Sunday, May 15, 2011

बंगाल की शेरनी ने ढहा दिया लाल दुर्ग


तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी ने आखिरकार बंगाल में वाम मोर्चा का 34 साल पुराना लाल दुर्ग ढहा ही दिया। मां-माटी और मानुष के नारे और प्रचंड जनसमर्थन के बल पर गरीबों-किसानों की दीदी ने लेफ्ट फ्रंट का आठवीं बार सत्ता पर काबिज होने का ख्वाब तोड़ दिया। इसी के साथ दुनिया में सबसे लंबे समय से प्रजातांत्रिक शासन का तमगा वामपंथी सरकार से छिन गया। दिल्ली से चली ममता की दुरंतो देर से ही सही बंगाल पहुंच गई। बंगाल की शेरनी की परिवर्तन की दहाड़ ने विरोधियों की बोलती बंद कर दी। दीदी ने आलोचकों को दिखा दिया कि लोस-पंचायत चुनाव की कामयाबी जमीनी थी जिसने बंगाल विस चुनाव में नया किला खड़ा किया है। तृण के मूल यानी जमीनी स्तर पर वामपंथ विरोध का बिगुल फूंकने वाली ममता की आंखों में बंगाल ने सत्ता परिवर्तन का जो उगता सूरज देखा, उनके करिश्माई व्यक्तित्व ने इसे परिवर्तन का प्रखर प्रतीक बना दिया। ममता पिछले दो दशकों में बंगाल में वामपंथ विरोध का एकमात्र कद्दावर चेहरा बनकर उभरीं। उन्होंने हिंसा और हथियार के सहारे सत्ता पर काबिज रहने वाले लेफ्ट काडर का डर जनमानस के मन से काफूर कर दिया था। दीदी ने बंगाल से वाम मोर्चे को खदेड़ने के एकमेव लक्ष्य को पाने के लिए बड़े से बड़ा राजनीतिक फैसला लेने से गुरेज नहीं किया। भारी मतदान ने विपक्षी वोटों में बिखराव और बागियों की फौज से महाजोट को भारी नुकसान के दावे की हवा निकाल दी। ममता जीत को लेकर इतनी बेफिक्र थींकि प्रचार के दौरान ही मंत्रिमंडल के आकार और नई सरकार की प्राथमिकताओं का इजहार किया। बंगाल को वह एक पल को भी नहींभूलीं। उन पर ज्यादातर वक्त कोलकाता में बिताने का आरोप लगा। बंगाल पर तोहफों की बारिश करने वाला रेल बजट पेश करने की तोहमत झेलनी पड़ी, मगर ममता की नजर तो चिडि़या की आंख पर थी और उसे भेद कर ही उन्होंने दम लिया। ममता का जीवन परिचय कोलकाता के एक मध्यमवर्गीय परिवार में पांच जनवरी 1955 को ममता का जन्म हुआ। स्वतंत्रता सेनानी परोमिलेश्वर बनर्जी की संतान ममता को बेबाकी और विद्रोही स्वभाव तो जैसे विरासत में ही मिला। जनसेवा का प्रण उन्होंने किशोरावस्था में ही कर लिया था। सादगी, साफगोई और अन्याय के खिलाफ माथे पर पड़तींसिलवटें उनकी पहचान हैं। राजनीतिक व्यस्तता के बीच पेटिंग,कविताएं और गायन में भी वह निपुण हैं। दक्षिण कोलकाता के कालीघाट स्थित उनका घर आज भी एक मध्यमवर्गीय परिवारों जैसा है। विलासितापूर्ण संसाधनों और सौंदर्य प्रसाधनों से हमेशा उनकी दूरी रही। उनकी जीवनी थिएट्रिक्स आफ बंगाल टाइग्रेस के मुताबिक आपातकाल के दौरान एक बार वह जयप्रकाश नारायण की कार के बोनट में चढ़ गईं थीं। यह दिलचस्प है कि वह मतदाता बाद में बनींमगर उन्होंने उसके पहले ही कांग्रेस का दामन थाम लिया था। परस्नातक के साथ उन्होंने कानून की डिग्री भी ली। 1970 में जब वह राजनीति में आईं तो सफेद सूती साड़ी, पैरों में चप्पल और कंधे पर बैग उनकी पहचान थी जो आज भी कायम है। अगस्त 1990 में दक्षिण कोलकाता स्थित अपने घर के पास ही ममता पर जानलेवा हमला हुआ। कई सामाजिक -मानवाधिकार संगठनों से जुड़ी दीदी ने उपलब्धि, जंतर दरबारे, मां, पल्लबी, मानाबिक (बंगाली में), स्ट्रगल आफ एक्जिटेंस, मदरलैंड (अंग्रेजी) समेत कई किताबें लिखीं। गुस्से के इजहार में कभी नहीं हिचकीं क्या अपने क्या विरोधी, अपने तेवर जाहिर करने से ममता कभी नहींहिचकीं। 1996 में सरकार का हिस्सा रहते हुए भी वह पेट्रोलियम पदार्र्थो की कीमतों में बढ़ोतरी का विरोध करते हुए लोकसभा के वेल में हंगामा करती नजर आईं। 1996 में ही महिला आरक्षण बिल पर चर्चा के दौरान सपा सांसद अमर सिंह का कॉलर तक पकड़ लिया था। फरवरी 1997 में तत्कालीन रेल मंत्री राम विलास पासवान ने रेल बजट पेश किया। बंगाल की अनदेखी का आरोप लगाते हुए उन्होंने पासवान पर अपना शाल फेंका और इस्तीफे की पेशकश कर डाली। 11 दिसंबर 1998 को महिला बिल पेश होने से रोकने के लिए हंगामा कर रहे सपा सांसदों को सबक सिखाने वेल में पहुंच गईं और सांसद दारोगा प्रसाद सरोज को खींचकर वेल से बाहर ले आईं। चार अगस्त 2006 को बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा उठाने की इजाजत न मिलने पर ममता ने इस्तीफे के कागज लोस उपाध्यक्ष चरणजीत सिंह अटवाल पर उछाल दिए। दीदी के बागी तेवर ममता ने सत्ता से मोह कभी नहीं दिखाया। उनके बागी तेवर सब पर भारी पड़े। राव सरकार (91-96) में उन्हें मानव संसाधन विकास मंत्रालय, युवा मामलों और खेलकूद का राज्य मंत्री बनाया गया, लेकिन खेलकूद नीति पर जब सरकार से ठनी तो उन्होंने 1993 में मंत्रिपरिषद से इस्तीफा दे दिया। केंद्र में सरकार बचाने के लिए बंगाल में वामपंथी विरोध से बचने की कांग्रेसी कमजोरी से ऊब चुकी ममता ने अप्रैल 1996 में लेफ्ट फ्रंट-कांग्रेस में गुपचुप डील का आरोप लगाया। ममता ने अलीपुर में एक रैली के दौरान गले में शाल डालकर गले में फंदा लगाने की धमकी तक दे डाली। 97 में उन्होंने तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की जो बेहद कम वक्त में बंगाल में मुख्य विपक्षी दल बन गया। फरवरी 1998 में उन्होंने राजग से हाथ मिला कर लोस चुनाव लड़ा। दीदी 1999 में बाजपेयी सरकार में रेल मंत्री बनीं। इस दौरान बाजपेयी व आडवाणी तक ने उनका गुस्सा झेला। तहलका मामले में 2001 में कैबिनेट पद त्याग दिया और कांग्रेस के साथ बंगाल विस का चुनाव लड़ा। बतौर रेल मंत्री उन्होंने कई बजट पेश किए मगर उन पर बंगाल तक सीमित रहने की तोहमत मढ़ी गई। उन्होंने तृणमूल-भाजपा और कांग्रेस का महाजोत की असंभव कोशिश भी की। 2004 के लोस चुनाव में तृकां से सिर्फ ममता ही जीतीं। जनवरी 2004 में वह दोबारा भाजपा सरकार में लौटीं और कोयला मंत्री बनी। 05 के निकाय चुनावों में उन्हें हार झेलनी पड़ी। 06 के विस चुनाव में उनके आधे से ज्यादा विधायक हार गए । 2009 के लोस चुनाव में कांग्रेस-तृकां गठबंधन ने जो कामयाबी पाई उसे ममता ने विस चुनावों में दोगुना कर दिया। इसका फायदा उन्हें 2009 के लोस और पंचायत चुनावों में मिला। गठजोड़ ने 26 सीटें जीत वाम शासन की चूलें हिला दीं। वाम मोर्चे के शासन के दौरान हुए लोस चुनाव में विपक्ष की यह सबसे बड़ी जीत था।


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