Thursday, May 5, 2011

फिर सुर्खियों में पुरुलिया हथियार कांड


पूरे डेढ़ दशक बाद एक बार फिर पुरुलिया हथियार कांड फिर से सुर्खियों में है। इसकी वजह है इस कांड के मुख्य आरोपी किम पाल्ग्रेव डेवी उर्फ नील्स क्रिश्चियन निल्सन का एक टीवी चैनल को दिया गया यह बयान कि उक्त कांड में दिल्ली स्थित राजनीतिक ताकतों का हाथ था और वह सारा का सारा मामला पश्चिम बंगाल की मार्क्‍सवादी सरकार को अस्थिर करने के उद्देश्य से करवाया गया था। डेवी का तो यहां तक कहना है कि देश से भाग निकलने में एक सांसद ने अपनी कार में उसे भारत की सीमा भी पार कराई थी। बाद में फिर नेपाल के रास्ते वह अपने देश डेनमार्क पहुंचा था। इस अभूतपूर्व कांड पर शुरू से नजर रखने वालों के लिए अभी तक यह रहस्य ही है कि 17 दिसम्बर 1995 की रात को पश्चिम बंगाल के पुरु लिया कस्बे में गिराये गये हथियार आखिर थे किसके लिए। हथियारों के तीन खोके पैराशूट बांध कर नीचे फेंके गए थे जिनमें बुल्गारिया में निर्मिंत 300 एके 47 व एके 56 राइफलें, 15000 कारतूस, आठ राकेट लांचर, टैंकभेदी हथगोले, 9 एमएम की पिस्तौलें और रात में दिखानेवाले उपकरण शामिल थे। हथियारों के इस तरह फेंके जाने के मुद्दे पर विश्लेषक और विशेषज्ञों में आज भी हैरानी है। शुरुआती दौर में सारी उंगलियां आनंद मार्ग की और उठीं थीं। इसका कारण यह था कि आनंदमार्ग का मुख्यालय पुरु लिया में ही है। सीबीआई ने तो यहां तक दावा किया था कि किम डेवी खुद एक आनंदमार्गी है। पर कलकत्ता सिविल कोर्ट के जज पी के बिस्वास ने आनंदमार्ग की संलिप्तता के पर्याप्त प्रमाणों के अभाव में उसके खिलाफ सारे आरोप खारिज कर दिये। कई सुरक्षा विशेषज्ञ इस कांड को पूर्वोत्तर राज्यों या बांग्लादेश के उग्रवादी गुटों की मदद के खिलाफ चलाया गया अभियान भी मानते रहे हैं। इनका सोचना है कि नेविगेशन की गलती से ये हथियार पुरुलिया में गिर गये। एक अन्य थ्योरी यह भी थी कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने म्यांमार (बर्मा) के काचेन विद्रोहियों की मदद के लिए ये हथियार पहुंचाए थे या फिर वे श्रीलंका में स्वायत्तता के लिए लड़ रहे लिट्टे उग्रवादियों के लिए थे। लेकिन सुरक्षा विशेषज्ञों का एक वर्ग यह भी मानता है कि पुरु लिया हथियार कांड भारत की बाहरी खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) द्वारा पश्चिम बंगाल की मार्क्‍सवादी सरकार को अपदस्थ करने का एक उल्टा पड़ गया अभियान है। डेवी के उक्त बयान ने इस अनुमान की एक तरह से पुष्टि कर दी है। डेवी ने यह भी तर्क दिया कि उसका विमान कराची से भारतीय वायु सीमा में आसानी से तभी दाखिल हो सकता था जब भारत सरकार को यह अच्छी तरह मालूम हो कि विमान आने वाला है। यह अन्तोनोव- 26 परिवहन विमान 17 दिसम्बर 1995 की दोपहर को कराची से उड़ा और मुंबई आया। वहां से वह वाराणसी पंहुचा। पेट्रोल भरवाकर अपने निर्धारित मार्ग से अलग हटकर इसने पुरु लिया में हथियार गिराए और फिर 18 दिसम्बर को कोलकाता जा पंहुचा। वहां इसने फिर पेट्रोल भरवाया और फुकेट (थाईलैंड) के लिए उड़ गया। 21 दिसम्बर को यह फुकेट से मद्रास (चेन्नई) के लिए उड़ा। उसी रात पौने ग्यारह बजे मद्रास से उड़कर जब यह कराची वापिस जा रहा था तो इसे मुंबई में उतार लिया गया। फिर डेवी के फरार होने के बाद उसके साथी पीटर ब्लीच और विमान के अन्य कर्मचारियों को गिरफ्तार कर लिया गया। इस मामले में डेवी का तर्क यह है कि इतना सब कुछ बिना सरकार की जानकारी के हो ही नहीं सकता था। विशेषज्ञों का तो आज भी मानना है कि सरकार में कोई न कोई ऐसा वर्ग जरूर है जो सब कुछ जानते हुए भी इस कांड पर पर्दा डाले रहता चाहता है। इस दौरान एक और दिलचस्प तथ्य यह उभर कर सामने आया है कि सीबीआई डेवी को सारी दुनिया में खोजती फिरी जब कि वह शुरू से डेनमार्क में ही था। उसने वहां के पत्रकारों को कई इंटरव्यू भी दिए। सारी दुनिया को मालूम था कि वह कहां है, सिवा हमारी सर्वोच्च खोजी एजेंसी सीबीआई के। इसके अलावा ब्रिटेन कि खुफिया एजेंसी एम आई 5 ने तीन मौकों पर इस संभावित हथियार वर्षक की जानकारी भारत की खुफिया एजेंसी रॉ को दे दी थी फिर भी कोई गंभीर प्रतिरोधात्मक कार्रवाई नहीं की गई। केंद्रीय गृह मंत्रालय के तत्कालीन सचिव शशि प्रकाश ने महज साधारण डाक से एक चिट्ठी पश्चिम बंगाल की सरकार को भेजकर खानापूरी कर ली। आतंरिक सुरक्षा से जुड़े इस गंभीर मुद्दे को इस कदर हल्केपन से लिया जाना अक्षमता और निकम्मापन नहीं है, तो और क्या कहा जा सकता है? बहरहाल, वस्तुस्थिति जो भी हो, लेकिन डेवी के इस बयान से मधुमिक्खयों के छत्ते में पत्थर जा गिरा है और सरकारी गलियारों में खासी आपाधापी मच गई है। दूसरी ओर सीबीआई ने डेवी के उक्त बयान को झूठा करार दे दिया है और पश्चिम बंगाल सरकार ने इस कांड की फिर से जांच की मांग की है। यहां वामपंथी पार्टियों से भी सवाल पूछा जा सकता है कि 1996 में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार थी। तब केंद्रीय गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्त थे। उस समय वामपंथी पार्टियों ने पुरुलिया कांड की जांच क्यों नहीं करायी? जाहिर है, अब सरकार लीपापोती के मूड में आ चुकी है। तार्किक दृष्टि से कई साल बीत जाने पर भी अनेक सवाल ऐसे हैं, जिनके जवाब जानने का अधिकार देश की जनता को है। इसके लिए जरूरी है कि इस सारे मामले की दुबारा जांच हो और उससे उपजी सारी जानकारी को सार्वजनिक किया जाये। आखिर कब तक यह होता रहेगा कि सरकार में बैठे चंद लोग अपने हिसाब कोई भी फैसला ले लें और बाद में पूरा देश उसका खमियाजा भुगते। किम डेवी के बयान ने मामले की उलझन और भी बढ़ा दी है और सरकार के लिए जरूरी हो गया है कि वस्तुस्थिति जो भी और जैसी भी हो, उसे जनता के सामने लाये। सरकार के लिए यह उलझन की बात है कि जब यह कांड हुआ, उस समय देश में कांग्रेस की सरकार थी। हालांकि राजनीतिक पार्टयिों में एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का दौर भी शुरू हो चुका है, लेकिन यह मौका क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर देश की जनता का विश्वास अर्जित करने का है। अन्यथा जब देश की आतंरिक सुरक्षा के साथ ऐसा खिलवाड़ हो सकता है, तो ऐसी स्थिति में देश का भविष्य क्या होगा, यह अनुमान लगा पाना कोई मुश्किल काम नहीं है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


No comments:

Post a Comment