Wednesday, March 30, 2011

चार हजार करोड़ का झुनझुना


योजना आयोग जोरों से इसका विरोध कर रहा था। उसका कहना था कि कम से कम इस समय चल रही 11 वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान तो किसी भी तरह से यह बढ़ोतरी नहीं की जा सकती है। क्यों? क्योंकि इस मद में 2 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा के अतिरिक्त आवंटन के बाद, सरकार की महत्त्वाकांक्षी योजनाओं के लिए भी पैसा नहीं बचेगा! वैसे भी निधि का उपयोग भी न ईमानदारी से होता है, न्यायपूर्ण तरीके से
सांसद निधि का झुनझुना अब देश को करीब चार हजार करोड़ रुपये सालाना का पड़ेगा। ठीक- ठीक कहें तो 3950 करोड़ रुपये का। संसद के बजट सत्र के आखिर तक सरकार ने सांसद लोकल एरिया डेवलपमेंट कार्यक्रम निधि को ढाई गुना कराने पर मोहर लगवा ही ली। यह निधि अब दो करोड़ सालाना से बढ़ाकर पांच करोड़ रुपये सालाना कर दी गई है। अब इस मद में कुल 2370 करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्चा होगा। अब तक इस कार्यक्रम पर कुल 1580 करोड़ रुपये के खर्च का प्रावधान था। वैसे इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि जहां पिछले दो वर्ष से ज्यादा से लटके इस प्रस्ताव के पक्ष में फैसला कराने में, इसी अप्रैल-मई में हो रहे पांच राज्यों के विधानसभाई चुनाव खास प्रेरणा बने हैं, वहीं सांसदों के हाथों में कृपा बांटने की इस बढ़ी हुई ताकत का, इन विधानसभाई चुनावों में इस्तेमाल नहीं किया जा सकेगा। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने यह स्पष्ट किया कि उक्त पांचों राज्यों के सांसद, इस चुनाव तक बढ़ी हुई राशि के आधार पर वादे आदि नहीं कर सकेंगे। मुद्दा यह नहीं है कि इस तरह के वादों आदि पर कोई कारगर अंकुश लगाया भी जा सकता है या नहीं। असली मुद्दा यह है कि इस योजना को वोटरों की खरीद-फरोख्त के साधन की तरह भी देखा जा रहा है। स्थानीय क्षेत्र विकास कार्यक्रमों के लिए सांसदों के नियंतण्रमें एक निश्चित किंतु छोटी सी निधि मुहैया कराने की यह व्यवस्था, शुरू से ही विवादों से घिरी रही है। दूसरी ओर, यह भी उतना ही बड़ा सच है कि सांसदों की बहुत हद तक आम सहमति से, यह निधि अब बढ़ाकर ढाई गुनी ही नहीं कर दी गई है बल्कि अब देश के लगभग हरेक राज्य में विधायकों/ विधान परिषद सदस्यों के लिए, इसी तरह की योजना चल रही है। वास्तव में अचरज नहीं होगा कि सांसद निधि में उल्लेखनीय बढ़ोतरी का अनुसरण करते हए, अब राज्यों में भी विधायक निधि में इसी तरह की बढ़ोतरी का सिलसिला शुरू हो। वामपंथ को छोड़कर और अब बिहार की नीतीश कुमार की सरकार को भी छोड़कर, देश का राजनीतिक वर्ग आमतौर पर इस निधि को बढ़ाए जाने के ही पक्ष में है, भले ही बहुत बढ़-चढ़कर इसके पक्ष में मैदान में उतरना उसे मंजूर न हो। राजनीतिक वर्ग के इस तरह के रुख के कारण खोजना भी कोई मुश्किल नहीं है। नव-उदारवादी नीतियों के मौजूदा दौर में, खासतौर पर सरकार की आर्थिक नीतियों तथा छोटे-बड़े तमाम आर्थिक निर्णयों को, करीब-करीब पूरी तरह से आम जनता से ही नहीं काट दिया गया है, उसके प्रतिनिधियों के नियंतण्रसे भी ऊपर कर दिया गया है। बुनियादी तौर पर इस तरह के सभी मामलों में बाजार को ही सर्वोच्च निर्णायक बनाकर, सारी शक्तियां उसी के हाथों में सौंप दी गयी हैं। बाजार की इस निरंकुश सत्ता में सामने खुद सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियां तक लाचार नजर आती हैं, फिर साधारण जन-प्रतिनिधियों की तो बात ही कहां उठती है। ठीक इसी इमरजेंसी से निपटने के लिए, एक आपात उपचार के रूप में इसका दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है कि जन-प्रतिनिधियों को कुछ खर्चो के अनुमोदन का हक हो ताकि वे अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों की छोटी-मोटी समस्याओं को निपटा सकें। इस लिहाज से पांच करोड़ रुपये सालाना की निधि भी ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं होगा। जब एक लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत औसतन 20 लाख की आबादी बैठती है, अब बढ़ाया गया कोष भी एक व्यक्ति पर पचास रुपये से ज्यादा नहीं बैठता है, जबकि पहले तो यह 10 रुपये के बराबर ही था। इसीलिए, अचरज की बात नहीं है कि 2009 के जून के महीने में केंद्रीय आंकड़ा व कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने, सांसद निधि में बढ़ोतरी का प्रस्ताव किया था, जिसे मंजूरी की मंजिल तक पहुंचते-पहुंचते पूरे पौने दो बरस लग गए। जाहिर है कि अगर निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथों में आर्थिक निर्णय की मामूली सी शक्ति सुनिश्चित करने की नीयत से राजनीतिक वर्ग आम तौर पर इस निधि में बढ़ोतरी की मांग कर रहा था, तो विपरीत दिशा से ठीक इसी के विरोध में नव-उदारवादी आर्थिक निर्णय ढांचे के प्रमुख हथियार के रूप में योजना आयोग, उतने ही जोरों से इसका विरोध कर रहा था। योजना आयोग का कहना था कि कम से कम इस समय चल रही 11 वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान तो किसी भी तरह से यह बढ़ोतरी नहीं की जा सकती है। क्यों? क्योंकि इस मद में 2 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा के अतिरिक्त आवंटन के बाद, सरकार की महत्त्वाकांक्षी योजनाओं के लिए भी पैसा नहीं बचेगा! याद रहे कि यह तर्क उस योजना आयोग द्वारा दिया जा रहा था जो हर साल विभिन्न करों में, एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की छूटें दिए जाने को, सामान्य मामले की तरह स्वीकार करता आया है!
इस सबके बावजूद सांसद निधि की व्यवस्था जनता के लिए और उससे भी बढ़कर उसके प्रतिनिधियों के लिए, एक झुनझुना पकड़ा दिए जाने का ही मामला है। यह झुनझुना इस कठोर सचाई की ओर से ध्यान बंटाने का ही काम करता है कि इतने विशाल देश के लिए आर्थिक नीतियों के निर्धारण और फैसलों को, जनता के, उसके प्रतिनिधियों के और उनकी संसद के नियंतण्रसे पूरी तरह से ऊपर पहुंचा दिया गया है। सांसद के हाथों में गली के खरंजे या पानी के कुछ नलके लगवाने या स्कूल की इमारत बनवाने आदि-आदि के बहुत ही सीमित मौके सौंपकर, उन्हें वास्तविक निर्णय प्रक्रियाओं से बाहर ही कर दिया जाता है। यह संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था के भीतर, आर्थिक मामलों में आम तौर पर सम्पन्न वर्ग की तानाशाही रोपे जाने का ही रास्ता है। जाहिर है कि एक हद तक इसलिए भी, मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों को सांसद निधि के बदले, वास्तविक निर्णयों को जनता के अंकुश से बरी कराने का सौदा, हर तरह से फायदे का ही सौदा लगता है। अचरज नहीं कि इससे आगे बढ़कर व्यवहार में इस सीमित सी निधि का उपयोग भी बहुत हद तक न ईमानदारी से होता है, न न्यायपूर्ण तरीके से। यहां तक कि कृपा बांटने के इस औजार के उपयोग में भी मुख्यधारा की पार्टियां बहुत मुस्तैद नहीं पाई गई हैं। नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट, जो 25 मार्च को संसद के सामने रखी गई, यह बताती है कि 2004-05 से 2008-09 के दौरान, इस निधि के अंतर्गत उपलब्ध फंड का उपयोग 37.43 फीसद से 52.44 फीसद ही रहा था और 2008-09 के आखिर तक, पूरे 1788 करोड़ रुपये खर्च ही नहीं किए जा सके थे। इसके अलावा अचरज की बात नहीं है कि यह कोष भ्रष्टाचार का एक और स्रेत बन गया है। 2005 के आखिर में सांसद निधि से काम कराने की मंजूरी लिए सांसदों के घूस लेने के एक स्टिंग ऑपरेशन में बेनकाब हुए 11 सांसदों की सदस्यता ही समाप्त करनी पड़ी थी। इसी पृष्ठभूमि में लोकसभा के तत्कालीन स्पीकर, सोमनाथ चटर्जी ने इस व्यवस्था को पूरी तरह से खत्म करने की ही सिफारिश की थी। पिछले ही साल ऐसी ही सिफारिश, अपने यहां विधायक/ विधान परिषद निधि खत्म करने के बाद, बिहार सरकार ने भी की है। लेकिन, यह तो भूखे बच्चे से झुनझुना भी छीन लेने सिफारिश है। जब आमतौर पर देश की नीतियों और खासतौर पर आर्थिक नीतियों को जनता के अधिकार सुनिश्चित करने के अंकुश से पूरी तरह से मुक्त कर दिया गया हो, निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए कृपा बांटने के रूप में भीख के कटोरों में चंद सिक्के डालने का रास्ता भी बंद करने को कैसे सही ठहराया जा सकता है।

चिदंबरम की सोच का सच क्या है


इस समय पूरी दुनिया टेक्नोलॉजी की बढ़त की चपेट में है। मामला चाहे मिस्र की मुक्ति की लड़ाई में इंटरनेट की भूमिका का हो, मीडिया की पहुंच के कारण बिहार में सुशासन की विजय का हो या विकिलीक्स के खुलासों से घायल छद्म लोकतंत्र का, हर मामले में टेक्नोलॉजी की विजय हुई है। विकिलीक्स के ताजे खुलासे में देश के गृहमंत्री पी चिदंबरम की दोहरी मानसिकता का पर्दाफाश कर दिया है। 25 अगस्त 2009 को अमेरिकी राजदूत टिमोथी रोमर द्वारा अपने देश को भेजे गए गुप्त संदेश में गृहमंत्री चिदंबरम द्वारा कही गई तमाम आपत्तिजनक बातों का खुलासा हुआ है। इन खुलासों से पूरा देश भौचक और हतप्रभ है। इस गुप्त संदेश में चिदंबरम के हवाले से बताया गया है कि भारत की प्रगति 11-12 प्रतिशत की दर से होती, अगर देश के केवल दक्षिणी एवं पश्चिमी हिस्से ही होते। दक्षिण भारत और शेष भारत में विकास का काफी अंतर है। शेष भारत विकास (दक्षिणी-पश्चिमी को छोड़कर) को पीछे खींच रहा है और विदेशी राजदूत को देश के नेताओं के बजाय आम जनता से मिलना ज्यादा उचित रहेगा आदि-आदि। इन खुलासों के अगले ही दिन देश की संसद में हंगामा हुआ और माननीय गृहमंत्री ने खंडन भी कर दिया। अब अगर यह बात सच है तो वाकई मामला बेहद चिंताजनक और संवदेनशील है। चिदंबरम और चिदंबरमवादियों के मन में अगर ऐसा कुछ चल रहा है तो उन्हें भारत की सांस्कृतिक और राजनैतिक आत्मा को समझना होगा। विकास दर की इस तात्कालिक सनक के कारण देश की सांस्कृतिक विरासत, साहित्य की भूमिका, देश के इतिहास और भूगोल के लिए हुए संघर्षो, राजनैतिक आंदोलनों, असंख्य बलिदानों तथा देश की विशालता को नजरअंदाज करना देश के लिए शहीद हुए नायकों का अपमान है। यदि देश में केवल दक्षिण-पश्चिम भाग ही होते तो पवित्र गंगा-यमुना का संगम कहा होता? राम की अयोध्या, कृष्ण की मथुरा और शिव की काशी कहां होते? कहां होता पवित्र तीर्थ बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री और कहां होता पर्वतराज हिमालय? रामायण का गायन और गीता का उपदेश किस देश में हुआ होता? सूर, कबीर, तुलसी, जायसी और मीरा ने किस देश के साहित्य को समृद्ध किया होता? और अगर यह सब नहीं होता तो भारत की सांस्कृतिक विरासत क्या होती? यह देश आज भी आइटी के साथ-साथ राम-रहीम, गीता और रामायण के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है। ऋषि परंपरा इसी देश की संस्कृति की देन है, जहां वसुधैव कुटुंबकम की बात कही जाती है, जिसे आजकल व्यापारिक दृष्टि से ग्लोबल विलेज कहा जाता है। देश की कुल सांस्कृतिक विरासत में दक्षिण-पश्चिम के साथ-साथ शेष भारत की अतुलनीय योगदान है। भारत के राजनैतिक आंदोलनों की गवाह भी यही भूमि बनी है। जिसे चिदंबरम साहब ने देश पर बोझ समझा है। यवनों के आक्रमण से आहत भारत को एक सूत्र में पिरोकर चंद्रगुप्त के नेतृत्व में देश को एकजुट कर संघर्ष के लिए तैयार करने वाला नायक चाणक्य भी इसी भूभाग का था। अगर देश में केवल दक्षिणी-पश्चिमी हिस्से ही होते तो अरावली की पहाडि़यां चेतक की टापों की गवाह न बनी होतीं। अगर केवल देश में दक्षिणी-पश्चिमी हिस्से ही होते तो सन् 1857 की क्रांति की चिंगारी न फूटी होती और न ही झांसी की रानी का उदय हुआ होता। समाज सुधारक राजा राम मोहन राय, भगवान बुद्ध और रवींद्र नाथ टैगोर ने अपना ज्ञान तथा व्यवहार का संदेश कहां दिया होता? क्या सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और चंद्रशेखर आजाद ने इसीलिए अपने प्राण न्योछावर किए थे कि आजाद भारत के विकासवादी गृहमंत्री भारत को एक राष्ट्र न समझकर टुकड़ों में देखें। क्या गांधी जी ने कभी कल्पना भी की थी कि जिस राष्ट्र के लिए वे जिये और मरे, वह राष्ट्र विकसित और कम विकसित हिस्सों में बांट दिया जाए। आजाद भारत के नेता पं. जवाहरलाल नेहरू और डॉ. राजेंद्र प्रसाद क्या इसी आधुनिक भारत के निर्माण की बात कर रहे थे? एकात्म मानववाद के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय तथा समाजवाद के पुरोधा राम मनोहर लोहिया भी इसी भूभाग में जन्मे थे। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण भारत के युवाओं का संपूर्ण क्रांति के लिए आह्वान किया था, न कि केवल शेष भारत का। दलित चेतना के नायक कांशीराम की जन्म स्थली और कर्मस्थली भी इसी भूभाग में है, जिसे चिदंबरम जी बोझ समझते हैं। चिदंबरम जिस दल के गृहमंत्री के रूप में देश का नेतृत्व कर रहे हैं, उस दल की नेता की पारिवारिक विरासत का स्त्रोत भी यही भूभाग है और अगर यह सब नहीं होता तो भारत कैसा होता? गृहमंत्री की विकास की परिभाषा समझ से परे है। समन्वित विकास का मायने हर पक्ष का विकास होता है, न कि केवल एक हिस्से का विकास। हर राष्ट्र की एक आत्मा होती है और होती है उसकी एक समृद्ध संस्कृति। किसी राष्ट्र का निर्माण उसकी संस्कृति का परिणाम होता है और यही सांस्कृतिक इकाई भारत राष्ट्र राज्य के रूप में स्थापित है। भारत पूरब-पश्चिम तथा उत्तर और दक्षिण में नहीं बंटा है। कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक भारत एक है। देश का अगर एक हिस्सा आर्थिक तौर पर समृद्ध है तो दूसरा हिस्सा सांस्कृतिक और राजनैतिक तौर पर पुष्ट है। हर हाल में भारत एक इकाई है, जिसका अगर एक हिस्सा विकास कर रहा है तो संपूर्ण भारत विकास कर रहा है और अगर एक हिस्सा पिछड़ा है तो यह पूरे देश के लिए चिंता का कारण है। इन सबके बावजूद क्या केवल विकास दर ही किसी राष्ट्र की परिभाषा होती है? क्या राष्ट्र की पहचान विकास दर से ही होती है? तो क्या जिन देशों की विकास दर कम है, वे राष्ट्र रहने के काबिल नहीं? दुनिया का सबसे विकसित देश भी समस्याओं से जूझ रहा है। अमेरिका में भी लगभग 4 करोड़ लोग बिना बीमा के जीवन यापन कर रहे हैं। ये लोग अमेरिका के विकास में बाधा हो सकते हैं तो क्या अमेरिका यह कह दे कि काश! ये 4 करोड़ लोग अमेरिका में न होते। काश! अपराध ग्रस्त टेक्सास न होता और काश! अमेरिका में सवा करोड़ अवैध घुसपैठिए न होते। क्या मायने हैं इन सब बातों का। हर राष्ट्र आंतरिक चुनौतियों से जूझता है और उनसे पार पाने की कोशिश करता है। किसी देश का एक भूभाग संपन्न और दूसरा भूभाग कमजोर हो सकता है तो क्या संपन्न भूभाग ही राष्ट्र होना चाहिए? विकास की इस अंधी दौड़ ने सांस्कृतिक और राजनैतिक विरासत को बेगाना बना दिया है। इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता है कि दक्षिण-पश्चिम का भौतिक विकास शेष भारत की तुलना में कहीं ज्यादा है। उत्तर और उत्तर पूर्वी राज्य विकास के इस नए दौर में पिछड़ गए प्रतीत होते हैं। यह अचरज भरा प्रश्न है कि आजादी के बाद से केंद्र में ज्यादातर नेहरू-गांधी परिवार का प्रत्यक्ष या परोक्ष शासन रहा है। फिर भी उत्तर प्रदेश बेहाल और बदहाल ही रहा है। इन प्रदेशों के नेतृत्व समय की परिवर्तन की आहट नहीं समझ सके और न ही विकास के नए पैमानों के अनुसार अपने को ढाल सके। इधर बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड ने सुशासन का राज कायम किया है और अपनी विकासदर में अपेक्षित सुधार किया है। इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि सबसे ज्यादा युवा संभावनाओं वाला राज्य विकास की इस दौड़ में पिछड़ गया है। सत्ता पाने के लिए क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के नेतृत्व ने विकास के सिवा सब कुछ किया है और राष्ट्रीय दल क्षेत्रीय दलों के राजनीतिक टोटकों के समाने असहाय सिद्ध हुए हैं। फिर भी इन राज्यों की भूमिका को राष्ट्र राज्य के निर्माण में उपेक्षा नहीं की जा सकती है। अभी कुछ वर्षो पहले तक देश की विकास दर काफी कम थी तो क्या उसे विश्व विरादरी का हिस्सा होने का हक नहीं था। इस समय जबकि उत्तर-दक्षिण का विवाद लगभग समाप्ति पर है, उस समय चिदंबरम के यह उदगार चिंता का विषय है। जब देश के गृहमंत्री का विचार ही अपने देश के बारे में ऐसा हो तो अलगाववादियों से उनका अंतर करना मुश्किल है। इन खुलासों से एक बात तो सिद्ध हुई है कि टेक्नोलॉजी के इस युग में दोहरी बातों और दोहरे चरित्र का कोई स्थान नहीं है। (लेखक एसोसिएट प्रोफेसर हैं)

संप्रग सरकार के शक्ति केंद्र


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का भारतीय राजनीति में उद्भव पंद्रह वर्ष पूर्व करीब एक ही समय पर हुआ। मनमोहन सिंह ने भारत की अर्थव्यवस्था को 3.5 प्रतिशत की विकास दर से 8 प्रतिशत तक पहुंचा कर चमत्कार किया है और सोनिया गांधी ने गुटबंदी से त्रस्त कांग्रेस को एक अनुशासित और शक्तिशाली संगठन में परिवर्तित कर देने के असंभव से कार्य को संभव कर दिखाया है। दोनों ही अपने-अपने ढंग से महत्वपूर्ण हैं। जब नरसिंह राव ने अपना प्रधानमंत्री पद गंवाया तो दोनों में निकटता बढ़ी। 1998 में जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई तो सोनिया गांधी ने प्रणब मुखर्जी पर मनमोहन सिंह को वरीयता दी और उन्हें विपक्ष का नेता नियुक्त किया। उन्हें स्मरण था कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रणब मुखर्जी ने प्रधानमंत्री बनने का इरादा जताया था और उनके पति राजीव गांधी प्रणब मुखर्जी को पसंद नहीं करते थे। मनमोहन सिंह की वफादार होने की ख्याति उनके पक्ष में निर्णायक रही। 1999 में वह समय आया था जब सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बन सकती थीं और उन्होंने सरकार बनाने का दावा भी किया था। राष्ट्रपति केआर नारायणन ने उन्हें बहुमत सिद्ध करने के लिए आमंत्रित भी किया था। वह ऐसा नहीं कर सकीं, क्योंकि समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह उन्हें बिना शर्त समर्थन देने की अपनी बात से मुकर गए थे। मगर 2004 में जब सोनिया गांधी अपने बलबूते पर प्रधानमंत्री हो सकती थीं, उन्होंने यह पद स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। सोनिया गांधी अपने खिलाफ भाजपा के अभियान से परेशान थीं। सुषमा स्वराज ने तब घोषणा की थी कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बन गईं तो वह अपना सिर मुंडवा लेंगी। सोनिया गांधी ने संभवत: यह भी सोचा था कि सरकार का कोई भी फैसला उनकी इटालियन पृष्ठभूमि के कारण मुद्दा बन सकता है, जो देश हित में नहीं होगा। सोनिया गांधी ने भरोसेमंद मनमोहन सिंह को आगे किया। उन्हें भरोसा था कि मनमोहन सिंह उनके कहने पर पद त्याग देंगे। यह सत्य भी सिद्ध हुआ, क्योंकि मनमोहन सिंह ने खुले तौर पर कहा है कि जब भी कांग्रेस चाहेगी, वह पद त्याग देंगे। संप्रग-1 के दौरान मनमोहन सिंह ने बड़ी समझबूझ से बेहतरीन प्रदर्शन किया था, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि व्यवस्था में अब कुछ कार्यात्मक खामियां आ गई हैं। ऐसा नहीं है कि मनमोहन सिंह अब पहले जितने भरोसेमंद नहीं रहे या अब महत्वपूर्ण फाइलें दस जनपथ नहीं जातीं। सरकार की छवि में जो गिरावट आ रही है, उससे समस्याएं पैदा हो रही हैं। काफी समय से घोटालों का खुलासा हो रहा है, जिनसे कांग्रेस की परेशानियां बढ़ी हैं। सोनिया गांधी ने कुछ ऐसा आभास देना शुरू कर दिया कि संप्रग सरकार के क्रियाकलापों से कांग्रेस का कोई लेना-देना नहीं है। मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी के बीच दूरी को रेखांकित करने वाला एक अन्य प्रसंग है। कुछ अन्य मतभेद भी उजागर हुए हैं। प्रधानमंत्री जहां यह दलील देते हैं कि विकास को पर्यावरण का बंधक नहीं होने दिया जा सकता, वहीं सोनिया गांधी कहती हैं कि जनहित में उर्वर भूमि अधिग्रहीत नहीं की जानी चाहिए। जब कैबिनेट कश्मीर में सशस्त्र बल विशेष अधिनियम के संचालन पर विचार करती है तो वह कांग्रेस की कश्मीर समिति की बैठक आयोजित करती हैं और अपने हिसाब से स्थिति का आकलन कराती हैं। दोनों बैठकों का एक ही समय पर होना संयोग मात्र ही नहीं माना जा सकता। पाकिस्तान पर भी दोनों की सोच में अंतर प्रतीत होता है। मनमोहन सिंह का जनता में प्रभाव कम हो रहा है, जबकि सोनिया गांधी का प्रभाव यथावत है। इसका रहस्य संभवत यह है कि वह मौन रहती हैं और ज्वलंत विषयों पर भी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करतीं। प्रधानमंत्री के पास कैबिनेट है और कांग्रेस अध्यक्ष के पास राष्ट्रीय सलाहकार परिषद है। प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि कौन अधिक शक्तिशाली और अधिक प्रभावी है? यह जान पाना कठिन है कि किसकी अधिसत्ता कहां से शुरू होती है और दूसरे की अधिसत्ता का अंत कहां होता है? फिर भी मनमोहन सिंह सचेत हैं कि वह किस हद तक आगे बढ़ सकते हैं। मनमोहन सिंह यह दावा कर सकते हैं कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में मतभेद नहीं हैं। फिर भी लोग तब क्या सोचें जब विकास के तरीके पर सोनिया गांधी प्रधानमंत्री को झिड़कती हैं और जब एक कांग्रेस महासचिव गृहमंत्री पी. चिदंबरम के खिलाफ उंगली उठाकर बयान देते हैं कि वह माओवादियों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई कर गलती कर रहे हैं? प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष के बीच अधिसत्ता की रेखा धूमिल होने से अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो गई है। इससे देश में चिंता बढ़ रही हैं। अनेक समस्याएं पहले ही हालात को जटिल बना रही हैं। मनमोहन सिंह की बड़ी कमी यह है कि वह राजनीतिक व्यक्ति नहीं हैं। वह नौकरशाहों पर बहुत निर्भर हैं और सरकारी काम में अति व्यस्त। साथ ही उन्हें गठबंधन धर्म का भी पालन करना है, जिसकी रेखा सोनिया गांधी खींचती हैं। (लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं)

मोहाली से आगे की राह


रिश्तों में सुधार की भारत की पहल की सफलता को पाकिस्तान के रुख पर निर्भर मान रहे हैं लेखक
मोहाली में भारत और पाकिस्तान के बीच विश्व कप क्रिकेट सेमीफाइनल मैच की तरह ही दोनों देशों के बीच कूटनीतिक और राजनीतिक संबंधों में भी गर्माहट आ गई है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके पाक समकक्ष यूसुफ रजा गिलानी की मुलाकात को लेकर राजनयिक गलियारों में उत्सुकता है। मुंबई आतंकी हमले को करीब सवा दो वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन अभी तक पाकिस्तान ने दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जब दोनों देशों के प्रधानमंत्री सौहार्द और सद्भाव के वातावरण में एक-दूसरे से हाथ मिला रहे होंगे तो वे इस मसले को जरूर ध्यान में रखेंगे और कोई न कोई समाधान का रास्ता निकालने की कोशिश करेंगे। इसके अलावा भारत की एक प्रमुख चिंता सीमा पार आतंकवाद है, जिसे समय-समय पर उठाया जाता रहा है। इस वास्तविकता को अब पूरी दुनिया धीरे-धीरे समझने लगी है कि पाकिस्तान में आतंकवादियों को प्रशिक्षित करने वाले शिविर अभी भी चल रहे हैं और उन्हें पाकिस्तान सरकार, वहां की सेना और आइएसआइ का पूरा नैतिक और वित्तीय समर्थन हासिल है। कश्मीर और शेष भारत में आतंकवादियों को भेजने के लिए घुसपैठ अभी तकखत्म नहीं हो सकी है। इन सबके बावजूद दोनों देशों के बीच शांति कायम हाो और इसे मजबूती मिले, इसके लिए जरूरी है कि कूटनीतिक और राजनीतिक प्रयासों के साथ-साथ दोनों देशों की जनता के बीच भी सामाजिक व सांस्कृतिक मेलजोल बढ़े। इस बात को ध्यान में रखते हुए ही क्रिकेट के सेमीफाइनल मैच को दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने एक माकूल अवसर माना और तमाम गिले-शिकवों के बावजूद दोस्ती का हाथ क्रिकेट की पिच तक ले गए, लेकिनअब इसे गति देने का दायित्व पाकिस्तान पर है कि मुंबई जैसा कोई आतंकवादी हमला फिर न दोहराया जाए। यह सही है कि इस समय पाकिस्तान एक अलग तरह के दौर से गुजर रहा है और परवेज मुशर्रफ के शब्दों में वहां आतंकवाद और चरमपंथ एक गंभीर खतरा बन चुका है, जिस पर पाक सरकार का शायद ही नियंत्रण रह गया है। पाकिस्तान में आए दिन कोई न कोई आतंकी वारदात होती रहती है। पंजाब के गवर्नर सलमान तसीर की हत्या के बाद अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शहबाज भट्टी को मौत के घाट उतार दिया गया और अब मानवाधिकार कार्यकर्ता आसमां जहांगीर को भी ऐसे ही नतीजे भुगतने की धमकियां मिल रही हैं। इन घटनाओं से साफ है कि वहां हालात किस कदर बिगड़ चुके हैं, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि इसके लिए जिम्मेदार कोई और नहीं खुद पाकिस्तान है। उनके हुक्मरानों और रणनीतिकारों को यह समझना होगा कि द्विपक्षीय संबंधों में सुधार और कश्मीर के मसले पर जमी बर्फ को पिघलाने के लिए बातचीत की प्रक्रिया ही एकमात्र और अंतिम रास्ता है। इसके लिए एकतरफा प्रयास की बजाय दोनों को आगे आना होगा। अब जबकि एक बार फिर सकारात्मक माहौल बनता दिख रहा है तो इसे आगे बढ़ाया जाना चाहिए और दोनों ही देशों के नेताओं, बुद्धिजीवियों व आम जनता के साथ-साथ वहां की सेना व आइएसआइ को साथ लेकर चलने का प्रयास होना चाहिए। यह सही है कि फिलहाल यूसुफ रजा गिलानी की यात्रा से अचानक कोई बड़ा बदलाव आ जाएगा, यह उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि द्विपक्षीय संबंधों को ठीक करने और समग्र वार्ता की प्रक्रिया शुरू करने के लिए एक रोडमैप बनाया जाए। इस रोडमैप में अफगानिस्तान में दोनों देशों की भूमिका से लेकर व्यापारिक व सामरिक रिश्ते तक को शामिल किया जाए। कश्मीर मुद्दे को हल करने के लिए एक व्यावहारिक व सर्वस्वीकार्य रास्ते को मिल-जुलकर ही खोजा जा सकता है। पाकिस्तान को अपनी पुरानी जिद पर अड़े रहने की बजाय आज की भू-राजनीतिक वैश्विक व क्षेत्रीय परिस्थितियों को समझना होगा। हमने आपस में बहुत खून बहा लिया और राजनीतिक व कूटनीतिक पत्ते खेल लिए, अब समय आ गया है कि हम मिल बैठकर एक-दूसरे की साझा समस्याओं को हल करने की कोशिश करें और विश्वास बहाली के उपायों को नई दिशा दें। यहां इस बात को नहीं भूला जा सकता कि कट्टरपंथ की आग में झुलस रहा पाक इस समय नरमपंथियों और उदारवादियों के दबाव के चलते ही भारत से दोस्ती का हाथ बढ़ाने को इच्छुक हुआ है। पाक सरकार पर अपने देश के भीतर जनता के एक तबके का दबाव है। इस स्थिति में भारत को भी समझदारी और उदारता का परिचय देना चाहिए। यह वक्त की मांग है कि दोनों ही देशों में अमन की आस कायम हो और युद्ध की बजाय शांति और विकास के बारे में सोचा जाए। पाकिस्तान इस मौके का लाभ एफटीए यानी मुक्त व्यापार समझौते को आगे बढ़ाकर उठा सकता है। इसमें जो भी अड़चनें हैं उन्हें मिल-जुलकर दूर किया जाए और तमाम संदेहों और शिकायतों पर बात की जाए। समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट की घटना की जांच को आगे बढ़ाने के लिए भी बात हो सकती है। इसी तरह भारत इस मौके का लाभ पाकिस्तान द्वारा पकड़े गए मछुआरों और वहां की जेलों में बंद अपने कैदियों को छुड़वाने के लिए करना चाहेगा। इन मसलों पर पाकिस्तान के सकारात्मक रुख से आगे का रास्ता खुल सकता है। निश्चित रूप से नए वर्ष की शुरुआत में फरवरी माह में भूटान की राजधानी थिंपू में दोनों देशों के विदेश सचिवों की मुलाकात के बाद रिश्तों में बदलाव आया है। बावजूद इसके अभी तक पाकिस्तान ने मुंबई हमले के दोषियों को सजा देने के अपने वायदे को पूरा नहीं किया है और न ही आतंकवादियों की घुसपैठ पर विराम लगाया है। इससे यही साबित होता है कि पाकिस्तान के हुक्मरानों के बजाय हमारे प्रधानमंत्री कुछ ज्यादा जल्दी में दिखते हैं। मेरा मानना है कि इसमें कुछ गलत भी नहीं है, लेकिन कोई भी कदम उठाने से पहले अतीत की घटनाओं को याद रखना चाहिए और वार्ता का रोडमैप तैयार करते समय हमें पाकिस्तान से ठोस कार्रवाई का न केवल आश्वासन लेना चाहिए, बल्कि उस पर अमल होने तक इंतजार भी करना चाहिए। इसके अलावा भारत को पाकिस्तान में शांति के पक्षधर लोगों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश भी करनी होगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि बातचीत का नया सिलसिला परवान चढ़ेगा और पाकिस्तान भारत के लोगों की भावनाओं का उसी तरह आदर करेगा जैसा उसने भारतीय सुप्रीम कोर्ट की भावनाओं का आदर करते हुए उम्रकैद की सजा काट रहे भारतीय नागरिक गोपाल दास को अपनी जेल से रिहा करने में किया है। (लेखक पूर्व विदेश सचिव हैं)

Tuesday, March 29, 2011

जाति का जोर


मुफ्त सौगात देने की परंपरा तमिलनाडु में ही शुरू हुई
दक्षिण भारत के तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। अन्नाद्रमुक और द्रमुक आमने-सामने हैं। दोनों दलों का मूल वोट बैंक एक ही है-द्रविड़ वोट। दोनों के ही हिस्से में 25 से 30 फीसदी वोट आते हैं। ऐसे में जीतता वही है, जो गैर द्रविड़ वोटों पर कब्जा कर पाता है। लिहाजा वहां गठबंधन की राजनीति काम आती है। वहां भी छोटे दलों के पुख्ता वोट बैंक हैं और उस बड़े दल के साथ जाने या न जाने की उनकी भी मजबूरी होती है।
तमिलनाडु देश का पहला राज्य है, जहां फिल्मी सितारे सत्ता पर काबिज हुए, और फिर तो यह सिलसिला ही बन गया। इसी तरह तमिलनाडु देश का पहला राज्य है, जहां सबसे पहले चुनावी घोषणापत्रों में मुफ्त सौगातें देने का सिलसिला शुरू हुआ था। वहां सबसे पहले स्कूली बच्चों के लिए मिड डे मील योजना शुरू हुई। दो-तीन रुपये किलो चावल देने की परिपाटी भी वहीं से शुरू हुई। अनाज के बाद बारी आई टीवी की। द्रमुक ने तो पिछला विधानसभा चुनाव बीपीएल समूह को रंगीन टीवी देकर ही जीत लिया था। इस बार के चुनाव में भी कोई लैपटॉप, कोई मिक्सर-ग्राइंडर, कोई पंखा, तो कोई वाशिंग मशीन, यहां तक कि गाय और भेड़ देने की भी घोषणा कर रहा है!
तमिलनाडु में बीती सदी के पचास के दशक में सवर्ण जातियों के खिलाफ आंदोलन चला था। अन्नादुरई, करुणानिधि और एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) उस आंदोलन के अगुवा थे। अन्नादुरई ने तमिल फिल्मों का इस्तेमाल आंदोलन के प्रचार-प्रसार के लिए किया। वह फिल्मों के लिए कहानियां लिखा करते थे। करुणानिधि फिल्मों के पटकथा लेखक हुआ करते थे। इसी तरह एमजीआर हीरो थे और बाद में तमिल फिल्मों की नायिका जयललिता उनसे जुड़ीं।
करुणानिधि ने सबसे पहले फिल्मों में संवाद की भाषा बदली। पहले सवर्ण जाति की भाषा में ही संवाद होते थे, जिसमें भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल होता था। करुणानिधि ने अन्नादुरई के कहने पर उस भाषा में संवाद लिखने शुरू किए, जिसे तमिलनाडु की दलित जनता बोलती थी। इस तरह पेरियार आंदोलन सीधे-सीधे दलितों से जुड़ा। अन्नादुरई ने ऐसी कहानियां लिखीं, जिनमें दलितों का संघर्ष और फिर उनकी जीत का जश्न होता था। उस दौरान राजा-महाराजाओं और महलों की कहानियों से तौबा की गई। उसकी जगह अन्नादुरई और करुणानिधि ने ऐसे विषयों पर फिल्में बनानी शुरू कीं, जिनमें दलित, गरीब, मजदूर और किसानों का दर्द था। एमजीआर इन फिल्मों के हीरो होते थे। वह काली पतलून और लाल कमीज पहनते थे। काली पतलून द्रविड़ नस्ल का प्रतीक होती थी, जबकि लाल कमीज सामाजिक न्याय का। इनकी फिल्मों में बार-बार उगता हुआ लाल सूरज दिखाया जाता, जो उनकी पार्टी का चुनाव चिह्न भी था।
करीब बीस वर्षों तक यह सिलसिला चलता रहा। एक बेहद मजबूत सामाजिक आंदोलन खड़ा हो चुका था। लेकिन सत्तर के दशक में इस कहानी में नाटकीय मोड़ आया। अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते करुणानिधि और एमजीआर अलग हुए। करुणानिधि के पास द्रमुक रहा, जबकि एमजीआर ने अन्नाद्रमुक पार्टी बना ली।
हैरत की बात है कि जिस राज्य में एक मजबूत सामाजिक आंदोलन हुआ और फिल्मों के जरिये जिसका आधार मजबूत हुआ, उसी राज्य में आज चुनावी सियासत भीषण जातिवाद की शिकार है। वहां जाति के आधार पर इस कदर वोट डाले जाते हैं कि उत्तर भारत के राज्य भी शरमा जाएं। मौटे तौर पर उत्तरी तमिलनाडु में करुणानिधि का गठबंधन मजबूत रहता है, जबकि दक्षिण में जयललिता का। पिछले यानी 2006 के विधानसभा चुनाव में द्रमुक गठबंधन को करीब 45 प्रतिशत और पराजित अन्नाद्रमुक गठबंधन को लगभग 40 फीसदी वोट मिले थे। जाहिर है, पिछले चुनाव में करुणानिधि गैरद्रविड़ वोटों का जुगाड़ करने में कामयाब रहे थे। इस बार भी उन्होंने पीएमके को अपने गठबंधन में शामिल किया है। पीएमके अति पिछड़ों की पार्टी है और राज्य के लगभग पांच फीसदी वन्नियार वोटों पर उसका कब्जा है। दूसरी तरफ, जयललिता के साथ कैप्टन विजयकांत गए हैं। वह तमिल फिल्मों के सुपर स्टार हैं। उनकी एमडीएमके नाम की पार्टी है, जिसमें दलित आते हैं। इसके पास दस प्रतिशत वोट है। एक अन्य फिल्मी हस्ती शरद कुमार भी इस बार जयललिता के साथ हैं। उनकी पार्टी एआईएसएमके के पास वोट तो तीन फीसदी के आसपास ही है, लेकिन शरद कुमार की अपील ज्यादा है।
करुणानिधि भी इसमें पीछे नहीं रहना चाहते। उन्होंने एक-एक वोट का जुगाड़ करने के लिए केएमके जैसी छोटी पार्टी से भी हाथ मिलाया है। राज्य में दर्जन भर से ज्यादा अन्य दल भी हैं, जिनके अपने-अपने वोट बैंक हैं।
दरअसल तमिलनाडु में जाति से ज्यादा समुदाय आधारित दल हैं, जो चुनावों को और मुश्किल बना देते हैं। राहुल गांधी ने जाति और समुदाय को तोड़ने के लिए राज्य के कई दौरे किए। युवा कांग्रेस को मजबूत करने के बहाने उन्होंने जनमानस को टटोलने की कोशिश की और खासकर युवा वर्ग से जाति से ऊपर उठकर वोट डालने का आग्रह भी किया। लेकिन उन्हें एहसास हो गया कि जाति और समुदाय की गहरी पैठी जड़ों को तीन-चार दौरों से नहीं उखाड़ा जा सकता। ऐसे में कांग्रेस अकेला चलने के बजाय फिर उसी द्रमुक के साथ चल रही है, जिस पर 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के आरोप लगे हैं। कांग्रेस की तरह जयललिता भी जानती हैं कि भ्रष्टाचार का मुद्दा हाशिये पर ही रहेगा। चलेगा, तो सिर्फ जाति और समुदाय का जोर। यही वजह है कि जयललिता और करुणानिधि, दोनों ही अपने-अपने गठबंधन में और ज्यादा समुदायों को शामिल करने की होड़ में लगे हैं।

मेरे हटने से खुश हुआ था अमेरिका : अय्यर


 वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर ने केंद्र में सत्तारूढ़ संप्रग सरकार के प्रथम कार्यकाल में उन्हें अमेरिका के दबाव में हटाकर मुरली देवड़ा को पेट्रोलियम मंत्री बनाए जाने संबंधी विकिलीक्स के दावों को बेबुनियाद करार दिया। अय्यर ने सोमवार को यहां पत्रकारों से कहा, वो खबरें बिल्कुल गलत हैं कि अमेरिका के नाखुश होने की वजह से मुझसे पेट्रोलियम मंत्रालय वापस ले लिया गया था। हां यह जरूर है कि मुझसे यह मंत्रालय वापस लिए जाने पर अमेरिका खुश हुआ होगा लेकिन अमेरिका के नाखुश होने की वजह से मुझसे पेट्रोलियम मंत्रालय वापस नहीं लिया गया और न ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उस रिक्त हुए स्थान पर नियुक्ति होने वाले शख्स का नाम तय करने के लिए अमेरिकी राजनयिक के पास गए थे। उन्होंने कहा कि विकिलीक्स के दावों पर हंगामा करने की कोई वजह नहीं। जब तक भाजपा के मनमाफिक बातें होती रही तब तक वो हल्ला मचा रहे थे। खुद पर आंच आई तो हालत देखने काबिल हैं। अगर भाजपा नेता अरुण जेटली के बारे में विकिलीक्स की खबरें झूठी हो सकती हैं तो एक कांग्रेस नेता की कथित राजनीतिक सहयोगी नचिकेता कपूर से जुड़ी सूचनाओं का भी झूठ होना मुमकिन है। नचिकेता कपूर को कांग्रेसी नेता कैप्टन सतीश शर्मा का राजनीतिक सहयोगी बताया जा रहा है। ईरान-पाक-भारत पाइपलाइन पर उन्होंने बताया कि इस परियोजना का खाका उन्हीं के कार्यकाल में तैयार किया गया था और यह मंसूबा अमेरिकी नीतियों के खिलाफ था। अय्यर ने कहा, पाइपलाइन की वह परियोजना एक व्यापक सोच का नतीजा थी और वह देश की ईधन सुरक्षा और अर्थव्यवस्था के लिहाज से बहुत अहम थी। अमेरिका ने ईरान पर पाबंदियां लगा रखी थीं और वह इस परियोजना के खिलाफ था क्योंकि इससे ईरान को फायदा होता। अय्यर ने कहा, मैंने उस पाइपलाइन को चीन तक ले जाने का प्रस्ताव किया था ताकि पाकिस्तान गड़बड़ी न कर सके। उस परियोजना को प्रधानमंत्री समेत सभी संबंधित पक्षों के पास भेजा गया था ताकि उस पर अमल की दिशा में पहल हो सके|

Monday, March 28, 2011

'द्वंद्व' के बीच अमन के सुर


प्रधानमंत्री का राजनीतिक जवाब


अभिजात वर्ग के जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस में अन्य नेताओं से राजनीतिक और व्यक्तिगत दूरी बनाए रखने के लिए विशेष प्रयास करना पड़ा था। प्रथम प्रधानमंत्री के सामाजिक तबके में अधिकांश कांग्रेसी राजनेताओं को साधारण कोटि का, अशिक्षित, संकीर्ण मानसिकता वाला माना जाता था। बहुतों को आलसी, गोपूजा करने वाला और ज्योतिषी व आयुर्वेदिक दवाओं में विश्वास रखने वाला माना जाता था। कुछ पर बेईमान का ठप्पा लगा था। धोतीवालों को लेकर नेहरू की अरुचि आंशिक रूप से वर्ग समस्या थी। हालांकि प्रमुख रूप से यह उस कुंठा का परिणाम था जो शक्तिशाली प्रांतीय नेताओं पर सवारी न गांठ पाने से पैदा हुई थी। इंदिरा गांधी को कांग्रेस को नीचा दिखाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी, क्योंकि जहां तक उनका सवाल था, वह खुद कांग्रेस थीं। किसी और का कोई मतलब नहीं था। अटल बिहारी वाजपेयी के बहुत से सहयोगियों का मानना है कि वह गलत पार्टी में सही व्यक्ति थे। उनका कद भारतीय जनता पार्टी से भी इतना ऊंचा था कि यह बताने में भी एक प्रकार से उनकी हेठी थी कि वह भाजपा नेता हैं। वास्तव में राजग सरकार के बहुत से फैसले भाजपा की नीति के उलट या अलग थे। वाजपेयी के दरबारियों ने जिस भद्दे तरीके से उन्हें भाजपा से अलग दिखाने की कोशिश की उसका उतना ही हास्यास्पद दोहराव मनमोहन सिंह के मामले में नजर आ रहा है। लगता है कि रेसकोर्स रोड की तीन कोठियों में कोई वास्तुदोष है कि इनमें रहने वाले प्रधानमंत्री मानने लगते हैं कि उनकी शक्ति में राष्ट्रपति और राजाओं की शक्ति निहित है। पिछले सात माह से संप्रग सरकार एक के बाद एक भ्रष्टाचार के विपक्ष के वारों का सामना कर रही है। घोटालों ने तीन मंत्रियों की बलि ले ली है, फिर भी मनमोहन सिंह की अपने खुद के मंत्रियों को काबू में रखने की क्षमता पर सवालिया निशान लगा है। अपने राजनीतिक कॅरियर में मनमोहन सिंह पहली बार आलोचना और हंसी के पात्र बने हैं। एक ऐसा व्यक्ति जिसने सार्वजनिक जीवन में अपनी शिक्षा और जानकारी के बल पर प्रवेश पाया, अब जैसे कुछ न जानने को कला की एक विधा के रूप में स्थापित कर चुका है। उनकी साफ-सुथरी छवि पूरी तरह दागदार हो गई है। जुलाई 2008 में वोट के लिए नोट घोटाले पर विकिलीक्स के नए खुलासों के बाद पिछले सप्ताह मनमोहन सिंह को विपक्ष के आरोपों की भारी गोलाबारी झेलनी पड़ी। इस बात से साफ इनकार के अलावा कि न तो वह खुद और न ही कोई कांग्रेसी इस घोटाले में शामिल था, प्रधानमंत्री इस आरोप का कोई विश्वसनीय जवाब नहीं दे पाए कि किशोर चंद्र देव संसदीय समिति को उद्धृत करते हुए उनका बयान तथ्यों से परे था। विडंबना यह है कि इतना सब होते हुए भी प्रधानमंत्री इस भीषण संसदीय युद्ध से साफ बच निकले। यह इसलिए संभव हो पाया कि उन्होंने भाजपा की सुरक्षा की सबसे कमजोर कड़ी पर जोरदार प्रहार किए। लालकृष्ण आडवाणी की प्रधानमंत्री बनने की अदम्य लालसा पर तंज कसते हुए उन्होंने भाजपाइयों को हताशों की टोली साबित कर दिया। महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने किसी भी सदन में विपक्ष के नेता को निशाना नहीं बनाया। उन्होंने सोचसमझ कर ऐसे व्यक्ति को चुना जो चुनाव हार गया और जनादेश से असंतुष्ट रहा। आडवाणी के ढीले-ढाले रवैये ने सरकार पर विपक्षी हमले की धार भोथरी कर दी। कभी खत्म न होने वाले घोटालों के वार से कांग्रेस को गंभीर क्षति पहुंची, किंतु प्रधानमंत्री ने किसी तरह खुद का अधिक नुकसान होने से बचा लिया। वास्तव में, विकिलीक्स पर बहस के बाद मनमोहन सिंह एक सप्ताह पहले के मुकाबले कहीं मजबूत होकर उभरे हैं। यह राहत तात्कालिक हो सकती है, क्योंकि अभी संप्रग के पिटारे में घोटालों के प्रेतों के निकलने का सिलसिला बंद नहीं हुआ है। मोहाली में भारत-पाक क्रिकेट मैच देखने का मनमोहन सिंह का पाकिस्तान के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को दिया गया न्यौता वास्तव में शिष्टाचार वश दिया गया है, किंतु जिस तरीके से इसे प्रचारित किया जा रहा है उससे लगता है कि एक अनपेक्षित शुरुआत को भांपकर प्रधानमंत्री भारत-पाक वार्ता को फिर से पटरी पर लाने को उतावले हैं। यह शर्म-अल-शेख समझौते के बाद चौतरफा आलोचना से घिरने के बाद भारत के धीमे चलो रुख के विपरीत है। अस्थिर पाकिस्तान से नजदीकी बढ़ाने से एक बार फिर भारत दुस्साहसिक कूटनीति के अखाड़े में कूद पड़ा है। प्रधानमंत्री अपनी संशयग्रस्त पार्टी के सामने कुछ सकारात्मक कर दिखाना चाहते हैं। हमारी पड़ोस नीति न केवल घरेलू मजबूरियों की बंधक है, बल्कि यह एक छवि चमकाने का ऐसा खेल बन गई है जिसमें प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी शामिल है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

प्रोन्नति में कोटे के लिए अब दलितों ने रोका रेल ट्रैक


जाटों के बाद रविवार को दलित रेलवे को करीब ढाई घंटे तक हलकान किए रहे। सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति के लिए कोटा तय किए जाने, आरक्षण पर न्यायिक दखल रोकने समेत विभिन्न मांगों को लेकर रविवार को हजारों दलितों ने सहारनपुर जिले में रेल ट्रैक जाम कर दिया। साथ ही ट्रेनों पर पथराव किया। प्रदर्शन व हंगामे के कारण जनशताब्दी और उज्जैनी एक्सप्रेस समेत करीब दर्जन भर ट्रेनों का संचालन बाधित हुआ। केंद्र सरकार से आरक्षण को संविधान की नौवीं सूची में शामिल करने, आरक्षण के मसले पर न्यायिक दखल रोकने व सरकारी विभागों में दलितों के लिए पदोन्नति कोटा तय किए जाने समेत विभिन्न मांगों को लेकर दलित कई माह से आंदोलित हैं। आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष इंजीनियर आरपी सिंह और संगठन के नेता विनोद तेजियान के आह्वान पर रविवार को हजारों दलितों ने गांधी पार्क में सभा की और फिर डीएम को ज्ञापन देने कलक्ट्रेट की ओर कूच किया। वाहनों पर सवार तमाम लोग कचहरी पुल पर चढ़ गए, जबकि बहुत से लोगों ने अपने वाहनों को रेल पटरियों पर खड़ा कर दिया। शाम 4.10 बजे आंदोलनकारियों ने पथराव कर देहरादून-बांद्रा एक्सप्रेस को रोक दिया। एक खाली इंजन पर भी पथराव किया और उसे वापस जाने को विवश कर दिया। सूचना पर डीएम-एसएसपी मौैके पर पहुंचे और संघर्ष समिति के नेताओं को बातचीत के लिए बुलाया। कमिश्नर सुरेश चंद्रा और डीआईजी भोलानाथ तिवारी ने दलितों की मांगों को गृह मंत्रालय तक पहुंचाने का आश्वासन दिया। इसके बाद आरपी सिंह और विनोद तेजियान ने प्रशासन को तीन माह का समय देते हुए ट्रैक खाली करने की घोषणा की|

Sunday, March 27, 2011

अरुचिकर विचार


केंद्रीय मंत्री और साथ ही एक राजनेता के रूप में पी. चिदंबरम का यह बयान सर्वथा दुर्भाग्यपूर्ण, अरुचिकर और आपत्तिजनक है कि यदि देश में केवल दक्षिणी और पश्चिमी हिस्से होते तो भारत कहीं ज्यादा तरक्की करता। किसी भी राजनेता से ऐसे बयान की अपेक्षा नहीं की जा सकती और कम से कम उस नेता से तो बिलकुल भी नहीं जो गृहमंत्री के पहले लंबे समय तक देश का वित्तमंत्री रहा हो। आखिर उन्होंने यह सोच भी कैसे लिया कि यदि उत्तर भारत न होता तो बेहतर होता? यदि चिदंबरम ने वित्तमंत्री के रूप में देश के हर हिस्से के समग्र विकास की कोशिश की होती तो शायद उन्हें ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की जरूरत ही नहीं पड़ती कि उत्तर भारत देश के विकास में बाधक है। यदि वह उत्तर भारत के पिछड़ेपन से चिंतित भी थे तो चिंता प्रकट करने का यह कौन सा तरीका हुआ? अब यदि केंद्रीय मंत्री स्तर के नेता क्षेत्र विशेष के प्रति दुराव प्रकट करने वाली भाषा का इस्तेमाल करेंगे तो फिर वे देश को कोई सही दिशा कैसे दे सकेंगे? नि:संदेह उत्तर भारत के कथित पिछड़ेपन के लिए वहां के सत्तारूढ़ नेताओं को भी कठघरे में खड़ा किया जाएगा, लेकिन यदि उत्तरीराज्य अपेक्षित प्रगति नहीं कर पाए हैं तो इसके लिए केंद्र भी बराबर का दोषी है। जिस तरह यह किसी से छिपा नहीं कि राज्यों के विकास में केंद्र सरकार की अहम भूमिका होती है उसी तरह यह भी जग जाहिर है कि कई बार संकीर्ण राजनीतिक कारणों से राज्य विशेष या तो केंद्र की विशेष कृपा पाते हैं या फिर उसकी उपेक्षा का शिकार बनते हैं। अगर केंद्र सरकार सभी राज्यों के समान विकास के लिए प्रयासरत है तो फिर राज्य सरकारें भेदभाव की शिकायत क्यों करती रहती हैं? पिछले दिनों तो बिहार और मध्य प्रदेश के सांसदों को संसद परिसर में धरना देने के लिए विवश होना पड़ा। इसके पहले मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जब केंद्र के असहयोग के खिलाफ धरने पर बैठने की ठानी तब उनकी समस्या सुनी गई। देश इससे भी परिचित है कि कई बार राज्यों को रियायतें-अनुदान देने में किस तरह संकीर्ण राजनीतिक कारणों से देर की जाती है? यदि चिदंबरम यह सोच रहे हैं कि विकिलीक्स की भ‌र्त्सना करने से उनका काम आसान हो जाएगा और वह सही साबित हो जाएंगे और यह वेबसाइट गलत तो ऐसा बिल्कुल भी होने वाला नहीं है। चिदंबरम की मानें तो विकिलीक्स के खुलासों को तनिक भी महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। यदि वास्तव में ऐसा है तो कांग्रेस विकिलीक्स के जरिए सामने आए भाजपा नेता अरुण जेटली के इस बयान को क्यों तूल दे रही है जिसके तहत उन्होंने अमेरिकी राजनयिक से कथित तौर पर यह कहा था कि हिंदू राष्ट्रवाद उनकी पार्टी के लिए महज एक अवसरवादी मुद्दा है? जो भी हो, विकिलीक्स के जरिए विभिन्न नेताओं के विचार जिस तरह सामने आए हैं उससे स्पष्ट हो रहा है कि राजनेता किस तरह दोहरा आचरण प्रदर्शित करते हैं। आश्चर्य नहीं कि उनकी कथनी और करनी में अंतर बढ़ता जा रहा है और इसी कारण देश की समस्याएं भी बढ़ती जा रही हैं। विकिलीक्स के खुलासे इस आम धारणा को मजबूत करने वाले हैं कि हमारे राजनेता किस तरह सार्वजनिक रूप से कुछ कहते हैं और गोपनीय रूप से कुछ और।