आरक्षण की घोषणा की थी। सोचने का मसला है कि आखिर किस आधार पर मंडल आयोग ने जाटों को पिछड़ी जाति में शामिल नहीं किया था। दरअसल, आयोग ने जरूरी आंकड़े और सबूत पाने के लिए कई पद्धतियों व तकनीक को अपनाया था, जिसके तहत स्थूल रूप में 11 पैमाने थे, जिन्हें सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक हिस्सों में बांटा गया था। ध्यान देने योग्य है कि सभी पैमानों के लिए समान वेटेज नहीं दिया गया था, सामाजिक सूचकांकों के लिए जहां तीन पाइंट वेटेज था तो शैक्षिक पिछड़ापन के लिए 2 पाइंट। वहीं आर्थिक के लिए 1 पाइंट वेटेज था। सामाजिक स्थिति के आकलन के तहत पहले दो बिंदु थे- ऐसी जातियां-वर्ग, जिन्हें अन्य जातियां सामाजिक तौर पर पिछड़ा मानती हैं तो दूसरा बिंदु था, ऐसी जातियां या वर्ग, जो मुख्यत: अपने जीवनयापन के लिए शारीरिक श्रम पर निर्भर रहते हैं। शैक्षिक पैमानों के अहम बिंदु थे, ऐसी जातियां-वर्ग, जहां 5-15 साल की उम्र के बच्चे, जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा हो, उनका अनुपात राज्य औसत से 25 फीसदी अधिक हो तथा जाति-वर्ग विशेष के ऐसे बच्चे, जो 5-15 साल की उम्र के बीच स्कूल छोड़ जाते हों, उनकी संख्या राज्य औसत से 25 फीसदी अधिक हो। आर्थिक पैमानों के तहत प्रमुख बिंदु था पारिवारिक संपत्ति का औसत मूल्य राज्य औसत से कम से कम 25 फीसदी कम हो तथा कच्चे घरों में रहने वाले जाति विशेष के लोगों की संख्या राज्य औसत से 25 फीसदी अधिक हो। क्या यह तर्क करना उचित होगा कि वर्ष 1980 में जाट सामाजिक एवं आर्थिक तौर पर पिछड़े नहीं थे, मगर विगत तीस सालों में उनके सामाजिक आर्थिक सूचकांकों में तेजी से गिरावट आई है, ऐसा कोई प्रमाण नहीं दिखता। आजादी के पहले जाटों को भले ही शूद्र जातियों में ही शुमार किया जाता था, मगर आजादी के साठ साल बाद की स्थिति पर गौर करें तो साधारण व्यक्ति भी देख सकता है कि जाटों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में कितना परिवर्तन आया है। पंजाब-हरियाणा जैसे सापेक्षत: छोटे सूबों की राजनीति और जमीन के अच्छे-खासे हिस्से पर यहां तक कि तमाम शैक्षिक संस्थानों आदि पर इसी जाति का दबदबा है। यही हाल पश्चिमी उत्तर प्रदेश का है। राजधानी दिल्ली के तहत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लगातार होते जा रहे विस्तार के चलते तथा इसके तहत दिल्ली के आसपास जमीन की बढ़ती कीमतें आदि के चलते पहले से ही जमीनों के अच्छे-खासे हिस्से पर नियंत्रण के चलते उनकी आर्थिक स्थितियों में भी इन क्षेत्रों में जबरदस्त उछाल आया है। निश्चित ही सवाल वास्तविक पिछड़ेपन का नहीं है, बल्कि चुनावी राजनीति के तकाजों का बखूबी इस्तेमाल करते हुए अपने आप के लिए नौकरियों में भी अधिकाधिक स्थान हासिल करने का है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में समुदाय विशेष द्वारा अपनी बेहतरी के लिए जो दबाव की राजनीति की जाती है, यह उसी का एक प्रतिफल है। कल्पना की जा सकती है कि अगर जाटों की यह मांग मान ली गई तो इसका असर अन्य वास्तविक पिछड़ी जातियों के अवसर पर अवश्य पड़ेगा। मंडल आयोग की संस्तुतियों के संदर्भ में एक बात अक्सर भुला दी जाती है, वह है सुप्रीम कोर्ट का 1992 को इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार का वह फैसला, जिसके तहत उसने आदेश दिया था कि केंद्र व राज्य सरकारों को चाहिए कि वह स्थायी आयोगों का गठन कर इसके लाभार्थियों की निरंतर पड़ताल करें। न्यायमूर्ति टीके थोम्मन ने कहा था, पिछड़ेपन की पहचान दरअसल समावेश व बहिष्करण की निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। आरक्षण के संवैधानिक संरक्षण के लिए योग्य नागरिकों के तबकों को निरंतर पहचानते, छांटते रहना पड़ेगा ताकि अपात्र को इसका लाभ न मिले। इन प्रस्तावित आयोगों को अर्द्ध-न्यायिक इकाइयों के तौर पर देखा गया था, जो अपने कामकाज को राजनीतिक प्रभावों के वातावरण से दूर रखकर संचालित करेंगे। वैसे मंडल आयोग ने जो पैमाने तय किए थे, उसके पहली दफा उल्लंघन का जिम्मा बीसवीं सदी के आखिरी वर्षो में केंद्र में आई अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को जाता है। राजस्थान में कांग्रेस के जाट जनाधार को अपनी तरफ खींचने के लिए 1999 के लिए लोकसभा के चुनावों के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने जाटों को आरक्षण देने का वादा किया था, जिसका उन्हें काफी लाभ मिला। इसके लिए एक कमजोर-सा तर्क यह दिया गया कि शिवशंकर के नेतृत्व वाले नेशनल कमीशन ऑन बैकवर्ड क्लासेस द्वारा तैयार नवंबर 1997 की एक रिपोर्ट को आधार बनाया, जिसने राजस्थान में जाटों को पिछड़ी जाति का लाभ दिलाने की बात कही थी। अपने वोट बैंक में लगी सेंध से घबराई कांग्रेस ने चुनावों के तत्काल बाद राज्य के पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशों का इंतजार किए बिना जाटों को आरक्षण दे दिया और उसके बाद जो खेल शुरू हुआ, उसकी परिणति अभी हमारे सामने है। अंत में, क्या इस बात की कल्पना की जा सकती है कि आरक्षण को लेकर जारी वर्तमान उठापटक को लेकर संविधान निर्माताओं की क्या प्रतिक्रिया होती? संविधानसभा के अध्यक्ष डॉ अंबेडकर इस बात को देखकर निश्चित ही विचलित हो उठते कि सामाजिक एवं शैक्षिक तौर पर उत्पीडि़त तबकों को समान अवसर प्रदान करते हुए शिक्षा व रोजगार में आरक्षण प्रदान करने की जो नीति अपनाई गई थी, वह गणतंत्र की साठ साला यात्रा के बाद अपने बिल्कुल विपर्यय के रूप में किस तरह सामने आ रही है। ऐसी जातियां-ऐसे तबके अपने लिए विशेष अवसरों की मांग करेंगे, जो आर्थिक, सामाजिक रूप में कहीं से पिछड़े नहीं कहे जा सकते हैं और राजनीतिक स्तर पर भी उनकी सादृश्यता अपनी संख्या के अनुपात में काफी अधिक बनी हुई है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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