Thursday, May 19, 2011

वाम दलों को महंगी पड़ी मुस्लिम वर्ग की नाराजगी


पश्चिम बंगाल की सत्ता में 34 वर्षो तक बने रहने वाला वाम मोर्चा विधानसभा चुनाव में भी अपना पुराना वोट बैंक मुस्लिम समुदाय का भरोसा जीतने में नाकाम रहा। यही उसकी तृणमूल व कांग्रेस के हाथों मिली करारी हार और सत्ता से बाहर होने का मुख्य कारण बना। मुस्लिम वर्ग के वामो सरकार से नाराजगी वर्ष 2008 में स्थानीय निकाय के चुनावों के बाद से ही प्रकट हो गई थी। अब यह अलग बात है कि वाम दल इसे भांप नहीं पाए। राज्य के 10 जिलों की 125 विधानसभा सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। इस बार इनमें से 90 सीटें तृणमूल व कांग्रेस गठबंधन की झोली में गई है। तृणमूल नीत गठबंधन ने वर्ष 2008 के स्थानीय निकाय चुनावों में निगम की आठ सीटें जीती थीं, जबकि वाममोर्चा के खाते में महज पांच सीटें आई थीं। इसके एक साल बाद लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चा को फिर करारा झटका लगा और तृणमूल और कांग्रेस ने मिलकर 42 में से 26 सीटें जीत लीं। निवर्तमान मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने वर्ष 2006 की जीत के बाद आक्रामक रूप से औद्योगिकीकरण और शहरीकरण की नीतियों पर जोर दिया। इस दौरान भूमि अधिग्रहण को लेकर सिंगुर और नंदीग्राम जैसी घटनाएं हुईं, जो वाम मोर्चा की छवि को धूमिल कर गई। वर्ष 1977 में वाम मोर्चा के सत्ता में आने के बाद भूमि सुधार हुआ था, जिसका फायदा मुस्लिम समुदाय को हुआ। बीते कुछ वर्षों के दौरान इस समुदाय के लोगों को अपनी भूमि के अधिग्रहण की चिंता सताने लगी थी। रही सही कसर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने पूरी की। इस रिपोर्ट में भी पश्चिम बंगाल के मुसलमानों की स्थिति पर चिंता जताई गई थी। इसको लेकर भी मा‌र्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) नेतृत्व वाली वामो सरकार की खासी आलोचना हुई। सिंगुर और नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जब तृणमूल नेता ममता बनर्जी ने आंदोलन किया, तो गरीब मुसलमान उनके साथ हो लिए। वाम मोर्चा की सरकार ने हालांकि मुसलमानों का भरोसा जीतने के लिए कई कदम उठाए। मुसलमानों को पिछड़े वर्ग में जगह देकर नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की और इस समुदाय के लिए कई शैक्षणिक संस्थान स्थापित किए,लेकिन यह सब विधानसभा चुनाव में नाकाफी साबित हुआ और मुस्लिम वोट बैंक ममता की झोली में चली गई।


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