विकिलीक्स के खुलासे से संप्रग सरकार की बची-खुची साख भी खत्म होती देख रहे हैं लेखक
भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी संप्रग-2 सरकार एक बार फिर सवालों के घेरे में खड़ी है। विकिलीक्स के खुलासे के बाद सरकार की नीयत और नियति को लेकर विपक्ष का हमलावर रुख यदि और तेज हुआ है तो इसके लिए जिम्मेदार कोई और नहीं खुद सरकार है। एक के बाद एक लगातार हो रहे भ्रष्टाचार के खुलासों की कड़ी में विकिलीक्स का यह खुलासा कि सरकार अमेरिकी इशारे पर काम कर रही है और 2008 में संप्रग-1 सरकार ने संसद में बहुमत का जुगाड़ करने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त की थी, एक गंभीर मामला है। पूरा विपक्ष और देश अब सरकार से जानना चाहता है कि आखिर विकिलीक्स के खुलासे की सच्चाई क्या है और यह भी कि इस मामले को दबाने का प्रयास क्यों किया जा रहा है? सबसे हास्यास्पद पहलू यह है कि दिन-प्रतिदिन जनता की नजरों में अपनी विश्वसनीयता और साख खोती जा रही सरकार सफाई के तौर पर विकिलीक्स की प्रामाणिकता पर ही सवाल उठा रही है और कह रही है कि उसकी सूचनाओं के आधार पर सरकार को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। प्रणब मुखर्जी ने संसद में एक कदम आगे जाते हुए बचाव में तर्क रखा कि सांसदों की खरीद-फरोख्त का मामला संप्रग-1 सरकार के कार्यकाल में उठा था, जबकि वर्तमान सरकार नए रूप में गठित हुई है और इसे जनता ने अलग से जनादेश दिया है, इस कारण संप्रग-2 सरकार संप्रग-1 सरकार के कार्यो के लिए तकनीकी और कानूनी आधार पर जवाबदेह नहीं है। शायद प्रणब मुखर्जी भूल रहे हैं कि सवाल तकनीकी जवाब का नहीं, बल्कि राजनीतिक जवाब का है। तकनीकी रूप से प्रणब मुखर्जी जो कुछ कह रहे हैं वह सही है, लेकिन क्या जनता की नजरों में विश्वसनीयता का प्रश्न सरकार के किसी कार्यकाल विशेष तक का ही मामला होता है। इस तरह के जवाब से भले ही सरकार को फिलहाल बचा लिया जाए, लेकिन जब वे चुनाव में जनता के पास जाएंगे क्या तब भी यही उत्तर होगा? क्या जनता भूल जाएगी कि 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन, राष्ट्रमंडल खेल और सीवीसी मामले में भी सरकार ने शुरू में कुछ ऐसे ही तर्क रखे थे और बाद में क्या हुआ? ए. राजा जेल में हैं, सुरेश कलमाड़ी से पूछताछ चल रही है और सीवीसी पद पर पीजे थॉमस की नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट गैर-कानूनी घोषित कर चुका है, ऐसे में सरकार एक बार फिर पुराने तर्ज पर राजनीतिक दांवपेंच का खेल खेल रही है और पूरे मसले पर जवाब देने के बजाय हठधर्मिता दिखा रही है। सरकार आखिर क्यों नहीं समझ पा रही है कि वह जितनी ज्यादा हठधर्मिता दिखाएगी उसकी छवि उतनी ही धूमिल होगी। यदि सरकार विकिलीक्स के खुलासे पर जांच की मांग मान लेती है तो यह उसकी राजनीतिक बुद्धिमत्ता मानी जाएगी। मेरे विचार से अभी कांगे्रस के पास समय है और वह राजनीतिक दलों के साथ मिल-बैठकर कोई रास्ता निकाल सकती है। यदि यह मामला लंबा खिंचता है तो राजनीतिक ध्रुवीकरण तेज होगा और अंतत: सरकार को ही अधिक नुकसान उठाना पड़ेगा। इस पूरे घटनाक्रम से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि और अधिक धूमिल हुई है और पहली बार विपक्ष ने सीधे उनकी ईमानदारी पर सवाल उठाते हुए उनसे इस्तीफे की मांग की है। प्रधानमंत्री अभी भी कह रहे हैं कि सांसदों की खरीद-फरोख्त की उन्हें कोई जानकारी नहीं है और उन्होंने किसी को भी इसके लिए अधिकृत नहीं किया था। यह जवाब इसके प्रत्युत्तर में है कि कैप्टन सतीश शर्मा के निकट सहयोगी नचिकेता कपूर ने रुपयों से भरा थैला अमेरिकी राजनयिक को दिखाया था और उन्हें आश्वस्त किया था कि सरकार को बचा लिया जाएगा और उनके पास रुपयों की कमी नहीं है। यह तथ्य किसी की सुनी-सुनाई नहीं, बल्कि खुद उस अमेरिकी राजनयिक से संबंधित हैं जिसने यह बात संदेश के रूप में दर्ज करके अमेरिकी सरकार को भेजी थी। राजनयिक शिष्टाचार और अंतरराष्ट्रीय संधि कानून के तहत भले ही संबंधित अमेरिकी से पूछताछ नहीं हो सकती, लेकिन सरकार इस तथ्य को झुठला भी नहीं सकती, क्योंकि उसी विकिलीक्स ने आडवाणी और मलफोर्ड के बीच मुलाकात का खुलासा किया है और यह भी बताया है कि सरकार ने एक समय कम्युनिस्टों पर भरोसा नहीं होने की बात से अमेरिकी सरकार को अवगत कराया था। विकिलीक्स की प्रामाणिकता पर सवाल उठाने वालों को नहीं भूलना चाहिए कि उसकी सूचनाओं को आज तक किसी भी सरकार ने झूठा और मनगढं़त नहीं करार दिया है और न ही इससे उसे कोई विशेष फायदा होने वाला है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि विकिलीक्स ने जो कुछ भी बताया है वह अमेरिकी दूतावास द्वारा अपने अधिकारियों और सरकार को भारत के घटनाक्रम से अवगत कराने के लिए लिखे गए संदेश हैं। जहां तक सरकार के कामकाज और हमारी स्वतंत्र विदेश नीति में अमेरिकी दखलंदाजी का प्रश्न है तो यह कोई नई बात नहीं है। हां, इतना अवश्य है कि इसका खुलासा इतने विस्तार में और प्रामाणिक रूप में पहली बार हुआ है। अमेरिका अपने हितों को पूरा करने के लिए इस तरह के कूटनीतिक हथकंडे अपनाता रहता है। यहां सवाल सरकार की ईमानदारी, राष्ट्रनिष्ठा और देश के हितों को लेकर है। यदि वास्तव में अमेरिकी दबाव और उसके इशारे पर मंत्रियों का फेरबदल किया गया है तो हमारी संप्रुभता और स्वतंत्र नीति के लिए एक खतरनाक संकेत है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि कम्युनिस्ट पार्टियां पहले भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर अमेरिका का पिछलग्गू होने का आरोप लगाती रही हैं और अब यह तथ्यात्मक सच्चाई के रूप में सामने है। वर्तमान सरकार की कार्यप्रणाली व विश्वसनीयता को लेकर टकराव व विरोध के जो दृश्य संसद के भीतर और देश के बाकी हिस्सों में देखने को मिल रहा है वह 1973-74 की याद दिलाता है। उस वक्त भी इंदिरा गांधी की सरकार ने कुछ ऐसी ही हठधर्मिता अपनाई थी, जिसकी अंतिम परिणति आपातकाल के रूप में देश को झेलना पड़ा। हालांकि आज ऐसी कोई संभावना नहीं है, लेकिन जिस तरह से भ्रष्टाचार को कानूनी वैधता प्रदान की जा रही है और विपक्ष की बातों को सरकार अनसुना कर रही है वह कोई शुभ संकेत नहीं। आने वाले दिनों में अपनी खराब होती छवि को सुधारने के लिए सरकार जनहित के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना चाहेगी, जिसका संकेत प्रधानमंत्री के इस बयान से मिलता है कि अब चुनाव सुधारों की आवश्यकता है। आज सवाल सरकार की खत्म होती साख और उस विश्वसनीयता का है जिस पर भरोसा करके जनता ने उसे दूसरे कार्यकाल के लिए विश्वासमत दिया था।
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