पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेसी खेमे में जीत के दावे हैं। संप्रग की बढ़त की चर्चा भी है, लेकिन कांग्रेसी नेतृत्व के चेहरों पर वह खुशी और उत्साह नहीं है, जो जीत को बयां किया करता है। संप्रग की यह जीत जहां क्षेत्रीय दलों की जीत को रेखांकित करती है, वहीं राष्ट्रीय दलों के नाम पर कांग्रेस के सिमटते जनाधार की आहट भी है। दरअसल, यह नब्बे के दशक से शुरू हुई गठबंधन राजनीति की नई ऊंचाइयों का संकेत है, जो कांग्रेसी खुशी को खुशफहमी में बदलने की पटकथा लिख रही है। पांच राज्यों के चुनाव नतीजों में संप्रग की जीत या तो क्षेत्रीय दलों का बेहतर प्रदर्शन है या असम सरीखी विकल्पहीनता का परिणाम। असल में कांग्रेस सहित राष्ट्रीय होने का दम भरने वाली सभी राजनीतिक पार्टियां राष्ट्रीय होने के मूल सिद्धांत को खारिज करके राष्ट्रीय होने दावा करती हैं। बगैर राज्यों की मजबूती के देश में एक स्वस्थ संघीय ढांचे की कल्पना नहीं की जा सकती है। इसी क्रम में राष्ट्रीय दलों का राष्ट्रीय अस्तित्व भी तभी तक सुरक्षित है, जबकि उनके पास केंद्रीय नेतृत्व के साथ ही राज्यों में भी व्यापक जनाधार वाला नेतृत्व है। परंतु वर्तमान दौर में अधिकतर दल राजनीतिक सत्ता के केंद्रीकरण का शिकार है, जिस कारण अधिकतर दलों में मजबूत सूबाई क्षत्रपों का आभाव है और यही सूबाई क्षत्रपों का अभाव भौगोलिक, सामाजिक और राजनीतिक असमानताओं का कारण बनता है, जो अंततोगत्वा क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के उभरने का कारण बनता है। पांच राज्यों के इस चुनाव में राष्ट्रीय दलों को बी पार्टी की भूमिका में खड़ा करने वाली क्षेत्रीय पार्टियों की यही धमक स्पष्ट सुनाई दी है। कभी बंगाल में मुख्य दल की भूमिका में रहने वाली कांग्रेस तमाम तरह के अपमान झेलते हुए ममता बनर्जी की बी पार्टी बनने को विवश है। विधानसभा सीटों के बंटवारे को लेकर बंगाल में हुई कांग्रेस की फजीहत का गवाह पूरा देश है। किस प्रकार ममता बनर्जी ने जीत की कम संभावना वाली सीटें कांग्रेस के लिए छोड़कर एक तरफा ढंग से एक तारीख निश्चित कर डाली कि यदि कांग्रेस चाहे तो इस तारीख तक अपनी सहमति दे दे। अन्यथा, तृणमूल कांग्रेस अकेले चुनाव लडे़गी। ऐसी तमाम फजीहत के बाद भी कांग्रेस ने ममता का पिछलग्गू बनना स्वीकार करते हुए चुनाव में जाना तय किया। कांग्रेस की कमोबेश यही स्थिति तमिलनाडु में भी रही है, जहां आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी करुणा परिवार पार्टी की बी पार्टी बनकर ही कांग्रेस को संतोष करना पड़ा। हालांकि चुनाव के पहले तक और चुनाव परिणाम वाले दिन 13 मई तक कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कहते रहे कि हमारे पास अकेले चुनाव में जाने का विकल्प था और कई राजनीतिक विश्लेषकों ने अकेले चुनाव लड़ने पर लाभ में रहने की बात भी कही थी, लेकिन हमने गठबंधन धर्म का पालन करते हुए डीएमके के साथ जाना तय किया। बावजूद इस गठबंधन धर्मी पिछलग्गूपन के चुनाव में कांग्रेस को बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी। कांग्रेस को विधानसभा चुनावों में महज पांच सीटों से ही संतोष करना पड़ा और यह पांच सीटें संप्रग-1 के समय कांग्रेस के सहयोगी रहे वामपंथियों को मिली 20 सीटों से भी काफी कम है। तमिलनाडु की एक दौर की मुख्य पार्टी कांग्रेस यहां भी जयललिता और करुणा परिवार के बीच झूलती रहने वाली बी पार्टी बनकर रह गई है। हालांकि पार्टी की स्थिति को दुरुस्त करने के लिए पिछले सालों में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश के बाद तमिलनाडु को विशेष समय दिया, लेकिन राहुल की इन कोशिशों के बावजूद तमिलनाडु में पार्टी को दुर्गति से बचाया नहीं जा सका। वैसे बिहार के बाद तमिलनाडु में राहुल गांधी का चुनाव प्रचार और खराब नतीजे एक नए सवाल को जन्म दे रहे हैं। खैर, यह एक अलग विषय है। कांग्रेस की बी पार्टी बनने यह प्रक्ति्रया लगातार तेजी पर है और देश की राजनीति को निर्णायक रूप से प्रभावित करने वाले बडे़ राज्यों में इसका प्रभाव सबसे ज्यादा है। तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार के बाद पश्चिम बंगाल भी इसमें शामिल हो गया है और जगनमोहन रेड्डी के उदय के बाद आंध्र प्रदेश भी इसी राह पर बढ़ता दिखाई पड़ रहा है। कांग्रेस की राजनीति में वर्तमान दौर में आंध्र प्रदेश का विशेष स्थान है, जिसके लिए जगनमोहन रेड्डी के पिता और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री वाईएस रेड्डी का महत्वपूर्ण योगदान है। अब कांग्रेस से बगावत कर चुके जगनमोहन रेड्डी ने हाल ही में संपन्न हुए चुनाव में जीत से उत्साहित होकर यदि नई पार्टी की घोषणा कर दी, जिसकी पूरी संभावना नजर भी आ रही है, तो आंध्र प्रदेश दक्षिण भारत का उत्तर प्रदेश, बिहार या कह लें दूसरा तमिलनाडु बन सकता है। आंध्र प्रदेश में हुए उपचुनावों में मिले समर्थन ने जगनमोहन की महत्वाकांक्षाओं को नया बल और नई ऊर्जा दी है। ध्यान रहे, पांच लाख अस्सी हजार से भी अधिक वोटों से जीतने वाले जगनमोहन ने तेलगू देशम और कांग्रेस दोनों की जमानत तक भी जब्त करा दी है। केरल में सरकार बनाने का दावा करने वाली कांग्रेस की स्थिति कोई अच्छी नही है। कांग्रेस बेशक राज्य में सरकार बनाने जा रही है, लेकिन अभी भी प्रदेश में माकपा ही अकेली सबसे बड़ी पार्टी है। माकपा के 45 विधायक जीत कर सदन में दाखिल हुए हैं तो वहीं कांग्रेस के विधानसभा में महज 38 ही सदस्य हैं। केरल में कांग्रेस लंबे समय से एक गठबंधन का हिस्सा रही है, मगर वर्तमान गठबंधन में कांग्रेस उतनी मजबूत स्थिति में नही है। कांगेस का केरल में सरकार बनाने का अरमान सांप्रदायिक मुस्लिम लीग के कंधे पर बैठकर ही पूरा हो रहा है, जिसके विधान सभा में 20 सदस्य हैं। असल में केरल में कांग्रेस की यह कथित जीत इस चुनाव में मुस्लिम और ईसाई कट्टरपंथी ताकतों की करीबी का ही नतीजा है। कांग्रेस की यही सांप्रदायिकता पर फिसलन वाली नीति ही आने वाले सालों में केरल में संकट की आहट लेकर आने वाली है। इस विधानसभा चुनाव में भाजपा ने राज्य में अपना सबसे अच्छा प्रदर्शन किया है। हर सीट पर अच्छे वोट हासिल करने के अलावा कम से कम दो सीटों नेमम और कासारगोड में कांग्रेस को तीसरे स्थान पर धकेल दिया है और दूसरे व तीसरे स्थान में भी भाजपा तथा कांग्रेस में बीस हजार से ज्यादा का अंतर है। अब असम ही एक ऐसा राज्य है, जो कांग्रेस की खुशी का सबसे बड़ा कारण बन रहा है। असम में इस कांग्रेसी जीत के दो मुख्य कारण हैं, जिसमें सबसे पहला और मुख्य कारण राज्य की राजनीति का विपक्षहीन होना है। विपक्षहीन राजनीति की यह विकल्पहीनता ही असम में कांग्रेस को लगातार सत्ता में रहने और जीत पर अभिभूत होने का कारण दे रही है। असम में विपक्ष के नाम पर एक ओर असम गण परिषद है तो दूसरी तरफ भाजपा भी असम में लगातार मुख्य दल बनने की जी तोड़ कोशिश में है, लेकिन जहां असम गण परिषद पिछले कई सालों से संगठन में चल रही फजीहत से नहीं उबर पा रही है, वहीं विविधताओं वाले जनजातीय असम समाज में संभवतया भाजपा की एकरूपता वाली राजनीति भी अपना स्थान बना पाने में नाकामयाब रही है। अब इस विपक्षहीनता की स्थिति में इस जीत का श्रेय कांग्रेस को दिया जाए या असम के तथाकथित विपक्ष को समझ पाना मुश्किल है। हां, पिछले कुछ सालों में असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई अवश्य एक नए कांग्रेसी सूबाई क्षत्रप बनकर उभरे हैं, जिसका फायदा कांग्रेस और मुख्यमंत्री दोनों को मिला है। परंतु असम पूर्वोत्तर का एक छोटा राज्य है, जो राष्ट्रीय राजनीति को बडे़ स्तर पर प्रभावित कर पाने की स्थिति में नहीं है। अब इसे कांग्रेस की खुशफहमी ही कहा जाएगा, जो देश के बडे़ राज्यों में लगातार अपनी कमजोर होती स्थिति के बावजूद भी खुश होने का सुख संजोने की भ्रामक स्थिति की शिकार है। भ्रष्टाचार पर बार-बार गठबंधन की विवशताओं का हवाला देने वाली कांग्रेस अपनी कमजोर होती स्थिति के कारण नए गठबंधनों की कमजोर नेतृत्व वाली दबंग क्षेत्रीय पार्टियों के इशारों पर नाचने वाली और ज्यादा मजबूर पार्टी बनकर रह जाएगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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