चुनाव सुधार के लिए समूचे निर्वाचन तंत्र पर फिर से विचार किए जाने की जरूरत जता रहे हैं लेखक
भारत विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र है। ग्रामसभा से लेकर लोकसभा तक सैकड़ों निर्वाचित पद हैं। प्रत्येक चुनाव में धांधली है, सत्तादल, बाहुबल और धनबल के नंगनाच हैं। कालेधन की ताकत ने जनतंत्र को कलंकित किया है। चुनाव सुधारों की बहस पुरानी है। केंद्र का न्याय और विधि मंत्रालय चुनाव आयोग के साथ मिलकर हाल में छह क्षेत्रीय बैठकें कर चुका है। अगले माह राष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसा ही विचार-विमर्श होना है। इसके बाद उम्मीदवारों का चुनाव खर्च उठाने के मुख्य मुद्दे पर विचार होगा। चुनाव खर्च देना संप्रग के न्यूनतम कार्यक्रम का मुख्य बिंदु है। बेशक चुनाव खर्चीले हैं। विधानसभा के छोटे क्षेत्र के भी चुनाव में 50 लाख से 2 करोड़ का खर्च देखा जा रहा है। लोकसभा के चुनाव करोड़ से 10 करोड़ के बीच लड़े जा रहे हैं। अब मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए दारू के साथ मोटी रकम का चलन भी बढ़ा है। आखिरकार लाखों करोड़ों की धनराशि आती कहां से है? बुनियादी सवाल यह है कि राष्ट्रमंडल खेल, 2-जी स्पेक्ट्रम जैसे महाघोटाले क्या चुनाव खर्च की गलियों से आते हैं और वहीं लौट जाते हैं? बढ़ा चुनाव खर्च सिर्फ एक मुद्दा है। दोष संपूर्ण राजनीतिक तंत्र में है, चुनाव प्रणाली में है, मुनाफाखोर राजनीतिक निर्णयों में है, हाईकमान के कब्जे वाले दलतंत्र में है। निष्पक्ष निर्वाचन जनतंत्र का प्राण है। संविधान सभा की मूल अधिकारों वाली समिति ने स्वतंत्र निर्वाचन को भारत के जन का मौलिक अधिकार बताया था। संविधान सभा ने निष्पक्ष चुनावों की महत्ता पर सहमति व्यक्त की, लेकिन इसे मूलाधिकार से भिन्न किसी अन्य अध्याय में रखने की बात तय हुई। भ्रष्टाचार निर्वाचन प्रणाली का कैंसर है। केएम मुंशी ने कहा कि उम्मीदवार ही भ्रष्टाचार नहीं करते, सरकारें भी भ्रष्टाचार कर सकती है। संविधान निर्माताओं की आशंका सच निकली, चुनाव प्रणाली भ्रष्ट हो चुकी है। सरकार द्वारा चुनाव खर्च का वहन नया मुद्दा नहीं है। इंग्लैंड, आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कनाडा की सरकारें सीमित चुनाव खर्च उठाती हैं, उम्मीदवार चुनाव खर्च का पारदर्शी विवरण देने के लिए बाध्य हैं। अमेरिका में चुनाव का खर्च निजी क्षेत्र ही उठाते हैं, चंदे की धनराशि की सीमा है। चुनावी चंदे का पूरा विवरण व व्यय की मदों का सार्वजनिक किया जाना बाध्यकारी है। भारत में राज्य प्रायोजित चुनाव खर्च की बहस पुरानी है। चुनाव सुधारों पर 1990 में गठित दिनेश गोस्वामी समिति ने इसी तरह की सिफारिश की थी। विधि आयोग ने चुनाव सुधारों पर तैयार अपनी रिपोर्ट-1999 में आंशिक चुनाव खर्च की संस्तुति की थी। दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी ऐसी ही सिफारिश की थी। केंद्र के ऐसे ही प्रस्ताव पर चुनाव आयोग ने फरवरी 2006 में सभी दलों से विचार-विमर्श किया था। धनबल के दुरुपयोग को रोकने के सवाल पर सभी दल एक थे, लेकिन किसी निर्णय पर नहीं पहुंचे। आयोग दरअसल आमूलचूल परिवर्तन चाहता है। केंद्र दिखावे के लिए कुछ करने का श्रेय लेना चाहता है। केंद्र भ्रष्टाचार के आरोपों के घेरे में है। संसद और विधानमंडल जनगणमन भाग्य विधाता हैं। ऐसे सदनों के सदस्यों का निर्वाचन पवित्र अनुष्ठान होता है। देश उनसे निष्पक्षता की उम्मीदें रखता है, लेकिन धनबल और बाहुबल के प्रभाव में चुनाव जीतने वाले संविधान और निर्वाचकों के प्रति जवाबदेह नहीं होते। वे सच्चे जनप्रतिनिधि नहीं होते। वे अपने आर्थिक श्चोतों और बाहुबली सहयोगियों के ही प्रतिनिधि होते हैं। चुनाव की स्टेट फंडिंग को काले धन के प्रभाव का विकल्प बताया जा रहा है, लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त कुरैशी ने चुनाव सुधारों पर आयोजित एक गोष्ठी में स्टेट फंडिंग को खतरनाक प्रस्ताव कहा। कुरैशी के मत में सरकार की यह सहायता दलीय उम्मीदवार को पहले से उपलब्ध धन में ही वृद्धि करेगी। उन्होंने अपराधियों के चुनाव लड़ने को मुख्य मुद्दा बताया। असल में धनबल की समस्या के वास्तविक निदान के लिए पार्टियों द्वारा प्राप्त धन और उसे खर्च करने की विधि को भी पारदर्शी बनाना चाहिए। पूर्व चुनाव आयुक्त जेएम लिंग्दोह ने कॉमनवेल्थ विधि सम्मेलन में स्टेट फंडिंग को बेकार का प्रस्ताव बताया था। कुरैशी और लिंग्दोह की सोच व्यापक है, लेकिन सरकार की सीमित। चुनाव प्रणाली क्षेत्रवाद, वंशवाद, जातिवाद, धनबल और माफियावाद को खुलकर खेलने का अवसर देती है। इस प्रणाली में 15-20 दिन का प्रचार समय मिलता है। प्रत्याशी संसदीय क्षेत्र के सभी गांवों में नहीं जा सकता, विधानसभा प्रत्याशी भी प्रत्यक्ष जनसंवाद नहीं बना सकता। दल संगठन जमीनी नहीं हैं। ऐसे में धनबल और बाहुबल चमत्कार दिखाता है। सरकार चुनाव खर्च ही उठाना चाहती है तो अमेरिकी तर्ज पर सभी प्रत्याशियों को एक मंच पर क्यों नहीं लाती? सभा का खर्च सरकार उठाए, सबको अपना कार्यक्रम बताने का समान अवसर मिले। मतदान को अनिवार्य बनाए जाने पर भी विचार होना चाहिए। समूची चुनाव प्रणाली को ईमानदार बनाए जाने की आवश्यकता है। ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव के लिए विख्यात हैं। भारत भी निर्वाचन प्रणाली को स्वतंत्र और निष्पक्ष क्यों नहीं बना सकता? समूची चुनाव प्रणाली पर समग्र विचार की आवश्यकता है। 20-25 प्रतिशत वोट पाने वाले विधायक सांसद अपने क्षेत्र के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हो सकते। 51 प्रतिशत से कम वोट पाने वाले प्रतिनिधियों के क्षेत्रों में उसी सप्ताह प्रथम और द्वितीय उम्मीदवारों के मध्य दोबारा चुनाव करवाने का कानून क्यों नहीं बनाया जा सकता? राज्यों के सत्तादल विधानसभा चुनावों में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करते हैं। विधानसभा चुनाव के छह माह पूर्व ही विधानसभा को भंग कर राष्ट्रपति शासन के अधीन चुनाव आयोग की सिफारिश पर चलने वाली राज्यपाल नियंत्रित कामचलाऊ सरकार क्यों नहीं चलाई जा सकती? संविधान के अनुच्छेद 324(6) में आयोग के अनुरोध पर राज्यपाल पर चुनाव के लिए जरूरी कर्मचारी वर्ग उपलब्ध कराने की व्यवस्था है। इसी खंड में संशोधन करते हुए राज्य की समूची नौकरशाही को चुनाव के पहले आयेाग के नियंत्रण में किया जा सकता है। राजनीतिक दल ही जनतंत्र की पाठशाला हैं। जो दल अपने आंतरिक संगठनों के चुनाव भी ईमानदारी से नहीं करवा सकते, उनसे निर्वाचनों में आदर्श चुनाव संहिता की उम्मीद कैसे की जा सकती है? दलों के आंतरिक चुनाव भी आयोग के नियंत्रण में होने चाहिए। राजकोष के लुटेरे दलतंत्र को ठीक कीजिए। दिखावे से कुछ नहीं होगा, समग्रता में विचार का कोई विकल्प नहीं होता|
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