योजना आयोग जोरों से इसका विरोध कर रहा था। उसका कहना था कि कम से कम इस समय चल रही 11 वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान तो किसी भी तरह से यह बढ़ोतरी नहीं की जा सकती है। क्यों? क्योंकि इस मद में 2 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा के अतिरिक्त आवंटन के बाद, सरकार की महत्त्वाकांक्षी योजनाओं के लिए भी पैसा नहीं बचेगा! वैसे भी निधि का उपयोग भी न ईमानदारी से होता है, न न्यायपूर्ण तरीके से
सांसद निधि का झुनझुना अब देश को करीब चार हजार करोड़ रुपये सालाना का पड़ेगा। ठीक- ठीक कहें तो 3950 करोड़ रुपये का। संसद के बजट सत्र के आखिर तक सरकार ने सांसद लोकल एरिया डेवलपमेंट कार्यक्रम निधि को ढाई गुना कराने पर मोहर लगवा ही ली। यह निधि अब दो करोड़ सालाना से बढ़ाकर पांच करोड़ रुपये सालाना कर दी गई है। अब इस मद में कुल 2370 करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्चा होगा। अब तक इस कार्यक्रम पर कुल 1580 करोड़ रुपये के खर्च का प्रावधान था। वैसे इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि जहां पिछले दो वर्ष से ज्यादा से लटके इस प्रस्ताव के पक्ष में फैसला कराने में, इसी अप्रैल-मई में हो रहे पांच राज्यों के विधानसभाई चुनाव खास प्रेरणा बने हैं, वहीं सांसदों के हाथों में कृपा बांटने की इस बढ़ी हुई ताकत का, इन विधानसभाई चुनावों में इस्तेमाल नहीं किया जा सकेगा। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने यह स्पष्ट किया कि उक्त पांचों राज्यों के सांसद, इस चुनाव तक बढ़ी हुई राशि के आधार पर वादे आदि नहीं कर सकेंगे। मुद्दा यह नहीं है कि इस तरह के वादों आदि पर कोई कारगर अंकुश लगाया भी जा सकता है या नहीं। असली मुद्दा यह है कि इस योजना को वोटरों की खरीद-फरोख्त के साधन की तरह भी देखा जा रहा है। स्थानीय क्षेत्र विकास कार्यक्रमों के लिए सांसदों के नियंतण्रमें एक निश्चित किंतु छोटी सी निधि मुहैया कराने की यह व्यवस्था, शुरू से ही विवादों से घिरी रही है। दूसरी ओर, यह भी उतना ही बड़ा सच है कि सांसदों की बहुत हद तक आम सहमति से, यह निधि अब बढ़ाकर ढाई गुनी ही नहीं कर दी गई है बल्कि अब देश के लगभग हरेक राज्य में विधायकों/ विधान परिषद सदस्यों के लिए, इसी तरह की योजना चल रही है। वास्तव में अचरज नहीं होगा कि सांसद निधि में उल्लेखनीय बढ़ोतरी का अनुसरण करते हए, अब राज्यों में भी विधायक निधि में इसी तरह की बढ़ोतरी का सिलसिला शुरू हो। वामपंथ को छोड़कर और अब बिहार की नीतीश कुमार की सरकार को भी छोड़कर, देश का राजनीतिक वर्ग आमतौर पर इस निधि को बढ़ाए जाने के ही पक्ष में है, भले ही बहुत बढ़-चढ़कर इसके पक्ष में मैदान में उतरना उसे मंजूर न हो। राजनीतिक वर्ग के इस तरह के रुख के कारण खोजना भी कोई मुश्किल नहीं है। नव-उदारवादी नीतियों के मौजूदा दौर में, खासतौर पर सरकार की आर्थिक नीतियों तथा छोटे-बड़े तमाम आर्थिक निर्णयों को, करीब-करीब पूरी तरह से आम जनता से ही नहीं काट दिया गया है, उसके प्रतिनिधियों के नियंतण्रसे भी ऊपर कर दिया गया है। बुनियादी तौर पर इस तरह के सभी मामलों में बाजार को ही सर्वोच्च निर्णायक बनाकर, सारी शक्तियां उसी के हाथों में सौंप दी गयी हैं। बाजार की इस निरंकुश सत्ता में सामने खुद सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियां तक लाचार नजर आती हैं, फिर साधारण जन-प्रतिनिधियों की तो बात ही कहां उठती है। ठीक इसी इमरजेंसी से निपटने के लिए, एक आपात उपचार के रूप में इसका दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है कि जन-प्रतिनिधियों को कुछ खर्चो के अनुमोदन का हक हो ताकि वे अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों की छोटी-मोटी समस्याओं को निपटा सकें। इस लिहाज से पांच करोड़ रुपये सालाना की निधि भी ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं होगा। जब एक लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत औसतन 20 लाख की आबादी बैठती है, अब बढ़ाया गया कोष भी एक व्यक्ति पर पचास रुपये से ज्यादा नहीं बैठता है, जबकि पहले तो यह 10 रुपये के बराबर ही था। इसीलिए, अचरज की बात नहीं है कि 2009 के जून के महीने में केंद्रीय आंकड़ा व कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने, सांसद निधि में बढ़ोतरी का प्रस्ताव किया था, जिसे मंजूरी की मंजिल तक पहुंचते-पहुंचते पूरे पौने दो बरस लग गए। जाहिर है कि अगर निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथों में आर्थिक निर्णय की मामूली सी शक्ति सुनिश्चित करने की नीयत से राजनीतिक वर्ग आम तौर पर इस निधि में बढ़ोतरी की मांग कर रहा था, तो विपरीत दिशा से ठीक इसी के विरोध में नव-उदारवादी आर्थिक निर्णय ढांचे के प्रमुख हथियार के रूप में योजना आयोग, उतने ही जोरों से इसका विरोध कर रहा था। योजना आयोग का कहना था कि कम से कम इस समय चल रही 11 वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान तो किसी भी तरह से यह बढ़ोतरी नहीं की जा सकती है। क्यों? क्योंकि इस मद में 2 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा के अतिरिक्त आवंटन के बाद, सरकार की महत्त्वाकांक्षी योजनाओं के लिए भी पैसा नहीं बचेगा! याद रहे कि यह तर्क उस योजना आयोग द्वारा दिया जा रहा था जो हर साल विभिन्न करों में, एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की छूटें दिए जाने को, सामान्य मामले की तरह स्वीकार करता आया है!
इस सबके बावजूद सांसद निधि की व्यवस्था जनता के लिए और उससे भी बढ़कर उसके प्रतिनिधियों के लिए, एक झुनझुना पकड़ा दिए जाने का ही मामला है। यह झुनझुना इस कठोर सचाई की ओर से ध्यान बंटाने का ही काम करता है कि इतने विशाल देश के लिए आर्थिक नीतियों के निर्धारण और फैसलों को, जनता के, उसके प्रतिनिधियों के और उनकी संसद के नियंतण्रसे पूरी तरह से ऊपर पहुंचा दिया गया है। सांसद के हाथों में गली के खरंजे या पानी के कुछ नलके लगवाने या स्कूल की इमारत बनवाने आदि-आदि के बहुत ही सीमित मौके सौंपकर, उन्हें वास्तविक निर्णय प्रक्रियाओं से बाहर ही कर दिया जाता है। यह संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था के भीतर, आर्थिक मामलों में आम तौर पर सम्पन्न वर्ग की तानाशाही रोपे जाने का ही रास्ता है। जाहिर है कि एक हद तक इसलिए भी, मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों को सांसद निधि के बदले, वास्तविक निर्णयों को जनता के अंकुश से बरी कराने का सौदा, हर तरह से फायदे का ही सौदा लगता है। अचरज नहीं कि इससे आगे बढ़कर व्यवहार में इस सीमित सी निधि का उपयोग भी बहुत हद तक न ईमानदारी से होता है, न न्यायपूर्ण तरीके से। यहां तक कि कृपा बांटने के इस औजार के उपयोग में भी मुख्यधारा की पार्टियां बहुत मुस्तैद नहीं पाई गई हैं। नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट, जो 25 मार्च को संसद के सामने रखी गई, यह बताती है कि 2004-05 से 2008-09 के दौरान, इस निधि के अंतर्गत उपलब्ध फंड का उपयोग 37.43 फीसद से 52.44 फीसद ही रहा था और 2008-09 के आखिर तक, पूरे 1788 करोड़ रुपये खर्च ही नहीं किए जा सके थे। इसके अलावा अचरज की बात नहीं है कि यह कोष भ्रष्टाचार का एक और स्रेत बन गया है। 2005 के आखिर में सांसद निधि से काम कराने की मंजूरी लिए सांसदों के घूस लेने के एक स्टिंग ऑपरेशन में बेनकाब हुए 11 सांसदों की सदस्यता ही समाप्त करनी पड़ी थी। इसी पृष्ठभूमि में लोकसभा के तत्कालीन स्पीकर, सोमनाथ चटर्जी ने इस व्यवस्था को पूरी तरह से खत्म करने की ही सिफारिश की थी। पिछले ही साल ऐसी ही सिफारिश, अपने यहां विधायक/ विधान परिषद निधि खत्म करने के बाद, बिहार सरकार ने भी की है। लेकिन, यह तो भूखे बच्चे से झुनझुना भी छीन लेने सिफारिश है। जब आमतौर पर देश की नीतियों और खासतौर पर आर्थिक नीतियों को जनता के अधिकार सुनिश्चित करने के अंकुश से पूरी तरह से मुक्त कर दिया गया हो, निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए कृपा बांटने के रूप में भीख के कटोरों में चंद सिक्के डालने का रास्ता भी बंद करने को कैसे सही ठहराया जा सकता है।