भूगोल का कोई छात्र इस सवाल का बखूबी उत्तर दे देगा कि केरल और असम के बीच की दूरी कितनी है। जाहिर है कि दोनों भारत के सुदूर सूबे हैं और इनके बीच की दूरियां भी खासी हैं। पर हाल ही में हुए दोनों राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों के नतीजों पर गौर करने पर एक सामनता साफ तौर पर दिखाई दे रही है। दरअसल, दोनों ही राज्यों के मुसलमानों ने उन दलों के हक में बड़े पैमाने पर वोट दिया, जो उनके मजहब की बुनियाद पर चल रहे हैं। उदाहरण के रूप में केरल में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग और असम में आल इंडिया युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआइयूडीएफ) को मुसलमानों ने दिल खोलकर वोट दिया। असम की 70 सदस्यों वाली विधानसभा में 16 मुसलमान जीते। इनमें से अधिकतर एआइयूडीएफ से थे। उधर, केरल में मुस्लिम लीग के 21 उम्मीदवार जीते। जाहिर है कि इन दोनों ही जगहों पर मतदाताओं का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण अपने आप में खतरे की घंटी है। इसके साथ ही यह ध्रुवीकरण उन राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों को भी सोचने के लिए मजबूर करता है, जो सभी धर्मो और जातियों के मतदाताओं के हक में संघर्ष करते हैं। उन्हें सोचना होगा कि उन्हें मुसलमानों ने किस वजह के चलते खारिज किया। यहां सवाल यह है कि मुस्लिम मतदाताओं ने इन सूबों में अपने मजहब के आधार पर बने सक्रिय दलों के लिए ही क्यों वोट दिए? कुछ जानकार कहते हैं कि चूंकि कांग्रेस, लेफ्ट, भाजपा, असम गण परिषद जैसे दलों में उन्हें सही प्रकार से नुमाइंदगी हासिल नहीं होती। इसलिए वे अब उन दलों का रुख करने लगे हैं, जो उनके हैं। यह सारी बहस का सरलीकरण करने जैसा है। पश्चिम बंगाल में तो इस तरह से नहीं हुआ। असम और केरल में मुसलमानों का वोट मुसलमान के लिए ही वाली मानसिकता किसी भी सूरत में उचित नहीं मानी जा सकती। इन सूबों में क्रमश: 30 और 25 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है। अगर केरल की बात करें तो भारत में इस्लाम सबसे पहले केरल में ही आया था, बारास्ता अरब देशों से। भारत की पहली मस्जिद भी कालीकट (केरल ) में ही है। असम में भी मुसलमानों की आबादी के बढ़ने को लेकर यह आरोप लगते हैं कि बांग्लादेश की सरहद से लगने वाले कुछ जिलों में लगातार होती घुसपैठ के कारण वहां पर मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ती ही चली गई। खैर, पहली नजर में देखने में कुछ भी गलत नजर नहीं आता कि मुसलमान किसी दल विशेष को वोट दें। आखिर इंडियन मुस्लिम लीग भारत के संविधान को मानती है और उसका उस मुस्लिम लीग से कोई लेना-देना नहीं है, जिसने 1947 में भारत का दो फाड़ करवाया था। उसकी वेबसाइट के होम पेज पर उसके आला नेताओं के साथ-साथ बापू की भी फोटो है। इसे खंगालने पर साफ तौर पर दिखता है कि पार्टी का गठन देश के मुसलमानों, कमजोर और पिछड़ों को लोकतांत्रिक तरीके से उनके अधिकार दिलाने के लिए है। उधर, अगर बात ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट की करें तो इसकी वेबसाइट को देखने पर कहीं भी यह नजर नहीं आएगा कि यह मुसलमानों के हक में लड़ना चाहती है। पर यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि वास्तुस्थिति यही है। हालांकि मुस्लिम लीग के विपरीत इसके कई पदाधिकारी हिंदू भी हैं। मशहूर अर्थशास्त्री और सच्चर कमेटी से जुड़े रहे डा. अबू सालेह शरीफ कहते हैं, हमारी तो ख्वाहिश रही है कि मुसलमान देश की मुख्यधारा की पार्टियों से जुड़ें। वे अपने बच्चों को मदरसों के स्थान पर सामान्य स्कूलों में भेजें। उन्हें उन दलों से खुद को जोड़ना बेहतर रहेगा, जो समाज के समग्र विकास में यकीन रखते हैं। अगर वे इस तरह से नहीं सोचते-करते हैं तो यह अपने आप में कोई बहुत आदर्श स्थिति नहीं होगी। पर अच्छी बात यह है कि पश्चिम बंगाल में वोटिंग के वक्त मुसलमानों ने अपने मताधिकार का प्रयोग करते हुए उम्मीदवार की जाति और धर्म को तरजीह नहीं दी। वहां 50 से भी अधिक मुसलमान जीते। पर गौर करने लायक तथ्य है कि पश्चिम बंगाल में सर्वाधिक मुसलमान उम्मीदवार तृणमूल कांग्रेस के जीते। लेफ्ट फ्रंट को मुसलमानों के बीच में उस तरह की कामयाबी नहीं मिली, जैसी उसे उम्मीद थी। बंगाल में सामाजिक समरसता के लिए वामदलों के योगदान को कतई कम करके नहीं आंका जा सकता। हालांकि पश्चिम बंगाल देश के विभाजन से प्रभावित होने वाला राज्य था। इसके बावजूद वहां लेफ्ट ने सांप्रदायिक दंगे कभी नहीं होने दिए। (लेखक टीवी पत्रकार हैं)
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