Sunday, May 15, 2011

जनता का सबक


पांच राज्यों के चुनाव नतीजेइस अर्थ में चकित करते हैं कि न तो किसी को यह आशा थी कि ममता बनर्जी इतनी शानदार जीत हासिल करेंगी और न ही कोई यह मान रहा था कि तमिलनाडु में करुणानिधि जयललिता के हाथों इतनी बुरी तरह पराजित होंगे। इसी तरह किसी को इस पर भरोसा नहीं था कि असम में तरुण गोगोई लगातार तीसरी बार जीत हासिल करेंगे और वह भी करीब-करीब दो तिहाई बहुमत से। केरल में कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चे की जीत तय मानी जा रही थी और वैसा ही हुआ, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि चुनाव लड़ने से वंचित किए जा रहे मुख्यमंत्री अच्युतानंदन के नेतृत्व में वाम मोर्चे ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया। सबसे प्रत्याशित नतीजे रहे केंद्र शासित राज्य पुद्दुचेरी में। पुद्दुचेरी ने हमेशा की तरह तमिलनाडु का अनुसरण किया, लेकिन यह उल्लेखनीय है कि यहां कांग्रेस को उन्हीं रंगासामी ने जयललिता से मिलकर सबक सिखाया जिन्हें पार्टी से निकाल दिया गया था। चूंकि चुनाव परिणाम महज हार-जीत ही तय नहीं करते इसलिए पांच राज्यों के नतीजों का एक मात्र निष्कर्ष कुछ दलों अथवा नेताओं का उत्थान-पतन भर नहीं है। ये चुनाव परिणाम यह भी बता रहे हैं कि अब आम जनता कुशासन के किसी भी रूप को सहन करने के लिए तैयार नहीं है। यदि तमिलनाडु में करुणानिधि मतदाताओं को एक तरह से नकद रिश्वत देने के बाद भी खेत रहे और उनके कुशासन के दुष्परिणाम कांग्रेस को भी भोगने पड़े तो इस पर किसी को चकित नहीं होना चाहिए। तमिलनाडु के संदर्भ में राजनीतिक पंडितों की इस धारणा का ध्वस्त होना शुभ संकेत है कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले का असर केवल शहरी आबादी तक रहेगा। ऐसी धारणाएं ध्वस्त होनी ही चाहिए। नि:संदेह पश्चिम बंगाल में वाम दलों का कुशासन तमिलनाडु जैसा नहीं था, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि था वह भी कुशासन ही। वाम दलों के अराजक और मनमाने शासन को ममता बनर्जी ने जिस तरह अकेले दम पर ढहाया उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। पश्चिम बंगाल में 34 वर्षो बाद वाम दलों का सत्ता से बाहर होना भारत ही नहीं, विश्व राजनीति की भी एक बड़ी घटना है। ममता की सफलता इसलिए करिश्माई है, क्योंकि वह पहली ऐसी महिला नेता हैं जिन्होंने अपने बलबूते राजनीतिक सफलता के एक कठिन नजर आने वाले शिखर को छुआ। यदि केवल त्रिपुरा की सत्ता तक सिमटे और केरल में किसी तरह लाज बचाने में सफल वाम दल यह बुनियादी सबक नहीं सीखते कि महज नारेबाजी के जरिये जनता के हितों की रक्षा नहीं हो सकती तो फिर विचारधारा के स्तर पर भी उनका पराभव हो सकता है। यह शुभ संकेत है कि ममता बनर्जी अपनी चुनौतियों से परिचित हैं, लेकिन बात तब बनेगी जब वे आम जनता की उम्मीदों पर खरी उतरेंगी। बंगाल की शेरनी की संज्ञा से विभूषित ममता के जुझारू नेता होने में कोई संदेह नहीं, लेकिन उन्हें अभी खुद को एक कुशल प्रशासक सिद्ध करना है। उन्हें सीख लेनी चाहिए तरुण गोगोई जैसे नेताओं से जिन्होंने यह साबित किया कि यदि आम आदमी को संतुष्ट किया जा सके तो सत्ता विरोधी पहलू को भी आसानी से मात दी जा सकती है। दरअसल तरुण गोगोई की सफलता से सभी नेताओं को सीख लेनी चाहिए, क्योंकि असम के साथ-साथ पांच राज्यों के चुनाव परिणाम यही कह रहे हैं कि अब जनता नेताओं के कोरे वायदों पर भरोसा करने के लिए तैयार नहीं।


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