Wednesday, May 25, 2011

क्या गुल खिलाएगी यूपी की सियासत!


जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रहे भट्टा पारसौल गांव के किसानों पर पुलिस का दमनात्मक रवैया सुर्खियों में है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने यहां पहुंचकर इस घटना की भयावहता को कमतर करने की सरकारी कोशिशों पर पानी फेर दिया है। पिछले नौ महीनों में यह दूसरी दु:खद घटना है, जहां यमुना एक्सप्रेस वे का विरोध कर रहे किसानों को पुलिस की बर्बरता का शिकार होना पड़ा है। उनका खून बहा है और घर से भागने की त्रासदी झेलनी पड़ी है। राहुल गांधी इन पीड़ित किसानों की आवाज बने हैं। उन्होंने पुलिस-ज्यादतियों को उजागर कर सरकार को कठघरे में खड़ा किया है और वाराणसी में भी पार्टी के राज्य सम्मेलन में उन्होंने किसानों की समस्याओं, गिरती कानून व्यवस्था और विकास के सवाल पर गांव-गांव जाने का ऐलान किया है। उनके इस अभियान का पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी समर्थन किया है। निश्चित रूप से कांग्रेस इन सवालों के जरिये अपनी आक्रामक और जन सरोकारी छवि बनाना चाहती है ताकि प्रदेश में हाशिये पर पड़ी पार्टी को मुख्य राजनीतिक भूमिका में लाया जा सके। इतना ही नहीं, प्रमुख विपक्षी दल सपा और भाजपा भी इन्हीं सवालों को अपने तरीकों से उठा रहे हैं और उनके निशाने पर भी बसपा सरकार ही है। ऐसे में क्या उत्तर प्रदेश का विकास, किसानों के सवाल और गिरती कानून व्यवस्था आगामी विधानसभा चुनाव में मुद्दे बनेंगे? कांग्रेस इन सवालों को लेकर जनांदोलन कर सकेगी? राहुल का मिशन 2012 कारगर होगा? ये सारे सवाल हैं। हमें याद है दादरी परियोजना को लेकर किसान आंदोलित थे और तत्कालीन सरकार उनके निशाने पर थी। उस समय भी जमीन कौड़ियों के भाव दिए जाने को लेकर सरकार आरोपों के घेरे में थी। आज भट्टा पारसौल के किसानों के सवाल भी कुछ वैसे ही हैं और वर्तमान सरकार दमन के जरिये उसे दबाना चाहती है। उनका गुस्सा सुश्री मायावती के खिलाफ चरम पर है। किंतु सरकार दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने तथा पीड़ितों को न्याय दिलाने की जगह सचाई दबाने में लगी है। इसलिए सरकार के खिलाफ तेजी से माहौल बन रहा है, जिसका प्रतिकूल असर सरकार की छवि पर पड़ रहा है। बुंदेलखंड में कर्ज से परेशान किसान की आत्मदाह की घटना तथा भुखमरी से हुई कई मौतों ने आग में घी डालने का काम किया है। दादरी के किसानों के सवाल पर तत्कालीन मुलायम सरकार के प्रति उपजे आक्रोश के कारण ही 2007 के चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मायावती 70 में से लगभग 38 सीटें जीतने में सफल हुई थीं। सरकार विरोधी हवा के कारण ही उन्हें यह सत्ता मिली थी, उनको सपा से 4 प्रतिशत अधिक मत हासिल हुआ था। इस सफलता में निश्चित रूप से अन्य राजनीतिक समीकरणों की भूमिका रही होगी, किंतु पूर्ववर्त्ती सरकार के प्रति किसानों का गुस्सा ही अहम कारण था। इसीलिए उसे मेरठ, सहारनपुर और मुरादाबाद मंडलों से मुश्किल से आठ सीटें ही हासिल हुई थीं। आज मायावती भी इसी भंवर में फंस गई हैं। उनकी सरकार के काम- काज को लेकर चौतरफा निराशा है। कानून व्यवस्था और विकास के सवाल उसके गले की फांस बने हैं। वह अपने खिलाफ बने इस नकारात्मक माहौल को कैसे बदलती हैं और अपने वोट बैंक को सुरक्षित रखती है; यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है। इस पर गौर किया जाना जरूरी है कि इतने बड़े पैमाने पर भूमि के अधिग्रहण की जरूरत क्यों पड़ रही है? एक सरकारी आंकड़े के अनुसार देश में वर्ष 1990-91 और 2007-08 के बीच खेती के रकबे में 21.4 लाख हेक्टेयर की कमी हुई है। उत्तर प्रदेश में भी तेजी से हो रहे शहरीकरण के कारण यह एक गंभीर चुनौती बनती जा रही है। वैसे भी यमुना एक्सप्रेस वे परियोजना को महज एक सड़क बनाने की योजना समझना बड़ी भूल होगी। इस परियोजना के तहत मॉल, व्यावसायिक कॉम्पलेक्स और रिहायशी कालोनियां बनाने के लिए जमीन दी जा रही है। इसके लिए इफरात में जमीन अधिग्रहण की जरूरत है। जाहिर है, निजी क्षेत्र के लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए यह सब किया जा रहा है। किसान उनके लिए जमीन देने को राजी नहीं हैं या इसके बदले में वे उचित मुआवजे की मांग रहे हैं। उनकी मांग पर विचार करने के बदले सरकार उनका दमन करती है। परेशान किसान प्रतिरोध में कानून अपने हाथों में लेने से गुरेज नहीं करते। भट्टा पारसौल की घटना इसी का जीता-जागता उदाहरण है। यद्यपि इस घटना के बाद राजनीतिक दलों ने भूमि अधिग्रहण कानून की समीक्षा और इसमें किसानों के हितों को तरजीह देते हुए व्यापक संशोधन की मांग की है। लेकिन असल मुद्दे को समझे बिना भूमि महज कानूनी संशोधन से टिकाऊ हल नहीं निकलने वाला है। यह सही है कि भट्टा पारसौल की घटना ने सियासत को गरमा दिया है। इस बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट का सरकार से घटना की सीबीआई जांच के बारे में मंतव्य मांगना भी सियासी समीकरण को प्रभावित कर रहा है। तो क्या भट्टा पारसौल उत्तर प्रदेश की राजनीति में नई इबारत लिखने में कामयाब होगा? बुनियादी सुविधाओं समेत समग्र विकास और बेहतर कानून व्यवस्था के ये ज्वलंत मुद्दे जातियों के मकड़जाल में उलझी राजनीति को बिहार की तरह नई दिशा में अग्रसर कर पाएंगे? इन सवालों के जवाब के लिए पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के निहितार्थ को समझना होगा। जिनमें क्षेत्रीय गठबंधन की राजनीति ने दलों को सत्ता के शिखर पर पहुंचाने में मजबूत भूमिका निभाई है तो असम में विपक्ष के बिखराव का लाभ कांग्रेस को मिला है और वह तीसरी बार वहां सरकार में है। ये दोनों बिंदु उत्तर प्रदेश की राजनीति के लिए काफी अहम हैं। विपक्षी दलों को सोचना होगा कि अलग- अलग लड़कर क्या वे बसपा को सत्ता में आने का रास्ता साफ करेंगे अथवा असम से नसीहत लेंगे? वहां कांग्रेस भ्रष्टाचार को लेकर भारी मुसीबत में थी किंतु अगप-भाजपा में फूट के कारण वोट बंटे, जिसका फायदा कांग्रेस को मिला। इसके विपरीत केरल, तमिलनाडु, पुडुचेरी और . बंगाल में गठबंधन की सफल राजनीतिक मिसाल हमारे सामने है। उत्तर प्रदेश में सीधा मुकाबला सत्तारूढ़ बसपा और सपा के बीच है। भाजपा और कांग्रेस तीसरे और चौथे स्थान पर हैं। एक अनुमान के अनुसार राज्य में 20 फीसद आबादी अगड़ों की है, जिसमें से करीब 10 फीसद ब्राह्मण और 8 फीसद राजपूत हैं। भाजपा का मुख्य आधार अगड़ी आबादी ही है। दलितों की आबादी करीब 23 फीसद है, जिसके बड़े हिस्से पर बसपा का कब्जा है। आज बसपा जिस दलित-ब्राह्मण वोट बैंक के बल पर सत्ता में है, उसी गठजोड़ के आधार पर कांग्रेस ने सालों-साल राज किया था। नब्बे के दशक में भाजपा की जीत का एक बड़ा कारण सवर्णो के साथ-साथ अति पिछड़ा वोट बैंक पर उसकी गहरी पकड़ थी। पिछड़ों के नेता कल्याण सिंह अब उसके साथ नहीं हैं तो ब्राह्मण भी उससे कट गए हैं। कांग्रेस की कोशिश अगड़ी जातियों में सेंध लगाने के साथ ही साथ मुस्लिम दलित वोट बटोरने की है। राहुल गांधी की पूरी कोशिश खुद को दलित किसानों के हितैषी के रूप में पेश करने की है। दलितों के घर जाना, उनके घर खाना खाना तथा किसानों के बीच जाना कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा है। इसके अलावा कांग्रेस मुसलमानों को अपने साथ जोड़ने में लगी है, जो अयोध्या कांड के बाद उससे बिखर गया था। उसे पता है कि प्रदेश में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 18 फीसद है जो 80 सीटों पर निर्णायक भूमिका में हैं और 125 विस सीटों पर उनका वोट प्रतिशत 15 फीसद के आसपास है। ऐसी स्थिति में भाजपा और कांग्रेस एक-दूसरे का वोट काटने में लग गई हैं। इसके विपरीत सपा यादव और मुस्लिम गठजोड़ के साथ सत्ता में रह चुकी है। मुसलमान जो पिछले चुनाव में उससे बिदक गए थे, अब उसके साथ रहे हैं। उधर, जाट नेता चौधरी अजित सिंह ने छोटे दलों को मिलाकर जनक्रांति मोर्चा नामक गठबंधन तैयार किया है। इसमेंपीस पार्टीऔरभारतीय समाज पार्टीजैसे दल शामिल हैं। इन दलों का भले ही जनाधार कम हो लेकिन दूसरे दलों का खेल बनाने-बिगाड़ने में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद भाजपा और कांग्रेस को नुकसान करती है तो पीस पार्टी उत्तर प्रदेश में सपा की परेशानी का सबब है। इसी तरह भारतीय समाज पार्टी बसपा का नुकसान करती है। इसीलिए सरकार के खिलाफ निर्णायक परिणाम के लिए धर्मनिरपेक्ष ताकतों को मतों के बिखराव को रोकने के लिए चुनावी रणनीति पर गंभीरता से सोचना चाहिए। यह सच है कि राहुल गांधी की सक्रियता से प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस की सक्रियता बढ़ी है। जनता कांग्रेस के बारे में सोचने लगी है किंतु पिछले ढाई दशक से सत्ता से बाहर रहने के कारण पार्टी का निचले स्तर तक प्रभावी संगठन नहीं हैं जो मतदाताओं को मतदान केंद्रों तक ला सकें। वहीं पार्टी चापलूसों से घिरी हुई है, जनाधारविहीन नेता आगे हैं तो भाई-भतीजावाद पार्टी को और कमजोर बना रहा है। राहुल गांधी की कोशिश भी इस संस्कृति को नहीं तोड़ पा रही है। वैसे अभी पार्टी ने गठबंधन की राजनीति अपनाई और सफल भी हुई। तो क्या राहुल गांधी के मिशन 2012 को पाने के लिए कांग्रेस उप्र में यही दांव आजमाएगी? इधर दो दशक में मतदाताओं ने हर चुनाव में सरकार बदलने की एक परिपाटी कायम की है। इसका कारण सरकारों का जनता की उम्मीदों पर खरा उतरना है। सत्तारूढ़ दल के खिलाफ वोटरों का गुस्सा उत्तर प्रदेश चुनाव में डिसाइडिंग फैक्टर रहा है। आज भी सरकार के कामकाज को लेकर आमजन में निराशा और आक्रोश है। अब विपक्ष इसे कैसे भुनाता है, यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा।

No comments:

Post a Comment