ममता को मिले जनादेश की आंधी में वामपंथ का अभेद्य किला आखिरकार भर-भराकर गिर ही गया। मार्क्स के चेलों की दहाड़ अब मंद हो चली है। विकल्पहीनता को विजय का औजार समझने वाले कॉमरेड अंत तक ममता बनर्जी को घरेलू नायिका की तर्ज पर ही देखते-समझते रहे, लेकिन ममता ने 34 साल तक राजनीतिक उत्थान के शिखर पर आसन जमाए वामपंथियों को पतन का पाताल दिखाकर साबित कर दिया कि लोकतंत्र को सत्ता के घातक हथियारों से दीर्घकाल तक हांका नहीं जा सकता है। लोकतंत्र में जनता-जनार्दन ही सत्ता की संरचना पर अपनी अंतिम मुहर लगाती है और उसकी अनदेखी सत्ता के हिमालय को भी दरका देती है, लेकिन वामपंथियों ने इस कड़वी सच्चाई को समझने में भूल की। फिर जनता ने भी वामपंथी सरकार की हेकड़ी को तोड़ते हुए ममता के दामन में सत्ता की कुंजी सौंप दी। ममता बनर्जी की झोली में दो तिहाई से अधिक सीटें देकर पश्चिम बंगाल की जनता ने साबित कर दिया कि वह वामपंथियों की अधिनायकवादी सत्ता से मुक्ति पाने के लिए किस हद तक बेचैन थी। ममता ने अपनी जीत को मां, माटी और मानुष की जीत बताने के साथ उसे गुरु रवींद्रनाथ टैगोर को समर्पित कर लोगों के दिल में जगह बनाने की पहल कर दी है। वामपंथी जमात अपनी हार के लिए अब चाहे जितना भी तर्क गढ़े, मंथन करे या अपना माथा धुने, लेकिन सच तो यही है कि अगर उसकी ताकत महज छह दर्जन सीटों तक ही सिमट कर रह गई है तो इसके लिए उसकी नीतियां ही जिम्मेदार हैं। साढ़े तीन दशक का शासनकाल एक लोकतांत्रिक सरकार को काम करने के लिए कम नहीं होता है। इस दरम्यान चाहे तो कोई भी सरकार विकास की गंगा बहाकर नए कीर्तिमान स्थापित कर सकती है। राज्य का कायाकल्प कर समृद्धि का ताना-बाना बुन सकती है, लेकिन हैरान करने वाली बात यह रही कि जनपक्षधरता की बात करने वाली वामपंथी सरकार इस दिशा में क्यों विफल रही? विकास करना तो दूर, वह विकास का ब्लू प्रिंट तक तैयार नहीं कर सकी। पश्चिम बंगाल में दीर्घकालीन वामपंथी शासन के उग्र तेवर और विकास के कोरे बकवास ने सब कुछ स्वाहा कर दिया। वामपंथी सरकार की कोख से पैदा हुए राजनीतिक गुंडों और अराजकवादियों ने साम्यवाद के भोथरे नारे से सरकार की शह पर पश्चिम बंगाल में यत्र-तत्र फैले कल-कारखानों को बंद कराने के साथ आम आदमी के हक और अधिकार को भी कुचल डाला। प्रतिष्ठित ट्रेड यूनियनों पर मजदूर वर्ग के नेतृत्व की पकड़ ढीली कर वामपंथपोषित अराजकतावादी कॉमरेडों ने अलोकतांत्रिक ढंग से अपनी कब्जादारी जमाई। वामपंथी सरकार ने सुनियोजित साजिश के तहत गांव-गांव में अधिनायकवादी संगठनों को खड़ा किया और पंचायतों को अराजक और लंपट किस्म के कामरेडों के हाथों में गिरवी रख लोकतंत्र की ताकत को कमजोर किया। विष भरी इसी संजीवनी से ही माओवादियों का जन्म हुआ और उसके रक्तबीज से धीरे-धीरे पूरा पश्चिम बंगाल लहूलुहान हो उठा। पंचायतों पर काबिज वामपंथी गुंडों और माओवादियों की दबंगई गुल खिलाने लगी। उनकी भस्मासुरी ताकत ने वामपंथी सरकार को साढ़े तीन दशक तक विधानसभा चुनावों में अपना परचम लहराने का सुनहरा अवसर प्रदान किया, लेकिन विकास की अनदेखी और जनता के साथ राजनीतिक ठगी का खेल लोकतंत्र में दीर्घकाल तक कारगर साबित नहीं होता है। पश्चिम बंगाल में भी कुछ ऐसा ही हुआ। अगर आज पश्चिम बंगाल की धरती से साम्यवादी तंबू को उखाड़ने में ममता बनर्जी को कामयाबी मिली है तो इसके लिए वामपंथी सरकार की विनाशकारी आर्थिक नीतियां ही जिम्मेदार हैं। साढ़े तीन दशक पूर्व जब कामरेड पश्चिम बंगाल की सत्ता पर अपना पांव पसारे तो उनके कुटिल इंकलाबी अभियान को कोई समझ नहीं पाया। उन्होंने जमीनों का तो बंटवारा किया, लेकिन उनके द्वारा दिखाया गया सब्जबाग कि वामपंथी सरकार समाज में आर्थिक बराबरी लागू करने के साथ कृषि को बढ़ावा देगी और छोटे-छोटे लघु व कुटीर उद्योगों की स्थापना कर राज्य का चहुमुखी विकास करेगी, सब कोरी बकवास ही साबित हुआ। वामपंथी सरकार द्वारा विकास का दावा और फिजूल का नारा हुगली की तेज धार में बहता चला गया। वामपंथियों ने अपने राजनीतिक नकारेपन से पश्चिम बंगाल को देश के पिछड़तम राज्यों में शुमार कर दिया। जहां देश के अन्य राज्य विकास के नए-नए पैमाने गढ़ते देखे गए, वहीं पश्चिम बंगाल के साम्यवादी पैरोकार पंथनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की खिचड़ी पकाने में मशगुल रहे। पंथनिरपेक्षता का चोंगा ओढ़ रखे इन राजनीतिक बहुरुपियों ने समझ लिया कि उनके निरर्थक गाल बजाने मात्र से ही उनकी हुकूमत बची रहेगी। वामपंथी सरकार की विकास की अधकचरी व्याख्या ने शिक्षा और स्वास्थ्य को रसातल में पहुंचा दिया। गरीबी मिटाने के नाम पर वामपंथी गुंडों ने सरकारी संरक्षण में सार्वजनिक धन को लूटना शुरू कर दिया। सांप्रदायिकता का भूत खड़ा करने में माहिर वामपंथी नुमाइंदों ने अल्पसंख्यक हितों की पैरोकारी कर हर बार उन्हें छलने का काम किया और उनकी ताकत से सत्ता तक पहुंचने की जुगत भिड़ाई, लेकिन इस बार के चुनाव में धर्मनिरपेक्षता का चोंगा पहन रखी वामपंथी जमात का घिनौना चेहरा अल्पसंख्यकों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सका। ममता के मैदान में आ डटने से वामपंथियों का धर्मनिरपेक्षता भरा स्वांग और उनकी जुगाली धरी की धरी रह गई। ममता बनर्जी ने वामपंथियों को उन्हीं की भाषा में जवाब देना शुरू किया। उन्होंने भी आरक्षण का चारा डालकर अल्पसंख्यक मतों को अपने पक्ष में धु्रवीकरण करने का खेल खेला। वामपंथ की सरकार जब तक चेतती, बंगाल की शेरनी ममता चुनावी बिसात पर अपना अंतिम पासा फेंक गई। बंगाल की जनता के मन में राजनीतिक बदलाव का भाव हिलोरें मारने लगा। ममता की सक्रियता को देखकर सरकार की व्याकुलता बढ़नी स्वाभाविक थी। वामपंथी सरकार ममता की काट के लिए आम जनता को विकास का अमृत चखाने के बहाने कल-कारखानों की स्थापना की मुनादी पीटने लगी। मार्क्स के तथाकथित शिष्यों को भी पूंजी और औद्योगिकरण की सार्थकता समझ में आने लगी। साम्यवादी विचारधारा से उकता चुके मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को यहां तक कहना पड़ा कि पश्चिम बंगाल के औद्योगिकरण के लिए पूंजीवाद एकमात्र रास्ता है। पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय ज्योति बाबू ने भी गुहार लगाई थी कि हमें पूंजी चाहिए, भले ही वह देसी हो या विदेशी। लेकिन त्रासदी यह रही कि विकास की चिंता और पूंजी के प्रभाव को वामपंथियों ने तब समझा, जब उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसक चुकी थी। वाम सरकार ने हड़बड़ी दिखाते हुए जमीनों का ताबड़तोड़ अधिग्रहण करना शुरू कर दिया, लेकिन वाम सरकार द्वारा उपजाऊ जमीनों का अधिग्रहण बर्रे के छत्ते में हाथ डालने जैसा साबित हुआ। सिंगूर और नंदीग्राम में उपजाऊ जमीनों का जबरन अधिग्रहण वामपंथी सरकार के विनाश का कारण बन गया। सिंगूर में टाटा उद्योग समूह की नैनो कार परियोजना के लिए सरकार द्वारा अधिग्रहित की गई एक हजार एकड़ जमीन और किसानों द्वारा उसका जबरदस्त विरोध सरकार के गले की फांस बन गया। मैदान में ममता बनर्जी के कूद जाने से न सिर्फ टाटा को सिंगूर छोड़कर भागना पड़ा, बल्कि वामपंथी सरकार के खिलाफ पश्चिम बंगाल में एक नया मोर्चा खुल गया। सिंगूर और नंदीग्राम में किसानों का बहने वाला खून वामपंथी सरकार के चेहरे को इतना वीभत्स बना दिया कि हर ओर सरकार के खिलाफ विद्रोह के स्वर बुलंद होने लगे। ममता ने सिंगूर और नंदीग्राम में उठी आग की लपटों को अपने दामन में समेट सरकार के खिलाफ मुहिम तेज कर दी। ममता की लड़ाई रंग लाने लगी। पराजय के इस संकेत ने आईने की तरह साफ कर दिया कि कॉमरेडों के हाथ से पश्चिम बंगाल की लगाम अब तेजी से छूटती जा रही है। राजनीतिक पाखंड के बूते राजकाज चलाने वाली वामपंथी सरकार को उस वक्त और करारा झटका लगा, जब उसे विधानसभा उपचुनावों से लेकर शहरी निकायों एवं पंचायत चुनावों में मुंह की खानी पड़ी। वामपंथ के पहरूओं को भी अपना लालदुर्ग हिलता दिखाई देने लगा, लेकिन दुर्ग को बचाने के सारे विकल्प बंद थे। ऐतिहासिक कालखंड पर लिखी इबारत तो यही बताती है कि जो बोया जाता है, उसे काटना ही पड़ता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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