Tuesday, March 22, 2011

आरक्षण पर चुप सियासत


जाट आंदोलनकारियों ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से सटे राज्यों में जगह-जगह रोज यातायात ठप कर जन जीवन बेहाल कर दिया है। होली बाद उनका आंदोलन और तेज तथा व्यापक करने का इरादा है। इस बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट ने संज्ञान लेते हुए यूपी सरकार को आंदोलनकारियों से ट्रैक खाली कराने का आदेश दिया है। केंद्रीय सेवाओं में आरक्षण की मांग को लेकर ये आंदोलनकारी सरकार को ब्लैकमेल कर रहे हैं और केंद्र व राज्य की सरकारें हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं क्योंकि वोट की राजनीति आड़े आ रही है। इसीलिए जाम रेलवे ट्रैक को खाली कराने के लिए सख्ती नहीं बरती जा रही है। परिणामस्वरूप आमजन बेहद परेशान हैं। होली के त्योहार पर ट्रेनों के रद्द होने के कारण वह घर नहीं जा पा रहे हैं, परीक्षार्थियों की परीक्षाएं छूट रही हैं। बीमार गंतव्य स्थानों को इलाज के लिए नहीं पहुंच पा रहे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में इनका नग्न नाच चल रहा है। ऐसे में इस आंदोलन ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं। क्या मुट्ठीभर लोग अपने निजी स्वार्थो की पूर्ति के लिए व्यापक जन जीवन को तबाह कर सकते हैं। लोकतंत्र में ‘मांग’ मनवाने का क्या यह सही तरीका है? सरकारें इनके खिलाफ कार्रवाई करने से हिचक क्यों रही हैं? रेलवे ट्रैक जाम करना अथवा देश को आर्थिक क्षति पहुंचाना क्या शांतिपूर्ण आंदोलन की श्रेणी में आता है। इस आंदोलन से परेशान आम नागरिक राज्य-केंद्र सरकारों से इसका जवाब चाहता है। पिछले माह रेलवे बजट के दौरान संसद में रेलमंत्री सुश्री ममता बनर्जी ने अपने बजट भाषण में जब रेल रोको आंदोलन के चलते वर्ष 2010 में 1500 करोड़ रुपये राजस्व के नुकसान की जानकारी दी तो सभी सन्न रह गये थे। क्योंकि रेल बाधाओं के चलते रेलवे को 1500 से अधिक यात्री ट्रेनों को रद्द करना पड़ा था और इतनी ही ट्रेनों को परिवर्तित मागरे से चलाया गया था। इस अवधि में रेल रोको आंदोलनों के 115 मामले दर्ज हुए, इनमें से कुछ आंदोलन तो तीन सप्ताह से अधिक समय तक चले थे। उन्होंने कहा कि अब जिन राज्यों में इस तरह के आंदोलन नहीं होंगे, उस राज्य को तोहफे के तौर पर नई ट्रेनें दी जायेंगी। उनकी यह घोषणा इस आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में सरकारों की भूमिका को देखते हुए हास्यास्पद लगती है क्योंकि वोट की जितनी ताकत जिस आंदोलन के पीछे होगी, उसे किसी भी हद तक कानून तोड़ने की छूट होगी। जाटों का यह आंदोलन उसी का जीता-जागता उदाहरण है। पिछले पांच मार्च से ये आंदोलनकारी रेलवे ट्रैक जाम किये हुए हैं। लगभग तीन सौ करोड़ रुपये का राजस्व का नुकसान हो चुका है। लगभग 270 से अधिक ट्रेनें रद्द हैं और 244 परिवर्तित मार्ग से चलायी गई हैं। रेल यातायात हमारी जीवन रेखा है। इसके संचालन में अवरोध से जहां जन जीवन पर सीधा असर पड़ता है, वहीं देश को भारी आर्थिक क्षति होती है, जिसका सीधा खमियाजा पूरा देश भुगतता है। इसके निर्बाध संचालन के लिए कठोर कानून बनना चाहिए ताकि आंदोलनकारी छोटे स्वार्थो के लिए अवरोध पैदा कर रेल न रोक सकें। आंदोलनकारी जाटों के प्रति सरकारों की यह मेहरबानी अनायास ही नहीं है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान की राजनीति में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 14 लोकसभा और 70 विधानसभा तथा हरियाणा की 4 लोकसभा व 30 विधानसभा सीटों पर इनका दबदबा है। राजस्थान में तो इन्हें आरक्षण मिला ही हुआ है। केंद्र के अलावा हरियाणा व राजस्थान में कांग्रेस की सरकारें हैं तो उत्तर प्रदेश में बसपा का सत्ता पर कब्जा है। वर्ष 2007 में मायावती ने अपने सोशल इंजीनियरिंग फामरूले क्े तहत जाट बहुल खतौली, कांधला, बिजनौर, चांदपुर, कांठ, मोदीनगर तथा शिकारपुर सीटों पर जीत दर्ज कर अजित सिंह के दुर्ग में सेंध लगा दी है। दलित, मुस्लिम और जाट मतदाताओं के इसी समीकरण के चलते उसे आशातीत सफलता भी मिली। अब 2012 में विधानसभा चुनाव होने हैं। इसीलिए मुख्यमंत्री मायावती इस समीकरण को बिगाड़ना नहीं चाहतीं। इसीलिए रेलवे ट्रैक जाम कर जन-जीवन तबाह कर रहे जाटों का आंदोलन उन्हें शांतिपूर्ण लग रहा है। उन्होंने तनिक देर किये बगैर आरक्षण की उनकी मांग का समर्थन कर डाला। इसी राजनीतिक सोच और शैली के हरियाणा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री भी हैं। इसलिए वह भी मौन साधे हैं तो केंद्र की सरकार भी जाटों को नाराज नहीं करना चाहती हैं। इसलिए वह बीच का रास्ता तलाशने की कोशिश में है। इसके विपरीत भाजपा, रालोद, सपा भी उनकी मांग का समर्थन कर रही हैं। इसीलिए आसन्न चुनाव को देखते हुए कोई भी दल उनके आंदोलन के इस तरीके का मुखर विरोध करने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश राज्य का सबसे समृद्ध क्षेत्र है। यहां के जाट काफी सम्पन्न हैं और उनकी आर्थिक स्थिति अन्य जातियों की तुलना में बेहतर है। फिर नौकरियों में इनकी आरक्षण की मांग का औचित्य समझ में नहीं आता। किंतु सच्चाई यह है कि आज आरक्षण वोट बैंक की राजनीति का हथियार बना चुका है। जब भी कहीं से आरक्षण की मांग उठती है, राजनीतिक दल उनके समर्थन में आगे आ जाते हैं क्योंकि उन्हें उनके वोट बैंक के खोने का भय सताने लगता है। सच्चाई यह है कि स्वतंत्रता के बाद अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था केवल दस वर्षो के लिए की गई थी, किंतु हर दस वर्ष के बाद इनके आरक्षण की अवधि बढ़ती ही जा रही है। कोई भी दल इसे खत्म करने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। वैसे आरक्षण की राजनीति को बल वी.पी. सिंह के शासन काल में मिला, जब देश में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई, जिसके तहत पिछड़ी जातियों को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। इस कमीशन ने जाट समुदाय को पिछड़ों की सूची में नहीं रखा था किंतु कुछ राज्यों ने अपनी राजनीतिक सुविधा के लिए उन्हें पिछड़ी जाति के रूप में मान्यता दे दी। इसी के बाद इस समुदाय ने केंद्रीय सेवाओं में आरक्षण की मांग शुरू कर दी। इतना ही नहीं मुस्लिम समुदाय भी आरक्षण की मांग कर रहा है। कुछ राज्यों ने सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर मुस्लिम समाज को आरक्षण देने के उपाय शुरू कर दिये हैं। कुछ राज्य सरकारें इसके लिए केंद्र सरकार पर भी दबाव बना रही हैं। वोट बैंक हथियाने के लिए राजनीतिक दल ‘आरक्षण’ की मांग का बेहिचक समर्थन कर रहे हैं, जो समाज के लिए घातक बनता जा रहा है। क्योंकि सरकारी नौकरियां दिनों-दिन कम होती जा रही हैं, जिसके कारण प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है। ऐसी स्थिति में सक्षम तबकों को आरक्षण का लाभ दिया जायेगा तो किसी न किसी स्तर पर अन्य आरक्षित वगरे के ही अधिकारों में कटौती होगी। इसलिए अपेक्षाकृत सक्षम लोगों को आरक्षण देने की वकालत करने वाले राजनेताओं को आज नये सिरे से सोचने की जरूरत है क्योंकि इससे आने वाले दिनों में आपसी वैमनस्य बढ़ेगा और जातियों के बीच खाई और चौड़ी होगी। आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक रूप से पिछड़े वगरे को समाज की मुख्य धारा में लाने का है न कि सरकारी नौकरियां बांटने का। ऐसे में आरक्षित वगरे के लिए नौकरियां सीमित ही रहेंगी। इसीलिए आरक्षण की सीमा बढ़ाने के लिए संविधान में संशोधन की मांग हो रही है। सच्चाई यह है कि जिन जातियों को आरक्षण का लाभ मिल रहा है, वह भी सामाजिक व आर्थिक रूप से मुख्यधारा में नहीं आ सकी हैं। इसका लाभ इन्हीं जातियों के मलाईदार तबकों तक सीमित होकर रह गया है। इसलिए अति पिछड़ा और अति दलित को आरक्षण की मांग शुरू हो गई है। बिहार में यही सवाल चुनावी मुद्दा भी बना और इसके पैरोकार नीतीश कुमार की आज वहां सरकार है। उत्तर प्रदेश में भी यह मांग शुरू हो गई है। इसलिए अब जरूरत आरक्षण के नये तरीकों के बारे में सोचने की है, अन्यथा आरक्षित जातियों के बीच जिस तरह आर्थिक व सामाजिक विषमता बढ़ रही है, वह सामाजिक समरसता को तोड़ने का कारक बनने की दिशा में तेजी से बढ़ रही है। इस खतरे को समझना होगा। आज देश में जनगणना हो रही है, उसमें जातियों की भी गिनती होनी है। उसी के बाद सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों के आंकड़े सामने आयेंगे। तभी हमारे नेताओं को इन आंकड़ों के आधार पर आरक्षण का नया रूप देना चाहिए। यदि आरक्षण के नये तरीके नहीं बनाये गये तो इसके राजनीतिक इस्तेमाल की प्रवृत्ति बढ़ती चली जायेगी, जो समाज के लिए अहितकारी होगी। जाट आज अपने वोट की ताकत का धौंस दिखाकर सरकारों को ब्लैकमेल कर रहे हैं। उनकी आरक्षण की मांग का औचित्य समझे बगैर उनका समर्थन करने वाले राजनीतिक दलों को राजनीति से ऊपर उठकर उनके आंदोलन के इस तरीके का प्रबलता से विरोध करना चाहिए, अन्यथा रेलवे ट्रैक जाम करने की घटनाएं आम हो जाएंगी। दूसरे, सरकार को बगैर किसी राग-द्वेष के कानून हाथ में लेने वाले ऐसे आंदलोनकारियों से सख्ती से निपटना होगा। ऐसे कड़े कानून बनाये जाने चाहिए ताकि कोईंआंदोलनकारी जन जीवन को तबाह न कर सके। क्योंकि केंद्र और राज्य सरकारों (उत्तर प्रदेश/हरियाणा) की भूमिका से लोगों में निराशा बढ़ी है और उनके इस रवैये की चहुंतरफा आलोचना हो रही है। जाट आज अपने वो ट की ताकत का धौंस दिखाकर सरकारों को ब्लैकमेल कर रहे हैं। उनकी आरक्षण की मांग का औ चित्य समझे बगैर उनका समर्थन करने वाले राजनीतिक दलों को राजनीति से ऊपर उठकर उनके आंदोलन के इस तरीके का प्रबलता से विरोध करना चाहिए, अन्यथा रेलवे ट्रैक जाम करने की घटनाएं आम हो जाएंगी। सरकार को बगैर किसी राग-द्वेष के कानू न हाथ में लेने वाले आंदोलनकारियों से सख्ती से निपटना हो

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